भारतेंदु युग में संगीत
डॉ गुंजन कुमार झा
भारतेन्दु युग को प्रायः ‘कविवचन सुधा’ के प्रकाशन वर्ष 1868 ई- से लेकर ‘सरस्वती’ के प्रकाशन वर्ष 1900 ई- तक माना जाता है। मोटे तौर पर कहें तो उन्नीसवीं सदी का समूचा उत्तरार्द्ध काल भारतेन्दु युग है। यह युग अंग्रेजों के शुरूआती शासकीय दिनों का था। 1757 से शुरू हुआ अंग्रेजी प्रसार 1856 तक समूचे देश में फैल चुका था व 1857 की चिंगारी के बुझने के बाद मोटे तौर पर अंग्रेजों का शासकीय अधिकार पूरे भारत पर हो चुका था।
भारतेंदु युग के संगीत की चर्चा वस्तुतः भारतीय संगीत के उस समय की चर्चा है जब भारतीय शास्त्रीय संगीत दो मोर्चों पर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था। एक स्तर पर जनता व अपने आश्रयदाताओं की ओर से, जहाँ से उसे परिस्थितिजन्य उपेक्षा मिल रही थी – दूसरी ओर अंग्रेजों की ओर से जहाँ पर उसका अज्ञान जन्य विरोध किया जा रहा था। भारतीय संगीत के विषय में यूरोपीय लोगों की क्या सोच थी इस पर एक यूरोपीय विद्वान ने लिखा है –
‘प्रायः सभी पर्यटक भारत में यही विचार लेकर आते हैं कि भारत का संगीत केवल शोरगुल और नाक से निकली दीर्घ आवाजें हैं जो अत्यन्त घृणोत्पादक हैं। जो प्रायः शरीर के अंगों को तोड़-मरोड़ कर और उपहासास्पद विकृत मुद्राआें से युक्त होती हैं।
कतिपय विद्वानों का मत है कि अंग्रेजों की यह उपेक्षा अज्ञान जन्य तो थी ही साथ ही साथ उसमें कूटनीति भी समाई हुई थी। अंग्रेजों ने हमें केवल राजनैतिक और आर्थिक तौर पर ही नहीं सांस्कृतिक और वैचारिक तौर पर भी गुलाम बनाया, जो पहली प्रकार की गुलामी से कहीं अधिक स्थायी होती है.भारतीय संगीत की उपेक्षा कहीं न कहीं इसी का उदाहरण थी। संक्षेप में कहें तो भारतेंदु युग में भारतीय संगीत के शास्त्रीय पक्ष की स्थिति डावांडोल थी और उसने किन्हीं और रूपों में खुद को ढाल लिया था। जिस प्रकार हिन्दी कविता में भक्ति काव्य जैसे ‘क्लासिक’ दौर के बाद रीतिकाव्य जैसी अपेक्षाकृत अवर मानी जानी वाली कविता का दौर आया उसी प्रकार संगीत में भी उसी प्रकार एक खास्म किस्म की निम्नता आ चुकी थी जो कोठों पर अधिक मुखर रूप में सुनाई पड़ती थी। यहाँ पर भारतेंदु युग की पृष्ठभूमि के रूप में उससे पीछे की ओर एकबारगी झाँक लेना विषयांतर नहीं होगा।
विभिन्न स्रोतों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वैदिक काल में सांगीतिक उत्सवों की भी परिपाटी थी। उस युग में ‘समन’ नामक सांगीतिक उत्सव की चर्चा मिलती है जो एक प्रकार का सांगीतिक मेला होता था जहाँ आमोद-प्रमोद के लिए युवक-युवतियाँ जाते थे। वैदिक काल की यह मान्यता उस युग की भी मान्यता थी कि – ‘संगीत की सत्ता से पृथक ईश्वर की सत्ता नहीं है।’ पुराण काल से लेकर बौद्ध युग में संगीत ने विशेषरूप से नाटक को अपने साथ लेकर प्रगति की। इन नाटकों में संगीत का पुट अधिक रहता था। स्वयं भगवान बुद्ध के विषय में यह कहा जाता है कि वे संगीत को सांसारिक न मानकर उसे कल्याणकारी और मानव की भलाई का साधन मानते थे।
