लकी मैडम
लकी मैडम
- गुंजन कुमार झा
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स्टाफ रूम में सुगबुगाहट आम थी . “आए सोने कि थी ? “ “ न जी हीरे की थी बतावें हैं “ . कौण वापस देण आओगा इब ..इब न मिले “ मलिक मैडम पिछली सीट से बोलीं . मालिक मैडम का वाक्य हमेशा एक फुल स्टॉप होता था. उसके बाद वाक्य हो या वाकया, उसपर विराम लगना तय था.
दाहिनी तरफ बैठी गणित विभाग की मैडमों काना फूसी का दौर जारी था. मैडम की अंगूठी खोई है पर यह है बड़ी लकी. देखना, अंगूठी तो पक्का मिल जाएगी. यदि नहीं मिली तो उससे बड़ी कोई चीज़ मिल जाएगी. एक झटके में पीआरटी से पीजीटी बन गयी. इतना अच्छा घर – परिवार. बच्चे भी पालती है और इतना पढ़ती भी है. सकूल भी रोज़ आती है. स्टूडेंट्स तो मरती हैं इसपर . दिन भर ‘सरिता मेम’ सरिता मेम’ की रट लगाये रहती हैं. ग्यारहवीं-बारहवीं की लड़कियां इसे अपना ‘आइडोल’ मानती हैं. सेमिनार में जाती है. कविताएँ लिखती है. घूमने जाती है. हमेशा कुछ न कुछ पढ़ती रहती है. शादी के बाद भी इतना कुछ करती है. वरना तो शादी के बाद बच्चे पालने और सास-ससुर की आवभगत में ही सारा जोश खर्च हो जाता है.
अंगूठी को विद्यालय के समय में सब जगह ढूँढा गया. सफाई कर्मियों से लेकर प्रिंसिपल तक यह बात चर्चा का विषय बन गयी. लाइब्रेरी से लेकर वाशरूम तक और बरामदे से लेकर प्ले ग्राउंड तक चप्पा-चप्पा छान मारा गया. कही कुछ पता न चला. छुट्टी का समय हो चला था. सब एक-एक कर सरिता को दिलासा दे कर घर को जाते गए.
स्टाफ रूम में शेष रह गए कुंदन सर . वे इस कन्या विद्यालय में अकेले पुरुष शिक्षक थे. पुरुषों के लिए अलग से स्टाफ रूम न था सो वे इसी रूम में बैठते थे, सरिता मैडम के बगल में. शुरू में कुछ मैडमों ने उनके इस स्टाफ रूम में बैठने पर ऐतराज जताया था. किन्तु सरिता स्टाफ सेक्रेटरी थी. उसने ताकीद की कि जब तक सर को अलग से कमरा ‘अलोट’ नहीं होता तब तक सर स्टाफ रूम में ही बैठ सकते हैं. परेशानी हो तो उसकी टेबल के दूसरी तरफ अपनी कुर्सी लगा सकते हैं., उन्हें कोई आपत्ति नहीं. कुछ मैडमों ने इसे ‘दूसरी’ दृष्टि से लिया. कुंदन सर की नज़र में सरिता मैडम के प्रति तभी से अलग तरह की इज्ज़त स्थायी हो गयी थी. सरिता और कुंदन करीब करीब हम उम्र थे. किन्तु सरिता मैडम की ऊँची और खुली सोच के कारण कुंदन सर उनका बड़ा सम्मान करते थे. उन्हें लगता था विद्यालयीन शिक्षण व्यवस्था के बंद कमरे में सरिता जैसी शिक्षिकाएं उस दरीचे की तरह हैं जिनके होने से बाहर की ताज़ी और रचनात्मक हवाओं से परिचय बना रहता है.
