जयपुर वाली लड़की से प्यार
डॉ गुंजन कुमार झा
◆1◆
एक फैंटेसी थी कि शादी करूंगा तो एक कथक नृत्यांगना से। किसी फिल्म-विल्म में देखा होगा। साधारण नैन-नक्श वाला हीरो गा रहा है और हिरनी जैसी बलखाती सुंदर सी हीरोइन नाच रही है। जब शास्त्रीय संगीत से परिचय हुआ तो पता चला कि वो सपनों की राजकुमारी अवश्य कथक नृत्य कर रही होगी। पता नहीं कैसे उसकी जो छवि ज़हन में बनी थी उसमें वो घुंघराले बालों वाली थी। यानी दो पहचान तो मिल गयी। एक कि वो कथक नृत्यांगना होगी और दो कि उसके घुंघराले बाल होंगे। यह सब पाँचवी-छठी क्लास में रहा होऊंगा,तब की बात है।
दिल बड़ा आवारा होता है। इंतज़ार कहाँ करता है। आठवीं क्लास में था जब मामा जी के उपनयन संस्कार में नानी गाँव गया था। संस्कार गीत हेतु दुआरे पर बैठी मैथिल महिलाओं के बीच एक बड़ी प्यारी सी हमउम्र लड़की दिखी। एकदम गोरी।
हाँ, गोरेपन को लेकर भी बड़ा ग़ज़ब का आकर्षण था साहब। खुद तो काले थे। मगर मित्र कोई गोरी लड़की हो ऐसी भयंकर लालसा थी।
तो, वो लड़की निहायत गोरी। अपने करीब हम-उम्र मामा से पता करने को कहा तो पता चला कि लड़की जयपुर में रहती है। कुछ दिनों के लिए गाँव आई है।
नानी गाँव ने मेरे भीतर के गवैये को बड़ा मान दिया। गाँव में स्कूल ले जाने वाली वो एल्युमिनियम की पेटी तो याद होगी! उस पेटी को बजाकर मैं दालान पर मैथिली, हिन्दी और भोजपुरी के गीत गाया करता था। ‘दोस्ती’ फ़िल्म के गीत (रफी साहब)
‘राही मनुआ दुख की चिंता क्यों सताती है’
या
‘चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे’
से लेकर भोजपुरी गीत
”हो बाबूजी , शादी न कइलू बर्बादी कइलू”।
एकाधिक घंटे की महफ़िल जमती। वाह-वाहियों का दौर चलता। कोई भविष्य का रफी कहता तो कोई मुकेश। ख़ुश होकर बड़े बुज़ुर्ग आशीर्वादी (पैसे) भी देते। मैं अपने मित्रों में सबसे अमीर हो गया था। तारीफों से तो मन ‘सेलइब्रेटी’ टाइप हो जाता था। मेरी इच्छा थी कि कभी वो लड़की भी मुझे सुने। ताकि कुछ अच्छा ‘इम्प्रेशन’ पड़े।
यह इच्छा भी अगले ही दिन पूरी हुई। अपने पिता के बगल में- और मेरे एक दम सामने बैठी थी। फिल्मी गीत की फ़रमाइश आ ही चुकी थी। मैं गाने लगा-
“तुम अगर साथ देने का वादा करो
मैं यूँही मस्त नग़में लुटाता रहूँ”
मैं दावे से कह सकता हूँ कि उसने कुछ न समझा होगा। पर मैं सब समझता था। गाने का अर्थ भी और समझाने का तरीका भी। आज सोचता हूँ तो लगता है इतनी बुद्धि आ गयी थी आठवीं कक्षा में ही, तो मेरी शादी भी करवा ही देनी चाहिए थी!
