सह्याद्रि : ज़मीन पर बसा एक ख़्वाब
डॉ गुंजन कुमार झा
सहयाद्रि यानी ज़मीन पर पसरा एक ख्वाब। एक ख्वाब जो अपने होने में हकीकत को यक़ीन करने लायक अफ़साना बना दे। पहाड़, पत्थर, मैदान, नदी, पेड़, सूरज, चांद, तारे …यानी कि प्रकृति की गोद में विकसित होती ज़िन्दगी।
पुणे से करीब 70 किलोमीटर दूर स्थित सहयाद्रि शृंखला के पर्वतों पर स्थित यह शिक्षालय महज़ एक आवासीय परिसर नहीं है बल्कि किसी पौराणिक कथा का आदर्श अध्याय प्रतीत होता है याकि किसी दरवेश की कल्पना का साक्षात प्रतिरूप। यहां पाठ्यक्रम केवल एक पाठ्यक्रम है पूरी शिक्षाचर्या नहीं। यहाँ पर शिक्षाचर्या का जीवनचर्या का पर्याय बनकर, शिक्षार्थी को एक मुकम्मल जीवन का अभ्यस्त बनाने का प्रबंधन स्पष्ट देखा और समझा जा सकता है।
शिक्षा दृष्टि
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सहयाद्रि शिक्षा को जीवनचर्या और जीवन को प्रकृतिचर्या के रूप में स्थापित करता है. यहां पर पुस्तक, खेत, सितार , कलम , पेड़ और सूरज में कोई भेद नहीं है. ये सब शिक्षा के अंग हैं. जितना महत्त्वपूर्ण पुस्तकों को पढ़ना है उतना ही महत्त्वपूर्ण उन्हें न पढ़ना भी है। फूलों का खिलना, अनाज का उगाना, सूरज का उदित और अस्त होना, सभी कुछ। जो है वह भी और जो नहीं है वह भी। यानी अमहत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं। जब अमहत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं, तो जाहिर है श्रेष्ठता और नीचता के तमाम प्रचलित पैमाने यहां पर अप्रासंगिक हो जाते हैं। इसलिए कोई पुरस्कार नहीं। कोई प्रतियोगिता नहीं।
दिनचर्या व पाठ्यक्रम
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यहां पर चौथी कक्षा से बारहवीं कक्षा तक की शिक्षण व्यवस्था है. दिनचर्या दो स्तरों में बांटी जाती है. एक कक्षा चार से आठ एवं दो कक्षा नौ से बारह .
कक्षा चार से आठ : सह्याद्रि की मूल विचारधारा के अनुरूप इन कक्षाओं में सहजता, वैयक्तिक स्वतंत्रता , रुचि और प्रकृति केंद्रित पाठ्यचर्या होती है। इसमें भाषा, समाज ,गणित और विज्ञान के अलावा संगीत और कला अनिवार्य रूप में शामिल है।
कक्षा नौ से बारह : बोर्ड के पाठक्रम को केंद्र में रखकर तैयारी कराई जाती है किंतु प्रकृति, क्लब्स, हॉबी कक्षाएं आदि भी यथा रुचि और उपलब्धता आयोजित की जाती हैं। सहयाद्रि आठवीं तक की कक्षाओं में ज्यादा रचनात्मक तरीके से अपनी शैली को प्रतिफलित कर पाता है क्योंकि वर्तमान शासकीय बोर्ड्स में दसवीं और बारहवें केंद्र में है जिससे नौंवी के बाद राजकीय बोर्ड के पाठ्यक्रम को आधार बनाने के कारण मुख्य धारा के पाठकृम के प्रति आग्रह अधिक रहता है।
प्रार्थना सभा
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प्रार्थना सभा के संदर्भ में जो एक बाद गौर करने लायक थी वह थी सभा का बैठकी या महफिल वाला स्वरूप । आप यह अखिल भारतीय स्तर पर पाएंगे कि प्रार्थना सभा मूलतः खेल शिक्षको के जिम्मे रहता है। इससे वह एक शारीरिक गतिविधि के रूप में ज्यादा प्रचलन में है. जबकि प्रार्थना मूलतः सांगीतिक मसला है जिसका संबंध मन से है. चूंकि विशेषकर संगीत के शिक्षक पर्याप्त मात्र में उपलब्ध नहीं होते अतः इस जिम्मेदारी का वहन वहां के खेल शिक्षक द्वारा कराए जाने की परंपरा विकसित हो चुकी है. सहायद्री इस परंपरा को तोड़ने और नई परंपरा को स्थापित करने का काम करती है.
