आधुनिक भावबोध
- डॉ गुंजन कुमार झा
आधुनिकता वस्तुतः परंपरा एवं पुराने रस्मो-रिवाज, पुरानी रूढियों के विरोध का नाम है। आधुनिकता और समकालीनता को लेकर कई सामान्यतः भ्रम की स्थिति बनती है। किंतु दोनों में स्पष्ट अंतर है। समकालीनता का संबंध वर्त्तमान से है, यानी यह काल से संबंधित है वहीं आधुनिकता का संबंध प्रवृत्तियों, तथ्यों , नए मूल्यों एवं नई संवेदनाओं से है।
आधुनिकता के जिस रूप की हम चर्चा कर रहे हैं उसका प्रारंभ पश्चिम से हुआ। इसलिए आधुनिकता को पश्चिमीकरण एवं औद्योगिकीकरण से भी जोड़कर देखा जाता है। मूलतः आधुनिकता पुरातन एवं परंपरागत विचारों , मूल्यों , धार्मिक विश्वासों और रूढिगत रीति-रिवाजोें के विरूद्ध नवीन , वैज्ञानिक आविष्कारों, विचारों एवं नए मूल्यों की स्थिति का नाम है।
मनुष्य की चेतना अनेक स्तरों पर प्रभावित होती है। समाज में आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक उथल-पुथल से उसकी चेतना पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इसी से आधुनिकता का जन्म होता है। इस स्तर पर आधुनिकता मध्यकालीनता की इतर स्थिति है। अपनी विशिष्टताओं में आधुनिकता मध्यकालीनता का विलोम प्रतीत होने लगता है।
मध्यकाल ईश्वर केन्द्रित जीवन-दर्शन से संचालित है। आधुनिक काल ईश्वर की केन्द्रीयता का विकल्प खोजता है और ईश्वर के स्थान पर मनुष्य को केन्द्र में लाता है। मध्यकाल मनुष्य की सार्थकता को ईश्वर के सन्दर्भ में परिभाषित करता है । आधुनिक काल मनुष्य को उसके सामाजिक और राजनैतिक संदर्भों में व्याख्यायित करता है। कहा जा सकता है कि आधुनिकता नए भावबोध को जन्म देती है जिसके तहत मनुष्य आस्था के स्थान पर तर्क को प्रश्रय देता है।
आधुनिक भाव-बोध को उद्बुद्ध करने में पश्चिम के तीन विचारकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है – डार्विन, मार्क्स और फ्रायड। इन तीनों चिंतकों ने ईश्वर , धर्म और दर्शन की पुरानी सारी स्थापनाओं को ध्वस्त कर दिया। डारविन ने ‘‘द ऑरिजिन ऑफ स्पाइसिज’ में धरती और मनुष्य के अस्तित्व को विकास की प्रक्रिया का परिणाम माना जिसमें धर्म और ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है।
डारविन की दो स्थापनाएं इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं- 1- ‘आनुवंशिकता का सिद्धांत’ 2- ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’। पहले सिद्धांत के तहत वे प्रतिपादित करते हैं कि बच्चे का रंग , आवाज, प्रकृति , बिमारी सभी कुछ बहुत हद तक वंश-परंपरा से प्रभावित है – यानी यह ईश्वर से संचालित नहीं अपितु एक जैविक अनुशासन का प्रतिफलन है। दूसरे सिद्धांत के अन्तर्गत उनका मत है कि जो सर्वाधिक समर्थ है , परिवर्तन की प्रक्रिया में वही बचा रह सकता है। इसलिए पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता का कोई मतलब नहीं है। जीवित रहने के लिए जो शक्तिशाली है वह कमजोर को मार डालेगा। इस तरह मध्यकाल ने जिस नैतिकता और मूल्यों का ढाँचा तैयार किया था, डारविन और उनके अनुयायियों ने अपने तर्कोें से उन्हें ढहा दिया।
मार्क्स मनुष्य को एक राजनीतिक और आर्थिक प्राणी के रूप में परिभाषित करते हैं। इसमें वे किसी और तत्व की भूमिका को अस्वीकार करते हुए प्रतिपादित करते हैं कि इतिहास में दो ही तत्व हमेशा मौजूद रहे हैं – एक शोषक और दूसरा शोषित । मानव सभ्यता का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। इसलिए जो विश्वास , आस्था , जीवन-पद्धतियाँ हैं – वे सभी वर्गीय होती है- कुछ भी सार्वभौमिक नहीं होता। मार्क्स मानते हैं कि मनुष्य की मुक्ति वस्तुतः एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था में है जिसमें संपत्ति पर कोई व्यक्तिगत अधिकार नहीं होगा। आर्थिक समानता को ही मार्क्स मनुष्य के मोक्ष के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
सिग्मन फ्रायड मनुष्य को उसकी आंतरिक संरचना में समझने और परिभाषित करने का कार्य करते हैं। उन्हेांने मानव – मन की तीन परतें मानी हैं – चेतन, उपचेतन और अवचेतन। इनमें अवचेतन मन कुंठाओं से भरा रहता है जो मनुष्य जीवन को, उसकी सोच को और उसकी कार्य-प्रणाली को संचालित करता है। यानी मनुष्य धर्म, अर्थ या राजनीति से नहीं अवचेतन की कुंठाओं से संचालित होता है। अवचेतन की सभी कुंठाओं में सर्वाधिक प्रमुख है- ‘सेक्स’। ‘सेक्स’ मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है। किंतु इस पर प्रत्येक समाज में प्रतिबंध लगाए गए हैं। फलतः इसने कुंठा का रूप ले लिया। इसी संदर्भ में फ्रायड का मत है कि साहित्य या कला में रचना करना कामजनितअतृप्ति की तृप्ति का माध्यम है। इस तरह कामचेतना को लेकर मध्यकालीन निवृत्ति और नैतिकता की सोच फ्रायड की इस स्थापना से खंडित हो जाती है।
मध्यकालीन आस्था को सर्वाधिक जोरदार धक्का ‘नित्से’ की इस स्थापना से लगा कि – ‘‘ ईश्वर मर गया है।’’ पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म व अच्छे-बुरे की धर्म और ईश्वर आधारित तमाम कसौटियों की प्रमाणिकता लगभग समाप्त हो गयी। कहा जा सकता है कि आधुनिक भाव-बोध एक ऐसी तार्किक जीवन-दृष्टि का नाम है जो स्थापित संस्कृति , मूल्य और संवेदना को अस्वीकार करती है और नवीन दृष्टि का संचार करती है।
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