बहरहाल,दिल्ली वापस आ गया। बात आई गयी हो गयी।
◆2◆
दिल्ली की सतरंगी दुनियाँ में कई ख़्वाब आकार लेने लगे थे। किंतु जयपुर वाली लड़की ज़हन में लगातार एक लौ की तरह रौशन रही। मैंने किसी तरह उसका पता हासिल किया। उसके पड़ोसी का टेलीफोन नम्बर भी। नम्बर और पता हासिल करने की क्रिया भी प्रेम की ही क्रिया थी। ऊर्जा और ख़ुशी से लबरेज़।
वक़्त गुज़रता गया। उस बीच बराबर ज़हन में यह बात आती कि यदि मैंने कोई बड़ी सफलता अर्जित की तो ज़रूर वह सूचना नानी गाँव से होते हुए जयपुर तक जाएगी।
कभी-कभी सोचता हूँ कि उसका ‘पता’ होते हुए कभी प्रेम पत्र लिखने का ख़्याल मुझे क्यों न आया? फोन नम्बर होते हुए भी कभी फोन करने की क्यों नहीं सूझी? दरअसल उस समय मुझे लगता था कि मैं बहुत बड़े खानदान का हूँ और ख़ुद भी प्रतिष्ठित शख़्सियत हूँ या बनने वाला हूँ। ऐसे में मैं कोई भी ऐसा काम कैसे कर सकता हूँ जिसमें मेरी इज़्ज़त कम होने का ज़रा भी ख़तरा हो ! अपनी छवि को लेकर मैं माननीय मोदी जी से भी ज़्यादा सचेत था। हा हा हा । बहरहाल, तो इस कारण से मेरा सारा ‘फोकस’ था सीधे -शादी पर। मर्यादित काम, मर्यादित तरीके से!
इस बीच बारहवीं कक्षा में हिन्दी में दिल्ली में सर्वाधिक अंक पाने के कारण मेरी फोटो दैनिक जागरण में छपी। मुझे लगता था कि मेरे गाँव के लोग मुझे सिर पर बिठा लेंगे। नानी गाँव तो मेरी वाहवाही कर अनघोल कर देगा। पर ऐसा कुछ भी न हुआ। किसी का फोन तक न आया। यों ख़बर गाँव तक तो चली गयी – किंतु नानी गाँव होते हुए जयपुर तक न पहुँची।
मैंने हिन्दू कॉलेज में हिन्दी ऑनर्स में दाखिला लिया। बारहवीं के परिणाम और हिन्दू कॉलेज में दाखिले के बाद अब गाँव में मेरी छवि ‘गवैया’ से हटकर एक ‘ब्रिलियंट’ विद्यार्थी की हो चुकी थी। लड़का बारहवीं में दिल्ली में स्थान लाया है, हिन्दू कॉलेज में पढ़ता है। आईएएस- वाईएस तो बन ही जाएगा। कुछ नहीं तो प्रोफेसर या किसी सरकारी अधिकारी की नौकरी तो ले ही लेगा। सरकारी अधिकारी , मने मोक्ष।
इसी बीच मेरी मौसी की शादी तय करने हेतु लड़का देखने, मेरे मंझले और छोटे नाना आचानक दिल्ली पधारे। मेरी धड़कनें तब धौंकनी की तरह चलने लगीं जब मुझे पता चला कि नाना लोग जयपुर जाने वाले हैं। नाना जी ने कहा कि लड़के के पिता का जयपुर में अपना घर-द्वार है। किसी सरकारी पद से रिटायर होकर वे वहीं बस गए हैं। लड़का यों तो दिल्ली में पढ़ता है पर आजकल वहीं है। अतः वे जयपुर जाकर उनके घर-द्वार, लड़के की योग्यता आदि का इत्मिनान कर लेना चाहते हैं। कुछ देर बाद नाना जी ने लगभग आग्रह के लहजे में मुझसे कहा-