संगीत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व प्रामाणिक समय नाट्यशास्त्र के समय का माना जा सकता है। नाट्यशास्त्र ऐसा ग्रन्थ है जो संगीत और साहित्य दोनों के विषय में प्राचीन और प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत करता है। इसके अपने वृहद् कलेवर और गहन विवेचन को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उस युग में संगीत का शास्त्रीय रूप दृढ़ हो चुका था।
नाट्यशास्त्र के समय से लेकर व्यापक साम्राज्य की दृष्टि से अंतिम हिंदू शासक हर्षवर्धन तक का समय संगीत के फलने और फूलने का समय है यद्यपि अभी तक संगीत का नाटक से पृथक कोई अस्तित्व नहीं बन पाया था। आगे चलकर संगीत का स्वतन्त्र रूप विकसित हुआ और छोटे-छोटे राज्यों वाले राजपूत काल (7वीं से 11वीं शती) में घरानों का भी चलन पड़ गया। संगीत के क्षेत्र में जो घरानों का क्रम चला उसके बीज राजपूत काल में ही पड़ गए थे। पीढ़ी-दर-पीढ़ी संगीत की साधना करने से सब जगह की अपनी-अपनी शैली विकसित हो गई जिसे घराने का नाम दिया गया। साथ ही साथ इस युग की महत्वपूर्ण घटना है – भारतीय संगीत के उत्तरी और दक्षिणी पद्धतियों के विभाजन का भी सूत्रपात।
इसके बाद मुस्लिम आक्रमण और तदोपरांत हिंदू-मुस्लिम की साझी सांस्कृतिक परम्परा की शुरूआत हुई जिससे शास्त्रीय संगीत के रूप-स्वरूप में भी परिवर्तन हुए। इस विषय पर अनेक संगीत विद्वानों को पढ़ने पर यह दृष्टिगत होता है कि अधिकतर विद्वानों के मत में शास्त्रीय संगीत का जो भोग-विलासी पक्ष है वह मुस्लिम संस्कृति की देन है। किंतु यह मान लेना तर्क संगत नहीं जान पड़ता। यह मानते हुए भी कि इस्लाम में संगीत का अध्यात्म पक्ष अपेक्षाकृत कमजोर रहा होगा इस बात को मानने में झिझक होती है कि भारतीय संगीत में भोग-विलास की प्रधानता मुस्लिमों के आगमन के बाद ही आई। कम से कम हिंदू संस्कृति का इतिहास और मिथक तो इसे सरासर गलत ठहराता है। सोमरस और अप्सराओं के नृत्य पर बलखाती हिंदू परम्परा अपने संगीत के विशुद्ध आध्यात्मिक होने का दम्भ नहीं भर सकती। इसलिए डा- मुकेश गर्ग सरीखे संगीत और साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान इस मत का खण्डन करते हैं कि संगीत में भोग-विलास मुस्लिम संस्कृति की देन है। शुक्लजी ने जब भक्ति को मुस्लिम आक्रमण की प्रक्रिया के रूप में देखा तो द्विवेदी जी ने उसे कम से कम बारह आना गलत बताया। उसी प्रकार उपरोक्त मत (कि संगीत का विलासी रूप मुस्लिम संस्कृति की देन है) भी कम से कम बारह आना तो गलत है ही। वस्तुतः इन दोनों संस्कृतियों ने संयुक्त रूप से भारतीय संगीत को पर्याप्त समृद्ध किया और उसका वर्तमान स्वरूप दोनों की ही साझी विरासत है।