दूसरी शिक्षिकाओं की तरह कुंदन सर को भी लगता था कि सरिता मैडम बड़ी लकी हैं. उन्हें ज़रूर अंगूठी वापस मिल जाएगी. वे उठे और लम्बी सांस लेते हुए दार्शनिक लहजे में बोले – मैडम खोना-पाना जीवन का नियम है . जो खो जाता है उसे ढूँढने का प्रयत्न करना इन्सान का धर्म है. आपने अपना धर्म निभाया अब बाकी ‘डेस्टिनी’ पर छोड़ दीजिये. आप दुखी न होइए. अपनी कार की चाभी टेबल से उठाकर जेब में रखते हुए और लंच के थैले को गोल-गोल घुमाते हुए वे विदा हुए.
सरिता अंगूठी की स्मृतियों में थी. यह अंगूठी प्रवेश ने उसे दी थी. घरवालों से छुपा कर . सगाई समारोह में तो प्रवेष ने अपनी माँ द्वारा खरीदी गयी अंगूठी ही पहनाई थी किन्तु अगले दिन जब दोनों लंच पर एक रेस्तरां में मिले तब प्रवेश ने बड़े प्रेम से यह अंगूठी मध्यमा अंगुली में पहनाई थी. यह एक तरह से पत्नी में प्रेमिका की तलाश भी थी और स्वीकारोक्ति भी . सरिता का ह्रदय द्रवित था किन्तु आँखें चंचल. उसका हाथ प्रवेश के मजबूत हाथों में समां गया था. उसे इत्मिनान हो गया था कि वह एक सही व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में अपनाने जा रही है.
सरिता मेधावी और मेहनती छात्रा थी . किन्तु महत्त्वाकांक्षी कतई नहीं थी . सपने देखने की आदत उसे नहीं थी. खेल – कूद से लेकर गणित और विज्ञान तक सब में उसकी सामान रूचि थी. अंग्रेजी भाषा और साहित्य से उसका कोई खास सरोकार तो नहीं था किन्तु वह जब अंग्रेजी बोलती थी तब उसके उच्चारण पर विशेष ध्यान देती थी और कोशिश करती थी कि मातृभाषा की टोन से वह अलग लगे. इसमें वह सफल भी होती थी. लोग उसकी इस प्रतिभा से जल्द ‘इम्प्रेस’ हो जाते थे. तारीफ किसे नहीं भाता. सरिता को अंग्रेजी विषय में रूचि आने लगी. किन्तु इससे पहले कि उसकी इस रूचि का संवर्धन हो पाता उसके बारहवीं पूरी हो गयी. अधिकतर छात्राओं की तरह सरिता ने भी प्राथमिक शिक्षक कोर्स (जेबीटी) की प्रवेश परीक्षा दी और चयनित भी हो गयी.
औसत भारतीय समाज स्त्री को शिक्षिका के रूप में ही पसंद भी करता है और प्राथमिकता भी देता है. पितृसत्तात्मक समाज का यह सुविधावादी ‘प्रोपगेंडा’ मध्यमवर्गीय समाज में आम है और सरिता की पीढी ने इसे सहर्ष स्वीकार भी किया है. इस पीढ़ी ने अपनी माँओं और दादियों को चूल्हे जलने और बुझाने में सूखी लकड़ियों की तरह खर्च होते देखा था. उन्हें बस घर से निकलना था . उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना था. आने वाली पीढी की उड़ानों को सुनिश्चित करना था.
जेबीटी का कोर्स पूरा होते ही सरिता की नियुक्ति नगर निगम के प्राथमिक विद्यालय में हो गयी. घर से लेकर पूरे गाँव में ख़ुशी का माहौल था. ‘’भाई छोरी की सरकारी नौकरी लाग गी रे “ लड्डुओं के कई दौर चले. सरिता ने अपने मोर्चे की बाज़ी मार ली थी. अगले मोर्चे की अगुवाई माता – पिता को करनी थी. शादी. नौकरी सुदा लड़की को एक दिन भी घर में रखना बाप की मूंछों की शान के खिलाफ था. पिता ने लड़का तो पहले से ही सोच रखा था अब नौकरी में लग जाने से रिश्ता ख़ुशी –ख़ुशी तय हो गया. लड़का जीवन बीमा कम्पनी में बड़ी पोस्ट पर है और सैलरी लाख रूपये से ज्यादा. दिल्ली की सीमा के भीतर और बाहर कई सारे किले पारिवारिक संपत्ति के रूप में मौजूद थे. और क्या चाहिए था!