” लड़का सी.ए. है ऐसा हमें फोन पर बताया गया है। बारह की ‘डिमांड’ है। यदि वह सी.ए. है तो हम इतना ‘गिन’ भी देंगे मगर हमें किसी ने बताया कि वह अभी तैयारी ही कर रहा है। अगर तुम भी एक दिन का समय निकालकर चलते और लड़के से बात करते तो बहुत कुछ समझने में हमारी मदद हो जाती। हमें तो वह कुछ भी कह देगा। “
हिन्दू कॉलेज काम कर रहा था। वरना ‘सी.ए’ वाले को परखने में हिन्दी वाले की क्या बिसात ! मुझे लग रहा था कि मैं बादलों में हूँ। किस्मत आचानक मेरी चेरी बनकर मुझपर मेरे अनुकूल इत्तेफ़ाकों की बारिश कर रही है। मैंने एहसान जताते हुए कहा –
” हॉं नानाजी। आख़िर मौसी की ज़िंदगी का सवाल है..चलते हैं। ले लूंगा कॉलेज से छुट्टी।”
हमें तड़के सुबह निकलना था। रात में नाना जी मेरी माँ के किसी सवाल के जवाब में कह रहे थे
“अगर चिनवा का घर बड़ा हुआ तो रात में वहीं ठहर जाएंगे, नहीं तो चाय-पानी के बाद कोई होटल ले लेंगे”। मेरा मन बल्लियों उछल रहा था। चिनवा मने चीनू मिश्रा। जयपुर वाली के पिताजी।
साँझ घिरते हम चीनू मिश्राजी (चिनवा जी) के घर पर थे। घर काफी बड़ा था। गाँव के घरों की तरह ऐल-फैल। मुख्य द्वार के पास ही एक अमरूद का पेड़ था। पेड़ के नीचे गद्देदार कुर्सियाँ और स्टूल। एक खटिया भी। नाना लोग कुर्सी पर बैठे। मेरे हिस्से वह खटिया आई जो घर की ओर मुड़ी हुई थी। कुछ देर बाद बेतहाशा चुन्नी लहराती एक गदराई सी लडक़ी लोटे में शर्बत और गिलास लिए नानाओं की ओर मुड़ी। चिनवा जी ने परिचय दिया – “सोनी को पहचाने?” ” अरे कितनी बड़ी हो गयी है..” कहते हुए प्यास से व्याकुल छोटे नानाजी शिकंजी की पूरी गिलास एक साँस में गटक गए। तृप्त होकर बोले-
“बेटा बहुत स्वादिष्ट- चीनी एकदम उतनी जितनी होनी चाहिए- और नींबू ज़मीरी है पर गमगम है। बहुत स्वादिष्ट। ..गुंजन को भी दो”
अब वो मेरे सामने थी। मैं देख रहा था आठवीं कक्षा की वह दुबली काया वाली बालिका, भरी-पूरी युवती हो चली थी। उसके गुलाबी हाथों में एक सिंदूरी रंग की दिल के आकार की घड़ी थी। दिखने में बेहद प्यारी। पर मुझे वह घड़ी आशंकित कर रही थी।
गिलास में शर्बत लिए वह कुछ देर खड़ी रही। फिर आचानक उसे स्टूल पर रखकर चली गयी। यों यह उपेक्षा का ‘जेस्चर’ समझा जा सकता था किंतु मुझे यह सोचकर अजीब सी ख़ुशी मिल रही थी कि शायद वह मुझसे ‘शरमा’ गयी है। बाद में पता चला कि शिकंजी ख़त्म हो गयी थी। वही लाने गयी थी। शकंजी कभी मेरी पसंद न रही। किंतु यहाँ मुआमला दूसरा था। शर्बत कभी न पीने वाले गुंजन ने केवल इस लालच में कि वह ज़्यादा देर उसके सामने खड़ी रहे- कुल तीन गिलास शर्बत पिया था।