प्रार्थना सभा सप्ताह में तीन दिन होती है . इस सभा में महफिल की तरह या घरेलू बैठकी की तरह बीच में वाद्यकार व गायक शिक्षक बैठते हैं और चारों और विद्यार्थीगण। सभी विद्यार्थियों के हाथ में प्रार्थनाओं के संग्रह की पुस्तक होती है. संगीत शिक्षक के निर्देश पर इच्छित पन्ने पलते जाते हैं और गाया जाता है. पूरा वातावरण गीत और संगीत की स्वर लहरियों से गूंज उठता है। सभी प्रार्थनाएं मूलतः संत काव्यधारा की रचनाएं होती हैं। इनमें निराकार ब्रह्म की साधना के गीत हैं। धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में संत काव्यधारा की कविताएं ज्यादा सुविधाजनक और असरदार समझी जाती रही हैं.
खेल और कला
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खेल का मुख्य उद्देश्य शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही सेहत व सबलता के साथ सामूहिकता की भावना का विकास भी है. सहयाद्रि भी यही मानता है किंतु जैसा की पहले कहा गया की सहयाद्रि प्रतियोगिता में विश्वास नहीं करता अतः हार और जीत को लेकर जो उत्साह , पुरस्कार या होतोत्साह है उसे यहां उपेक्षित किया जाता हुआ. प्रधानाचार्य के अनुसार – समय समय पर हम ‘ दोस्ताना मैच ‘ का आयोजन कराते रहते हैं पर सामान्यतः हम मैच से बचते हैं ताकि जीत और हार की स्थिति से बचा जा सके .
चित्रकला (ड्राइंग), चित्रकारी ( पेंटिंग) , लकड़ी व पत्थरों पर कारीगरी ( वुड कार्विंग एवं क्राफ्टिंग), शिल्प कला ( स्कल्पचर ) आदि की कक्षाएं तक निर्धारित हैं. तदोपरांत विकल्प एवं रूचि के अनुरूप . वुड कार्विंग जैसी गतिविधियों में दस और बारह साल के बच्चों की रूचि और भागीदारी सुखद आश्चर्य का हेतु थी . व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं के समानांतर अध्ययन के स्तर पर भी स्वतंत्रता की पक्षधर सह्याद्रि में यह दृश्य आम है कि किसी विषय विशेष में शिक्षार्थी का तत्काल मन न लगे तो वह कला कक्ष या गतिविधि कक्ष की और आ जाए और कुछ रचनात्मक गतिविधि में शामिल हो जाए. यह एक तरह से मस्तिष्क को बिना किसी दबाव के विकसित होने में सहायक होता है. विद्यार्थी में कुंठा किसी भी स्तर पर नहीं आने पाती.
संगीत और नृत्य : संगीत और रंगमंच की कक्षा को यहां पर संस्कृति कक्षा के रूप में जाना जाता है. यो भी पुणे के आबो हवा में संगीत और नाटक समय हुआ है. मराठी रंगमंच और मराठी संगीत की एक सुदीर्घ परम्परा है. रंगमंच के लिए यहाँ एक सोसायटी या क्लब है जिसके प्रभारी शिक्षक है किंतु सारा कार्य विद्यार्थी ही करते हैं.
संगीत की कक्षाएं आठवीं तक सामान्य रूप में परिचालित होती हैं. तदोपरांत वह ‘हॉबी क्लास’ के रूप में बारहवीं तक उपलब्ध है. शिक्षार्थी अपनी रुचि के अनुसार दिए गए विकल्पों में चयन कर सकते है. इसके तहत ओडिसी , भारतनाट्यम नृत्य , हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन, सितार और तबला की कक्षाएं उपलब्ध कराए जाते हैं. इसके अलावा कार्यशालाओं के आयोजनों के माध्यम से अन्य शैलियों और वाद्यों का प्रदर्शन कराया जाता है.