संगीत-कला की दृष्टि से मुगल-काल सर्वाधिक उर्वर काल माना जाता है. इस समय एक ओर तो शास्त्रीय संगीत का स्वरूप मुस्लिम दरबारों (विशेषकर अकबर के दरबार में) सँवरा तो दूसरी ओर भक्त कवियों ने अपने काव्य या पदों में भक्तिमय संगीत का वातावरण तैयार किया। अतः यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार मध्यकाल (भक्ति काव्य) हिन्दी साहित्य के लिए स्वर्ण युग है उसी प्रकार संगीत के लिए भी मुगल शासन के पतन की प्रक्रिया शुरू होने और छोटे-छोटे राज्यों के पनपने के साथ ही संगीत ने भी अपना चोला बदलना शुरू किया। शास्त्रीय संगीत की गंभीर और भारी भरकम शैली का स्थान ठुमरी, कजरी, चैती आदि उपशास्त्रीय रूपों ने लिया। मुहम्मद शाह रंगीले का काल (हिन्दी साहित्य का ‘रीति काल’) इस किस्म के संगीत के प्रचलन का काल विशेष रूप से रहा।
इस प्रकार भारतेंदु युग से पूर्व संगीत ने एक लंबा सफर तय किया। संगीत का रसिक व्यक्तित्व भारतेंदु युग को विरासत में मिला था। भारतेन्दु का युग अंग्रेजी शासन के पूर्णतः स्थापित हो जाने के साथ देश की नयी चेतना के निर्माण का युग है किंतु अंग्रेजी शासन के अखिल भारतीय स्वरूप के बावजूद छोटे-छोटे राजाओं का अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ था। संगीत को आश्रय इन्हीं राजाओं से प्राप्त था जहाँ पर बराबर सांगीतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। तद्युगीन संगीतज्ञों की रोजी-रोटी का इंतजाम इन्हीं कार्यक्रमों पर निर्भर था अतः राजाओं के शौक और अभिरुचि का खास ख्याल रखना लाजमी था। जैसी युग की स्थिति थी उसी हिसाब से आश्रयदाताओं का मन विशुद्ध कला प्रधान शास्त्रीय संगीत में नहीं अपितु भाव प्रधान उपशास्त्रीय संगीत के प्रकार – ठुमरी, कजरी, चैती, दादरा होरी, गजल आदि में (अपेक्षाकृत नाज-नखरों वाले गीतों में) अधिक लगता था।
नाज-नखरों और अदा से पूर्ण इन गीतों को गाने में भला औरतों की महत्ता को बढ़ने से कौन रोक सकता था। संगीत का यह रूप अपनी व्यापकता में वेश्यालयों तक पहुंचा साथ ही साथ गान मंडलियों की शुरफ़आत हुई। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े कार्यक्रमों में इन्हें बुलाया जाता था। इस प्रकार अब संगीत, युगीन राजाओ, नवाबों, रईसों आदि की छत्रछाया में विकसित हो रहा था। यह संगीत दो धाराओं में विभाजित था एक ध्रुपद, धमार और ख्याल गायन की शास्त्रीय परम्परा थी, दूसरी ठुमरी, कजरी, चैती, होरी, गजल, भजन की सुगम परम्परा थी। लोकप्रियता के मामले में सुगम ने बाजी मारी और यह नवाबों और रईसों के साथ आम तबकों को भी लुभा रहा था।