रात से पूर्व रोहू मछली का दौर चला। मुझे शाम की चाय के साथ कुछ तली हुई मछलियाँ भी दी गयीं। नाना जी ने उलाहना देते हुए कहा – इसे काँटा निकालना नहीं आता,पेटी (पेट-पीस) दे दो। मैथिल ब्राह्मण को मछली खाने में दिक्कत हो ? इज़्ज़त तार-तार हो रही थी। “हमारी सोनी तो मूरी (मछली का सिर) भी खा लेती है” सोनी की माँ ने किचन से आवाज़ दी। “अरे! सारी पौष्टिकता तो सिर में ही होती है ! सिर खाने से बुद्धि बढ़ती है” चिनवा जी ज्ञान की बात बता रहे थे। इज़्ज़त दोराहे पर थी। मैंने आव देखा न ताव एक ‘पीस’ उठाकर कड़कड़ाते हुए खाने लगा। जोश में था। काँटो को भी चबा जाना चाहता था। चबाया भी। मगर कहीं कुछ रह गया होगा, गले में जाकर अटक गया। मैंने खूब पानी पिया, निगलने की कोशिश की पर चुभन ज़्यादा थी। मेरी हालत चिनवा जी से पहले सोनी भाँप गयी। फौरन किचन गयी और माँ को बताया। माँ आयीं और एक बड़ा कौर भात का , मेरे मुँह में ठूंस दिया – “बिना चबाये ज़ोर से निगलिये” । मैंने ऐसा ही किया। एक और बार ऐसा ही किया। मुझे गले में अटका काँटा अंदर जाता हुआ महसूस हुआ। सोनी तब तक एक गिलास गुनगुना पानी ले आई। मैं उसे आराम-आराम से पीने लगा।
गले का दर्द जा चुका था, हृदय का दर्द बढ़ रहा था। मेरे भीतर हड़बड़ाहट थी। इतनी सुंदर, इतनी बुद्धिमान और इतनी ‘केयरिंग’ …उफ़! साक्षात अन्नपूर्णा । मैं किसी भी हाल में , एक भी मिनट की देरी न करना चाहता था। शादी कभी भी करे, बस मुझसे करे। मैं उसे किसी भी तरह आरक्षित कर लेना चाहता था। उसे अपने हृदय की बात कह देना चाहता था। पर भला कैसे? तभी किचन से वह आवाज़ आई जो किसी भी प्रेमी के लिए दुनियाँ की सबसे खूबसूरत आवाज़ है-
“अरे सोनी तू काँटा हटाकर दे दे बउवा को- ले जा.. और ‘पीस’ ले जा” । कमरे में ले जा बउआ को। वहाँ लाईट में ध्यान से काँटा निकालकर देना।”
किस्मत पुनः मेरे ख़यालों का अनुसरण कर रही थी। दो सौ वॉट बल्व की रौशनी में मैंने उसकी अनामिका उँगली को ध्यान से देखा। कोई अंगूठी न थी। उसके बाल बंधे थे – पर बंधन की हदों के पार लहरा रहे थे। आगे के बाल घुंघराले थे। किसी देवी की मूर्ति सा गोल चेहरा। गोल ही आंखें। मैने पूछा –
” आप दिल्ली गयी हैं कभी?”
” हाँ, पिकनिक पर गयी थी- स्कूल की तरफ से”
मैं उसे अपने बारे में ‘इम्प्रेसिव’ बातें बताना चाहता था।मैंने उसे बताया कि मैं जनकपुरी में रहता हूँ। बड़ी और पॉश कॉलोनी है। मेरे पास एक छोटी सी कार भी है।अब हिन्दू कॉलेज में पढ़ता हूँ यह भी बताना था।
हिन्दू कॉलेज सीनियर्स ने , कॉलेज की ऐसी महिमा मन में भर दी थी कि लगता था कि ज्योंही कहूंगा हिन्दू कॉलेज में पढ़ता हूँ- गले ही लगा लेगी। ख़ैर वह भी बता दिया। पर कुछ न हुआ। सारे काँटे वह निकाल चुकी थी। मेरा दिल धक से हो गया। अब तो वह चली जाएगी! मैने उसके जाते-जाते आख़िरी सवाल पूछा -“आपको म्यूज़िक पसंद है?”