भाषा , साहित्य और समाज
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अंग्रेजी यहां के शिक्षण का मूल माध्यम है. तथापि मराठी और हिन्दी का प्रयोग संपर्क भाषा में होता दिखता है. जब शिक्षा कक्षा के बाहर परिवेश को आधार बनाती है तब भाषा के केंद्रीयता बहुत हद तक खत्म होती है. अमूमन माध्यमिक कक्षाओं तक साहित्य का अध्ययन करते हुए भी भाषा की केन्द्रीयता मूलतः साहित्यिक मूल्यों को अपदस्थ करने का काम करती रहती है. सह्याद्रि में साहित्य के अपने परिसर में भाषा एक अंग बनकर रहती है. शिक्षार्थी को यह पता होता है कि वह कविता पढ़ रहा है. निबद्ध पढ़ रहा है. जीवनी पढ़ रहा है या कहानी . भाषा की पढ़ाई में व्याकरण अध्ययन भी भी साथ साथ चलता है. साथ ही पठन पाठन भी और श्रुति अवलोकन भी.
विद्यार्थियों के विचार, उनकी सोच और उस सोच की सही भाषा में अभिव्यक्ति , भाषा की कक्षाओं के केंद्र में रहता है. समाज और संकृति साहित्य के माध्यम से प्रेषित होता ही है. शिक्षक कक्षा में नेता नहीं प्रतिभागी होता है. वह भी विद्यार्थियों संग संवाद में भाग लेता है और अपना पक्ष या अपनी बात रखता है. विषयांतर होने पर वह समन्वयक की भूमिका में आ जाता है.
गणित , विज्ञान और तकनीक
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आंकड़ों का संग्रहण, विशेलेषण , परियोजना शैली आदि प्रविधियों में शिक्षर्थियों की भागीदारी परिवेश के साथ साथ होती है. शास्वत और सार्वजानिक सवालों के समझने के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक निजता को माध्यम बनाया जाता है. इससे विषय के प्रति एक बेहतर जुड़ाव ( कनेक्ट) विकसित हो जाता है.
वातावरण से जोड़ कर विज्ञान को देखने और समझने की सुविधा विद्यार्थियों के भीतर विज्ञान के प्रति सामाजिक उपादेयता की दृष्टि को विकसित होने में सहायक होती है.मसलन मंगल गृह क्या होता है. उसकी क्या क्या विशेषताएँ हैं के साथ ही इस बात पर भी चर्चा होती है कि वह गृह सह्याद्रि परिसर से कैसा दिखता है. विज्ञानं के एक विद्यार्थी विज्ञानं के किसी टर्म या विषय पर उसके आकड़ों में जडित जानकारी से इतर यदि चाहे तो उसके पेंटिंग बना सकता है. कक्षा से बाहर जा सकता है. उसी दरमियाँ किसी पेड़ के नीचे बैठ कर वह कुछ सोच सकता है. एक तरह से इस तरह की छूट स्वयं के मूड को , स्वयं की सोच को और रूचि को जानने का अवसर भी प्रदान करती है.
चुप्पी / मौन
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आले रज़ा के पंक्ति है –
“जो चाहते हो सो कहते हो
चुप रहने की लज़्ज़त क्या जानो”
सहयाद्रि चुप रहने की लज़्जत सिखाने का काम करता है. जो आधुनिकता अनिवार्य अभिव्यक्ति की कोख से उपजती है उस अभिव्यक्ति की सबसे मजबूत कड़ी संवाद की अतिशयता के सामने सहताद्री चुप्पी/मौन को खड़ा करती है. एक पूरा युग यंत्र , सवाल , संवाद और उत्तेजना की खुराक पर खड़ा है. सहताद्री इन सभी तत्वों से मुठभेड़ करती नजर आती है. हम जानते हैं कि यह मुठभेड़ बेहद जटिल है. मगर यह जब तक और जितने स्तर तक हो पा रही है वह किसी आश्चर्य से कम नहीं है. इस आश्चर्य को समझने के लिए आपको वहां पहुंच कर कुछ समय उस वातावरण को जीना होगा.