“मैडम जी ये है आपकी अंगूठी?”
स्मृतियों में खोई सरिता एक सफाई कर्मी के इस सवाल से जागी. अंगूठी शब्द से उसके भीतर अब कोई उत्साह न था. नाउम्मीदी ने उसे इतनी देर इस तरह जकड़ लिया था कि साक्षात अपनी हीरे की वह नग वाली अंगूठी भी उसे उत्साहित न कर सकी. किन्तु जब उसने अंगूठी अपने हाथ में लेकर पहनी और उसे निहारा तो मानो इतनी देर से उखड़ी हुई साँसें सहज हो गयीं. मन एकदम शांत. फिर अचानक से खिलखिला उठी और अंगूठी लाने वाली रामदेई को झटके से गले लगा लिया. सुबह से साफ़ सफाई करती रामदेई के कपडे गंदे हो चुके थे – सरिता के इस बेलौस आलिंगन से रामदेई भी द्रवित हो गयी थी. उसका कंधा सहलाती हुई बोली “ अरे मैडम आपका कपड़ा गन्दा हो जाएगा.”
अगले दिन स्कूल में यही चर्चा का विषय था. क्या बच्चे क्या टीचर्स और क्या अन्य कर्मचारी. डोडा बर्फी का स्वाद लेते हुए लैब असिस्टेंट इन्दर कुमार बोले “वैसे कुछ भी कहो बड़ी लकी हैं मैडम जी ”
2
गाड़ी की स्पीड करीब साठ थी. स्टीयरिंग पर रखे कुंदन के दोनों हाथ काँप रहे थे. रह- रहकर उसके मस्तिष्क में सरिता का चेहरा घूम रहा था. अभी-अभी तो उसे लड़का हुआ है. एक हफ्ता भी तो नहीं हुआ. सरिता के खिले हुए चेहरे का वैधव्य सोचकर कुंदन की आंखें डबडबा गयीं. स्कूल को देर हो रही थी और दाहिना पाँव शिथिल पड़ चुका था. कुंदन की कार साइकिल की लेन में चल रही थी. अचानक मलिक मैडम का फोन आया “ गाड़ी गेट पै ही राखिए, हाम दस मिन्ट में वहीँ पहुँच रहे हैं. तेरे साथ जांगे. सारे सरिता के यहाँ जाएँगे. ले चालेगा ना? “ ‘जी जी’… कई बार ‘जी’ बोल गया कुंदन. गेट पर कोई रिक्शे से, कोई ऑटो से, कोई अपनी स्कूटी से, कोई कार से और कुछ तो पैदल ही निकल पड़े थे सरिता के घर की ओर. यह औपचारिकता मात्र न थी . मानो आधी आबादी अपने अधूरी सामूहिकता में ऐक्य सहभाव का परिचय दे रही थीं. बेतहाशा भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा था. “हाय यह क्या हो गया. कैसे जिएगी वा क्केली” मलिक मैडम फफक कर रो पड़ीं. सबकी आँखें डबडबा गयी थीं.