वह वापस मुड़ी। मेरी आँखों में आँखें डालकर मुझे देखा। वह मुझे इस तरह पहली बार देख रही थी। उसके देखने में सम्मोहन था। चहक कर बोली-
“अरे , आप वही हैं न ? मैंने आपका गाना सुना है। आप बचपन में पेटी बजाकर गाते थे। एक दिन मैं भी सुनी थी आपको। वहाँ दालान पर। ‘हमराज’ फ़िल्म का गाना -‘तुम अगर साथ देने का वादा करो’- गाया था आपने। पता है? तब से वो गाना मेरा ‘फेवरेट’ है।”
मैंने बिस्तर पर रखा तकिया अपनी गोद में ले लिया था। कुछ सेकेंड्स की ख़ामोशी के बाद
“आप बहुत अच्छा गाते थे..मतलब बहुत ही अच्छा।”
‘बहुत ही अच्छा’ कहते हुए हुए कुछ सेकेंड्स के लिए उसकी गोल आंखें दिलकश अंदाज़ में आधी बंद हो गयी थीं। उसकी नज़र नीची हो गयी थी। चेहरा सूर्ख लाल
“मैंने तो आपके बारे में सुरेश भैया से भी पूछा था..” ‘अभी आई’ कहकर वह झटके से चली गयी।
अरे बाप रे!! सब याद है। सब पता है। मुझे काटो तो खून नहीं। पर हृदय की धौंकनी हाहाकार मचा रही थी।
◆3◆
रात में जमकर माँछ-भात खाने के बाद अब पचाना भी ज़रूरी था। नानाजी लोग चिनवा जी के साथ टहलने निकल गए- ‘नाइट वॉक’। मैंने जाने में अपनी अनिच्छा जताई। मैं सोनी के साहचर्य का एक भी मिनट गवाना नहीं चाहता था। वह शायद अपनी माँ के साथ बैठकर खा रही थी। मैं कमरे से निकल कर आंगन में उसी खटिया पर जा बैठा, जहाँ आते ही बैठा था।
आसमान की ओर देखने लगा। इजोरिया रात थी। चांद बेहद खूबसूरत नज़र आ रहा था। उस मकान का छज्जा मानो चांद का ‘स्टैंड’ बना हुआ था। मैं सोच रहा था कि चांद कितना सुंदर होता है। पर सोनी का गोल-गुलाबी चेहरा उससे अधिक सुंदर है। यह मेरी सोच, ज़ाहिर है रोमानी थी। हज़ारों वर्षों से कवि लोग ऐसी उपमाएं देते रहे हैं। मैं ठहरा 2k वाला। प्रेक्टिकल सोच वाला । कल्पनाओं और वायवीयताओं के बरख्श घटित होती चीज़ों का आनंद लेने वाला। पर सोच पर वश कहाँ!
मैं सोच रहा था इसी छज्जे पर जहाँ चांद टिका हुआ है यदि सोनी आ जाए तो तुलनात्मक अध्ययन जैसा कुछ हो जाएगा। लो जी, अभी तो घनानंद ठीक से पढ़ा भी नहीं, असर पहले आ रहा है। पर तभी जो देखा वह अद्भुत था। यह बात मैं कोई रचनात्मक छूट लेकर वर्णित नहीं कर रहा हूँ। सच कह रहा हूँ। सोनी वाक़ई छज्जे पर थी। दुर्लभ क्षण, अप्रतिम दृश्य। चांद ठीक उसके बगल में। सोनी की घुंघराली लटें हवा में लहरा कर बार-बार उसके चेहरे से टकराती थी और वह बार-बार उसे उंगलियों से कानों में दबा देती थी। चांद यह नहीं कर सकता था। सोनी साँस लेती हुई सुंदरता थी, चांद एक निर्जीव मूरत।
मैं छत पर जाने की हिम्मत न कर सका। कुछ देर बाद वह जा चुकी थी।
अगले दिन तड़के हमें मौसी के लिए लड़का देखने जाना था। जिसका शक़ था वही हुआ। बल्कि शक़ के दायरे को पार करती हुई घटना। लड़का अभी ‘सीए’ में पढ़ नहीं रहा था बल्कि ‘सीए’ में दाखिले के लिए ‘एंट्रेंस एग्जाम’ की तैयारी हेतु ‘कोचिंग क्लासिज़’ ले रहा था। हद है न?