भारतेन्दु काशी के रहने वाले थे। काशी (बनारस) यों भी अपनी सांस्कृतिक विरासत के कारण भारत की सांस्कृतिक राजधानी मानी जाती है। उन दिनों उत्तर भारत के दो नगर बनारस और लखनऊ संगीत के लिए खासे चर्चित थे। बनारस के धार्मिक स्थान होने के कारण वहाँ के मंदिरों में संगीत पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा था। बनारस और लखनऊ सुगम संगीत के लिए भी विख्यात थे। जब यूरोपीय इन नगरों में आए तो उन्होंने ‘तरजा बताया’ और ‘हिली-मिली पहिया’ जैसा सुगम संगीत को खासा पसंद किया।
काशी के कई क्षेत्र तो ऐसे हं जहाँ घर-घर में महान् कलाकारों की परंपरा सी रही। कहा जाता है कि ऐसी जगहों पर संगीतज्ञों का कोई ऐसा परिवार शायद ही हो जिसमें किसी न किसी समय किसी विश्वविख्यात कलाकार ने जन्म न लिया हो। काशी (बनारस) में संगीत की फलती-फूलती विरासत को खाद-पानी देने का कार्य वहाँ के गद्दीधारी राजाओं व अन्य विद्वजन रईसों ने बखूबी किया। भारतेंदु के समकालीन महाराज ईश्वरी प्रसाद सिंह (1821-1888) ने अपने पूर्वजों की भांति ही संगीत और साहित्य को प्रश्रय प्रदान करते हुए इन्हें प्रोत्साहित किया। इनके दरबार में जाफरखां, प्यारे खां, बासत अली खाँ जैसे मूर्धन्य कलाकार आश्रित थे। आगे महाराणा प्रभुनारायण सिंह ने इस परम्परा को बनाए रखा।
संगीत को जहां राजा का प्रश्रय प्राप्त था वहीं युगीन रईसों-नवाबों का भी संगीत को बढ़ावा देने में बड़ा योगदन था। सामाजिक परिवेश कुछ ऐसा बन पड़ा था कि रईसों घरानों में मुण्डन, कर्णछेदन, यज्ञोपवीत, तिलकोत्सव, विवाहोत्सव आदि सभी अवसरों पर सांगीतिक गोष्ठियों का आयोजन एक प्रकार से प्रतिष्ठा का सवाल हो गया था। इन रईसों में स्वयं भारतेंदु और शिव प्रसाद ‘सितारे हिन्द’ के भी नाम गिने जाते थे।
इन सांगीतिक गोष्ठियों को ‘महफिल’ कहा जाता था – ‘जिसमें मुख्य रूप से कोकिल कंठी गायिकाओं तथा नर्तकियों के नृत्य संगीत का ही प्रदर्शन होता था। रात्रिकालीन महफिलों में इन्हें नृत्याभिनय के साथ गाना पड़ता था, जिसमें संगीतकार भी खड़े होकर वादन करते थे। ऐसी महफिल को ‘खड़ी महफिल’ कहा जाता था। सूर्योदय होने के पूर्व भैरवी की ठुमरी, दादरा, गजल, भजन इत्यादि का गायन बैठकर करने का प्रचलन था। इसे ‘बैठकी महफिल’ की संज्ञा प्राप्त थी। बैठकी महफिल में गायिकाएं ख्याल, टप्पा, ठुमरी, दाहा, होली, चैती, कजरी, गजल, निर्गुण, भजन आदि ही अधिकांशतः गाती थीं। और रागों में ललित, जोगिया, कालिंगडा, भैरव, तोड़ी, जौनपुरी, देशी, आसावरी के बाद महफिल का समापन ‘भैरवी’ से ही होता था, जिसमें कभी-कभी दोपहर हो जाने पर महफिल समाप्त होती थी।
