राष्ट्रवाद और हिन्दी कविता
डॉ गुंजन कुमार झा
वादों का विवादों से गहरा नाता रहा है। जीवन जितना संश्लिष्ट है, वाद उतना ही विशिष्ट होता है। यही अंतर्विरोध वादों को विवादों से जोड़ती है। वादों पर बात करना हमेशा ही जटिल होता है किंतु तमाम विमर्शों में अनेक विशिष्टताओं से ही संश्लिष्टता की उपज होती है अतः हम वादों से बच नहीं सकते। बिल्कुल ताजे वर्तमान परिदृश्य में जब कोई खास विश्वविद्यालय इसलिए मशहूर हो जाए कि वहाँ राष्ट्रद्रोहियों के समर्थन में कथित नारे लगे और तमाम केन्द्रीय राजनीतिक दलों के सर्वोच्च नेता उसके पक्ष और विपक्ष में खड़े हो जाएं तब यह बात और भी जरूरी सी लगती है कि हिन्दी कविता को भी ज़रा राष्ट्रवाद के चश्में से देख लिया जाए। इस बात का खतरा उठाते हुए कि लोग हमें किसी खास दल का पैरोकार न समझ लें। हालांकि यह भी हास्यास्पद से कुछ अधिक है कि राष्ट्रवादी होने को किसी खास दल से जोड़कर देख लिया जाए।
प्रेम करना मनुष्य की उतनी ही सहज प्रवृत्ति है जितनी कि साँस लेना। वह जिएगा तो प्रेम करेगा। यह प्रेम मानव से, अमानव से, ईश्वर से, देश से, विचार से, किसी भी चीज से हो सकता है। हम जिस स्थान पर रहते हैं उस स्थान से हमारा लगाव होना सहज है और उतना ही सहज है जिस समाज,राज्य और संविधान से बंधे होकर हम एक राष्ट्र की अवधरणा में जीते हैं, उससे प्रेम। सीधे अर्थों में कहें तो देशप्रेम। यह देशप्रेम ही अपने विकसित और परिवर्धित रूप में राष्ट्रवाद में तब्दील हो जाता है। राष्ट्रवाद अपने भीतर एक तरह से उस सामूहिक आस्था को अपने अंदर समेटे हुए है जो साझा इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता और संस्कृति के धागों में एकजुट है।
मातृभूमि और क्षेत्र या देश के प्रति प्रेम और आकर्षण का भाव सनातनी है किंतु राष्ट्रवाद का उदय आधुनिक काल की उपज कही जा सकती है। यह भी अन्य वादों की तरह पश्चिम से होता हुआ भारत में आया, ऐसा औसत विद्वान मानते हैं। राष्ट्रवाद का उदय अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के युरोप में हुआ था लेकिन अपने सिर्फ दो-ढाई सौ साल पुराने इतिहास में ही यह विचार बेहद शक्तिशाली और टिकाऊ साबित हुआ है।
आपस में कई समानताएं होने के बावजूद राष्ट्रवाद और देशभक्ति में अंतर है। राष्ट्रवाद अनिवार्यतः किसी न किसी कार्यक्रम या परियोजना का वाहक होता है जबकि देशभक्ति की भावना में यह जरूरी नहीं है। राष्ट्रवाद अपनी सामूहिकता और व्यापकता में जहाँ एक ओर मजबूत पहचान देता है वहीं यह छोटी पहचानों को दबाकर पृष्ठभूमि में भी धकेल भी देता है। राष्ट्र गान के रचयिता रवीन्द्र नाथ टैगोर ने स्वयं कुछ हद तक राष्ट्रवाद को संदेह की दृष्टि से देखा है। किंतु राष्ट्रवाद विभिन्न विचारधराओं को एक जगह इकट्ठा करने का कार्य भी करता है। भारत के संदर्भ में देखें तो संशोधित समाजवादी जवाहरलाल नेहरू , खाँटी मार्क्सवादी कृष्ण मेनन, मशीनी-उद्योग विरोधी महात्मा गांधी और इसी तरह कई अलग-अलग विचारधारा के पैरोकारों ने मिलकर एक अखिल भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण किया। राष्ट्र के प्रति प्रेम जब तक व्यक्तिगत रहता है तब तक यह अपना प्रतिपक्ष तैयार नहीं करता किंतु जब यह सामूहिक होता है तब इसका प्रतिपक्ष भी तैयार होता चलता है। इसको इस रूप में समझें कि जब आप किसी से प्रेम करते हैं – व्यक्ति विशेष से ; यह स्पष्ट है कि आपके मन में उसके प्रति जितनी भावनाएं हैं या जितना अपनापन है उतना किसी और के प्रति नहीं होगा। बावजूद इसके वह आपको व्यक्ति विशेष के अलावा बाकी लागों से नफरत करना नहीं सिखाता। किंतु जब प्रेम सामूहिक तौर पर और भागौलिक चौहद्दी पर आधरित होता है तब इस बात का खतरा हमेशा ही बना रहता है कि वह आपको बाकी भौगोलिक क्षेत्रों से नफरत करना सिखा दे। देेशप्रेम जैसा निहायत उदात्त भाव जब राष्ट्रवाद के रूप में अन्य राष्ट्रों से नफरत करना सिखाने लगता है तब यही भाव नकारात्मक हो जाता है।