मिथिला में लड़कों की नौकरी और आमदनी के हिसाब से तरह-तरह की बोली लगती है। सब जानते हैं। लड़की का पिता खरीददार होता है और लड़के का पिता दुकानदार। हर ‘प्रोफेशन’ का लड़का आपको उचित ‘दर’ में मिल जाएगा। अमूमन दरें भी ‘फिक्स’ हो जाया करती हैं। मसलन उस दौर के हिसाब से आईएएस, आईपीएस, आईएफएस आदि के लिए 25 से 50 लाख, डॉक्टर,सी.ए., स्थायी नौकरीशुदा वकील, इंजीनियर और प्रोफेसर के लिए 15 से 25 लाख, सरकारी शिक्षक, बैंक पीओ,बी ग्रेड अधिकारी हेतु 10-20 लाख, सरकारी क्लर्क,रेलवे स्टेशन मास्टर, टी टी ई हेतु 10-15 लाख। मज़े की बात ये कि सामान्यतः ‘बी’ ग्रेड प्राइवेट फर्म के अधिकारी और सरकारी फार्म के ‘डी’ ग्रेड कर्मचारी की कीमत एक सी। अंतिम कीमत लड़के की पारिवारिक पृष्ठभूमि और ज़मीन-जायदाद से तय होती रही है।
उक्त राशि को ‘गिनना’ कहा जाता है। इसका शादी के खर्चों, सामान लेनदेन, ज्वैलरी, आयोजन आदि के खर्चों से कोई लेना देना नहीं। वह तो पारंपरिक रूप से लड़की वालों की ही ज़िम्मेदारी है। हाँ, लड़के का पिता अपनी इच्छा से अपनी होने वाली बहू को मण्डप में ही कुछ गहने देता है। वह एक बहुप्रतीक्षित घटना होती है , जिसपर लड़की के गाँव-समाज और रिश्तेदारों की पैनी नज़र होती है। गहने,साड़ी आदि दुल्हन को दिए गए सामानों में कोई कमी हो तो अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं द्वारा खूब सुनाया जाता है। लड़के के पिता को ‘कुछ भी नहीं दिया’ ‘सारा पैसा हज़म कर गया’ ‘ लूट लिया’ आदि तानें सुनने ही पड़ते हैं। यह एक परिपाटी बन चुकी है। जिसका बुरा नहीं माना जाता।
बहरहाल, लड़के की वास्तविकता जानने के बाद हम सभी ठगा हुआ महसूस कर रहे थे। चाय तो पी ली थी किंतु और कोई आग्रह स्वीकार न कर पा रहे थे। किसी बहाने से वहाँ से निकलना चाहते थे। लडके का पिता अपनी असलियत खुल जाने के बाद भी क़तई शर्मिंदा न था। इतने पर भी वह बिना किसी झिझक के एक खुर्राट व्यापारी की तरह बोला-
” देखिए, हमारा लड़का तो आज नहीं तो कल ‘सी ए’ बनेगा ही। आप बताएं कि आप अभी कितना गिन सकते हैं।”
कमाल का आदमी था वो। ग़ज़ब का आत्मविश्वास। मंझले नाना का चेहरा गुब्बारे की तरह फूला जा रहा था। कभी भी फट सकते थे। मगर छोटे नाना की आँखों में मुझे शरारत साफ नज़र आ रही थी। बोले-
” हाँ, लड़के के ‘सीए’ बनने में क्या शक है। हम बारह तो नहीं दस गिन सकते हैं। अब आपका लड़का हमारा हुआ समझिए।”