‘रईसों की ऐसी महफिलों में भांग, ठंढाई, शरबत, रबड़ी, मलाई, दूध, केसर, चूड़ा, मटर, पान, इत्र, पुष्प इत्यादि के अतिरिक्त किन्हीं-किन्हीं महफिलों में विभिन्न प्रकार की विशिष्ट मदिरा तक का प्रबन्ध होता था। मसनद, भाव-तकिया, गद्दे, गलीचे, चाँदनी में आराम के साथ बैठकर संगीत प्रेमी श्रोता निमग्न रहते थे।’ यानी कुल मिलाकर रीतिकालीन परिवेश मूर्तिमान हो उठता था।
संगीत उत्सवधर्मी समाज और जीवन की नींव रही है अतः संगीतोत्सवों का अपना महत्त्व है। भारतेंदु युग में ऐसे अनेक संगीतोत्सव होते थे जो सालाना हुआ करते थे। इनमें विशेष रूप से ‘बुढ़वा-मंगल’ की चर्चा होती है। ‘बुढ़वा मंगल नामक यह संगीत मेला होली के बाद पड़ने वाले प्रथम मंगलवार को मनाया जाता था और इसमें केवल प्रौढ़ वय के संगीत प्रेमी ही सम्मिलित होते थे, स्त्रियाँ और बच्चे नहीं। इसीलिए इसका नाम ‘बुढ़वा मंगल’ पड़ा, ऐसी धारणा है। इस संगीत मेले में सर्वप्रथम जनरफ़चि एवं समयानुरफ़प राग का ख्याल प्रस्तुत किया जाता था फिर होली और अन्त में चैती गाई जाती थी। होली और चैती के सार्थक बोलों पर भाव नृत्य का संयोजन नृत्यांगनाएं करती थीं। इस मेले में सम्मिलित होने के लिए लोग समूहों और जत्थों में पालकी, घोड़ों पर या पैदल ही छाटों की ओर चल पड़ते थे, जिनके गले में गोप, भुजाओं में विजावट, कानों में चुन्नी, इत्र का फाटा, मोती के आभूषण शोभित होते थे। गुलाबी परिधानों को धारण कर समारोह में भाग लेने वालों की अनगिनत संख्या देखते बनती थी। नावों और बजड़ों पर ही खाने-पीने का प्रबन्ध रहता था। हलवाई, पनवाड़ी, माली आदि नावों पर ही अपनी दुकानें लगा लेेते थे। विभिन्न आकार के सुसज्जित बजड़ों पर विभिन्न प्रकार के निशाने होते थे, जिससे यह पता चलता था कि कौन सा बजड़ा किस राजा अथवा रईस का है। इस संगीत मेले में कलकत्ता से लाहौर तक के संगीत प्रेमी रईस शामिल होते थे।’
भारतेंदु युगीन संगीत में तवायफों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। इन तवायफों को सामाजिक मान्यता प्राप्त थी और ये देह-व्यापार से प्रायः दूर, केवल अपने हाव-भावपूर्ण गायन व नृत्य से मनोरंजन करने वाली कलावंत भर थीं। काशी में उस समय की परम्परा में चित्र, इमामबांदी, गुलबदन, सुखबदन, दुलारी, कज्जन, किशोरी, रफ़क्मणी, छित्तनबाई, सरस्वती, शिव कुँअर, गन्नो-बन्नो, मैना, टामी, राजेश्वरी, विद्याधरी, हुस्ना, बड़ी मोती, सिद्धेश्वरी, रसूलन, जेबुन्निसा, खैरफ़न्निसा, अनवरी, मलका, छोटी मोती, मानकी, कमलेश्वरी, तारा, राधा, कमला, जूही, पन्ना, रत्ना, मोहिनी, आदि का नाम आता है।
तवायफों की सामाजिक महत्ता कितनी थी इसका अंदाजा इससे हो जाता है कि ‘—बापू की प्रेरणा से काशी में ‘तवायफ संघ’ की स्थापना हुई तथा काशी की हुस्नाबाई इसकी प्रथम अध्यक्षा निर्वाचित हुई। इतना ही नहीं ‘काशी की सुप्रसिद्ध गायिका विद्याधरी से बापू ने आग्रह किया कि अपने संगीत कार्यक्रम के सिलसिले में आप देश की जिन रियासतों तथा नगरों में जायें, वहाँ अंग्रेजी हुकूमत के विरफ़द्ध एवं राष्ट्रीय आंदोलन के पक्ष में राष्ट्रीय गीत गाकर प्रबल जन-समर्थन प्राप्त करें। अंग्रेजी हुकूमत के स्वामित्व सेवकों की परवाह न करते हुए विद्याधरी ने महात्मा गांँधी की आज्ञा सहर्ष स्वीकार की और एक चुनौती के रूप में इस पद को अपने प्रत्येक कार्यक्रम में गाना प्रारम्भ किया –