भारतीय जीवन दर्शन आस्थावादी है. इसलिए तर्क आधारित आधुनिकता बहुत हद तक पश्चिम की देन मानी जाती है. सहयाद्रि तर्क का विरोध नहीं करती। तर्क को बनी रहने देती है और एक स्तर के बाद उसके सामने मौन को खड़ा कर देती है। यह तय है कि अभिव्यक्ति अपनी चरम अवस्था में मौन का सहारा लेगी . अज्ञेय लिखते हैं-
कहा सागर ने : चुप रहो
मैं अपनी अबाधता जैसे सहता हूँ , अपनी मर्यादा तुम सहो
जिसे तुम बाँध नहीं सकते
उस में अखिन्न मत बहो
मौन भी अभिव्यंजना है : जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो
अस्ताचल
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अस्चातल यानी सूरज को अस्त होते हुए देखना। यह एक सामान्य सी घटना लग सकती है. किंतु याद कीजिए आपने इस सामान्य सी घटना को अंतिम बार कब अंजाम दिया था. रघुवीर सहाय की एक कविता है :
“आज फिर शुरू हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी से सरल से कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी से बच्ची आई, किलक मेरे कंधे चढ़ी
आज मैंने आदि से अंत तक एक पूरा गान किया
आज फिर शुरू हुआ जीवन”
इस कविता में जीवन का शुरू होना कुछ घटनाओं के होने से नाभिनाल जुड़ा हुआ है. यानी कि कविता, सूरज , जल , बच्ची और संगीत। सोचिए कविता और संगीत के लिए हमारे जीवन में कितना समय है. याद कीजिए बग़ैर घड़ी देखे आब कब शीतल जल में पड़े रहे थे (या कि स्नान घर गए थे), सोचिए कि सूरज को डूबते देर तक कब निहारे थे. सोचिए कि घर के बाहर ( के) बच्चों के साथ आखिरी बार कब खेले थे. क्या यांत्रिकता के जिस भयावह दौर में हम जी रहे हैं. वहां हम किसी मशीन की तरह तो नहीं हो गए? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि अपनी नाभी से हम इतने दूर हो गए कि अपना अस्तित्व ही भूल बैठे ? सहयाद्रि उस अस्तित्व से , उस मूल से हमें जोड़ने का एक प्रयास करती दिखाई पड़ती है. एक तरह से अस्ताचल किसी छूट गए रिश्ते के रेशों को जोड़ने का जतन मालूम पड़ती है.
परिसर के आखिरी हिस्से की ओर एक दरवाज़ा है. वह शाम साढ़े पांच बजे के आसपास सुरक्षाकर्मी द्वारा खोल दिया जाता है. पहाड़ के कई हिस्से और उनपर कई छोटे छोटे पत्थर यत्र तत्र. परिसर के भीतर से एकदम शांत अकेले, दुकेले और अनेक समूहों में भी शिक्षार्थी वहां पहुंचते हैं. चुपचाप कोई किसी पत्थर पर तो कोई नीचे घास पर. कोई पहाड़ पर चलने से स्व निर्मित पगडंडी पर ही तो कोई यूं ही चुपचाप खड़े. सामने नीचे की और कोई गांव, उस गांव के साथ एक नदी और उस तरफ फिर से पर्वत श्रृंखला. सूरज सफेद से लाल होता हुआ एक गोल आकार लेता दिखता है। कुछ देर मानो खुद निहार रहे लोगों को निहारता है और फिर दृश्यमान गति से पहाड़ों के ओट में चला जाता है।
यह पूरी प्रक्रिया बिल्कुल शांत घटित भी होती है और उतनी ही शांति से देखी भी जाती है. यह देखना एक तरह से प्रकृति की शान में एक मनुष्य की हाजिरी है. हम प्रकृति से बने और प्रकृति में मिल जाएंगे. अपनी सांसों के चलने की पूरी समयावधि में इस बात को बराबर स्मरण में रखेंगे . अस्ताचल इस स्मरण की ही साधना है. दूसरे अर्थों में अस्ताचल प्रकृति के प्रति प्रेम और साहाचर्य को स्वीकारने का एक माध्यम भी है.
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