नाना जी ने सौ रुपए का पत्ता सिगरेट की शक्ल में मोड़ा और लड़के की शर्ट की जेब में ठूंसते हुए उठ खड़े हुए-
” हमें अब आज्ञा दीजिये। गाँव पहुँचते ही फोन पर आगे की बातें तय कर लेंगे।”
मंझले नाना और मैं अवाक थे। पर निकलने की लालसा ज़्यादा तीव्र थी। चुपचाप निकल लिए। रास्ते में टैक्सी में बैठते ही मंझले नाना का पहला सवाल –
“तू जो उसे दस बोल के आया है , ‘इफको’ (जिस संस्था में छोटे नाना कार्यरत थे) की कमाई से देगा क्या? मैं तो इसे पाँच के लायक भी नहीं समझता। ..अरे विद्यार्थी है वो, कायदे से दो या तीन भी बहुत है! तू दस बोल आया, कमाल है!”
छोटे नाना ठठा कर हँस रहे थे। बोले-
“कमबख़्त ने हमारा इतना खर्चा कराया। इतनी दूर से हम आए। इतना समय गया। इसे ऐसे ही छोड़ देते? वो कीमत लगा के आया हूँ कि कोई लड़की वाला उसे इतना देगा नहीं। और उससे कम में अब ये मानेगा नहीं। बैठा रहेगा अपना बड़ा सा मुँह खोलकर सालों साल। “
उनकी इस अदा पर हम भी खिलखिलाकर हँस दिए। तनाव कुछ कम हुआ।
हम दिल्ली की ट्रेन में थे। मैं नाना जी से अपनी बात कहना चाहता था। सोनी के विषय में उनकी राय जानना चाहता था। तभी छोटे नाना बोले –
“चिनवा की बेटी के लिए वैसे ये लड़का ठीक रहेगा। लड़का सुंदर तो बहुत है – है न?”
मैं कुछ हद तक जलने-भुनने सा महसूस ही कर रहा था कि मंझले नाना ने जलने-भुनने का औचित्य ही समाप्त कर दिया –
“अरे , उसकी लड़की ‘एअर होस्टेस’ है। अपना दूल्हा ख़ुद पसंद कर चुकी है। चिनवा कह तो रहा था कि दो महीने बाद हमें फिर जाना पड़ेगा। कन्यादान है।”
मेरा दिमाग़ सुन्न । ट्रेन की आवाज़ धकड़ धकड़ धकड़ धकड़…कानफोड़ू सीटी भी बजा रही थी। हम ‘स्लीपर क्लास’ में थे और डिब्बा शायद इंजन से सटा हुआ था। किंतु मुझे यह सब अब केवल पार्श्व रूदन लग रहा था। एक मेला था- तरह तरह के झूले थे, भीड़ थी , मजमा था- आचानक सब उजड़ गया जैसे। एकदम सन्नाटा। शमशानी सन्नाटा।
साँसे धीमी हो रही थीं। हलक़ सूख रहा था। सूखे मुँह का बचा-खुचा लाड़ घोंटने का प्रयास करते हुए मैंने पूछा-
” शादी तय हो चुकी है क्या?”
नानाजी बोले
“अरे दोनों साथ ही तो काम करते हैं। लड़का भी उसी जेट में है। शादी तो क्या पता, कर भी चुके हों। ये तो एक तरह से लड़की की विदाई के लिए किया गया आयोजन समझ लो। वैसे तो दोनों दिन भर साथ ही रहते हैं। चिनवा भी कह रहा था कि बस जल्दी से विदाई हो जाए। बदनामी से कौन नहीं डरता जी!”
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