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सरिता बाथरूम के शीशे में ख़ुद के होने को ढूंढ रही थी। आंखें फूल कर बाहर को आ रही थीं। चारों ओर बन चुके काले धब्बे मानों आंखों को बाहर आने से रोकने का जरिया बन गयी थी। लगातार रोने से अब रोने और न रोने का फ़र्क़ मिट गया था। आँसू निकलने और सूखने की पूरी प्रक्रिया बेहद सहज हो गयी थी। दोनों में फ़र्क़ मुश्किल था। प्रवेश का न होना अब कोई भौतिक बात न रह गयी थी , आत्मा में धँसी हुई सच्चाई बन गयी थी। चिता की अग्नि के साथ हृदय का वह हिस्सा जिसमें कोमलता, चंचलता, निश्छलता और बेपरवाही का वास था, अब जल चुका था। बची रह गयी थी एक विराट ज़िम्मेदारी। एक आठ वर्ष की बेटी और दूधमुंहे बच्चे का भविष्य। एक नौकरी । कुछ टूटे-फूटे रिश्ते और हाड़-माँस का एक करीब-करीब अधेड़ शरीर। वह हिम्मत नहीं हार सकती थी। उसे जीना था। उसे ज़िम्मेदारी निभानी थी। आत्मा में धँसी हुई सच्चाई के साथ।
मगर औसत समाज के लिए मृत्यू एक घटना है। कर्मकांड है। सामाजिक उत्सव भी। लगभग हर रोज़ ही कोई न कोई आ जाती और सरिता के कमरे के बाहर आकर अपने हिस्से की रुलाई सुना जाती। सरिता के लिए उस वक़्त उनके साथ रोना अनिवार्य शिष्टाचार का अंग था। रोना तब दुख की अभिव्यक्ति नहीं कर्मकांड बन जाता था। मगर रोने के बाद जब वह कमरे में जाती तब वह हिचकियों में समा जाती। घण्टों तकिए में मुंह गड़ाए लेटी रहती। बेहोशी की हालत में जब माथा फटने को होता तब वह खाली पेट ही ओना-पाना दवाई खा लेती। शरीर का होना और न होना तब एक सा होता। मायके से किसी का फोन आता तो कलेजा मुँह को आ जाता। छोटे भाई का फोन था आस्ट्रेलिया से ” वहाँ रहेगी तो पागल हो जाएगी। जीण ना देंगे तन्ने उते, याढ़े आ जा कुछ दिना खत्तिर। ” कुछ हफ्ते टालने के बाद सरिता यह समझ चुकी थी कि बच्चों के लिए जीना ज़रूरी है। और जीने के लिए कुछ समय के लिए इस वातावरण से बाहर निकलना ज़रूरी है।
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“ऑस्ट्रेलिया गई है वा, ईब ना आवै।” शौकीन मैडम अपना आँकलन प्रस्तुत कर रही थी। वहीं रहेगी। वहीं दुबारा शादी करके बस जाएगी। इन बातों में वह तेज़ है।
” आए …..और बच्चे?” पिछली टेबल पर घी में तर रोटी को टिशू पेपर से पोछती सुबाला मैडम ने पूछा। अरे, वहाँ एक्सेप्ट कर लेते हैं सब। दूसरी तीसरी शादी होती रहती है। नया पति पिछले पति से हुए बच्चों को अपना लेता है। वो क्या कहते हैं ‘स्टेप फ़ादर ‘ बन जाता है। स्टेप फादर कहते हुए वह मैडम अपना पोपला सा मुँह उठाकर ठठा कर हँसी।
कुंदन एक कोने में सरिता की फेसबुक वॉल पर आस्ट्रेलिया की फोटोज़ ढूंढ रहा था। उसमें अंतिम पोस्ट दो महीने पहले की थी। लाल रंग की धारीदार जैकेट में वह औसत शक्लोसूरत वाली मैडम आकर्षक लग रही थी। उस आकर्षण में सहानुभूति के मेल ने अलग सा भाव निर्मित कर दिया था। मैडमों की बातों के पीछे के व्यंग्य को वह समझ रहा था। तिलमिलाहट अब पक्षधरता में बदल रही थी। कुंदन अपने भीतर किसी भी सूरत में बस सरिता को ख़ुश देखने की लालसा को विकसित होते देख रहा था। क्या यह प्रेम था ?
बाद में किसी रोज़ ख़बर आई कि सरिता ने वहाँ शादी कर ली है। फिर किसी ने कहा कि अभी लड़का ‘सेलेक्ट’ किया है। बस अब तो मज़े हैं उसके। पीछे से किसी मैडम की जानी पहचानी सी आवाज़ आई- ” मैं न कहती थी , बड़ी लकी है वा मैडम”
डॉ गुंजन कुमार झा
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