‘चुन चुन के फूल ले लो, अरमान रह न जाए।
ये हिन्द का बगीचा, गुलजार रह न जाए।’
लखनऊ भी कलावत तवायफों के लिए प्रसिद्ध रहा। ‘‘नवाबी वक्त में लखनऊ ने नृत्य और संगीत में काफी उन्नति की। लखनऊ में तवायफों की तीन जातियाँ थीं। कंचनियाँ, चुने वालियाँ और नागरानियाँ।’’ इनमें केवल कंचिनयाँ ही ‘सतीत्व बेचती’ थी बाकी दोनों पकार की तवायफों खालिस कलावन्त थीं और इन्हें बड़ी इज्जत दी जाती थी। लखनऊ की मशहूर गाने वालियोें में ‘हैदरी’ और ‘दिलवर’ की आवाज बहुत दिलकश थी वहीं ‘नजमा’ नाम की गायिका राग-रागिनियों की अदाकारी में माहिर थी। उधर पंजाब में लाहौर और अमृतसर जैसे स्थान संगीत के प्रमुख केन्द्र बन गए थे। वहाँ पर सिक्खों व हिन्दुओं के भक्तिगीत के साथ ‘टप्पे’ को विशेष लोकप्रियता हासिल हुई।
उड़ीसा में भी ‘पुरी’ जैसे धार्मिक केन्द्र के चलते भक्ति संगीत का महत्वपूर्ण स्थान रहा। यों गाँवों में यात्र और पाला बहुत लोकप्रिय थे। वहीं बंगाल और बिहार में भी बैष्णव संगीत का ही प्रचलन अधिक था। जनसाधारण में महान कवियों चण्डीदास व विद्यापति के गीत गाये जाते थे। इसे ‘कीर्तन’ के नाम से जाना जाता था। कीर्तन बंगाल, बिहार व उड़ीसा की प्राचीनतम गायकी है जिसका समूह में गायन होता था व ‘खोल’ एवं ‘करताल’ का प्रयोग करते हुए विभिन्न प्रकारों से गाई जाती थी। यह प्रायः राधा-कृष्ण के गीतों पर आधारित होती थी और इन्हीं का अभिनय यात्र में किया जाता था। इसके अलावा देश के बाकी हिस्साेें में भी शास्त्रीय संगीत जहां एक ओर छोटे-मोटे रजवाड़ों के यहाँ अपने रूप में व शैलियों में परिवर्तनों के साथ पल रहा था वहीं लोक शैलियोें की अपनी परम्परा कायम थी। दक्षिण भारत में मैसूर, उत्तर भारत में लखनऊ व बनारस, पूर्वी भारत में दरभंगा, बंगाल के कई शहर कलकत्ता, उड़ीसा व पुरी, मध्य भारत में बुन्देलखण्ड, बघेल-खण्ड, जयपुर, उधर महाराष्ट्र में बम्बई, संगीत के ‘हब’ के रूप में विख्यात थे।
भारतेन्दु के संदर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण लखनऊ और बनारस की इन सब से अलग ही पहचान थी और देश भर के कलाकार यहाँ की संगीत प्रिय जनता के कायल थे। भारतेंदु को ऐसे ही आर्थिक, राजनैतिक दृष्टि से ह्रासमान समाज व सांस्कृतिक दृष्टि से संक्रमणकालीन युग की पृष्ठभूमि मिली थी, जिसका भारतेंदु और उनके नाटकों पर गहरा प्रभाव पड़ा।
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