राष्ट्रवाद राष्ट्र को पहले रखता है और उसकी वकालत करता है, उसके आगे व्यक्ति और समाज को छोटा मानता है ऐसे में वह दक्षिण पंथ के करीब नजर आता है। राष्ट्र में जो कुछ भी है वह महत्त्वपूर्ण हैं और जो भी परंपराएं हैं वह हमारी संस्कृति हैं, उनका संरक्षण होना चाहिए ऐसी सोच के साथ वह प्रतिक्रियावाद के करीब नजर आने लगता है। तो ऐसे में जब राष्ट्रवाद के ऊपर दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी होने का मुलम्मा चढ़ जाता है तब तमाम प्रगतिशील कहे जाने वाल विचारक राष्ट्रवाद विरोधी हो जाते हैं और इसे सीधे हिटलरशाही से जोड़ते हैं।
वास्तव में राष्ट्रवाद ठीक उसी तरह नकारात्मक भाव या विचारधरा नहीं है जिस प्रकार प्रगतिवाद या मानवतावाद। प्रगतिवाद तमाम परंपराओं का दुश्मन है और मानवतावाद तमाम अमानवों (पशु-पक्षियों) का दुश्मन है ऐसी सतही सोच ही राष्ट्रवाद को नकारात्मक रूप में देख सकती है।
हिन्दी कविता हिन्दू जाति और संस्कृति की सभी भावभूमियों और विचारोत्तेजनाओं को अपने भीतर समाहित किए हुए है। राष्ट्रवाद आदिकाल में चन्द्रबरदाई से होते हुए भक्तिकालीन कवियों के प्रेम और रीतिकालीन भूषण से होते हुए आधुनिक काल में छायावाद और उसके बाद समकालीन कविता तक अपने पांव पसारता है। इसके रूपों में प्रत्येक युग में सहज रूप में स्वाभाविक अंतर आता रहा है। उस अंतर को समझकर राष्ट्रवादी भावों को समझा जा सकता है।
आदिकालीन कविता अनेक तरह के संक्रमण को समेटे हुए है। पुरानी चली आ रही संस्कृत भाषा के स्थान पर अपभ्रंश और उसके बाद हिन्दी के रूपों का विकास एक क्रम में हुआ । मूलतः धर्मिक, राजनीतिक और लौकिक साहित्य की जो रचनाएं हुई उनमें धर्मिक और लौकिक साहित्य में तो प्रायः नहीं किंतु राजनीतिक काव्यों में (यथा रासो काव्य) में कहीं-कहीं राज प्रशस्ति के क्रम में देशप्रेम का पुट मिल जाता है। आगे चलकर भक्ति काल भी प्रायः इससे शून्य ही रहा किंतु भक्ति के माध्यम से जन चतना के स्वाभिमान को बचाने और बनाने का जो महती कार्य हुआ या और मानुष प्रेम की जो अवधारणा विकसित हुई उसके अगले क्रम में कम से कम देशभक्ति के बीज तो मिल ही जाते हैं। भक्ति काल इस मायने में विशिष्ट है कि वह कविता को राज प्रासादों से निकालकर सीधे आम जनता के बीच लाकर खड़ा कर देती है किंतु उसकी भावभूमि भक्ति की है। विषय ईश्वर हैं मनुष्य नहीं। वह राष्ट्रीयता से इस लिए दूर नज़र आती है क्योकि वह साधरणतः राष्ट्रवाद के बुनियादी पहलू राजनीति से दूर रहने की हिमायत करती है-
“कोउ नृप होंहि हमें का हानि
चेरि छांडि़ नहिं होइब रानि
यों आप कह सकते हैं कि आगे चलकर रामराज्य की पूरी परिकल्पना राजनीति के निकट जान पर पड़ती है किंतु उसका रूप इतना आदर्शवादी है कि उसमें राष्ट्रवाद के बीज को पकड़ पाना मुश्किल हो जाता है। कहा जा सकता है कि भक्ति काव्य में स्पष्ट तौर पर तो राष्ट्रीयता की काई चेतना नहीं है किंतु भक्ति काव्य हमारी राष्ट्रीयता का एक प्रमुख अंतःसाक्ष्य अवश्य है। आलवारों के काव्य से लेकर मध्यकाल में समूची भारतीय सर्जनात्मक क्षमता को उत्प्रेरित करने वाली वृत्ति भक्ति ही रही हे। और इस स्तर पर संतों -सूफियों -सगुण भक्ति कवियों का काव्य, अखिल भारतीय स्तर पर सामान्य जन के लिए शक्ति का स्रोत रहा है। काव्य का ऐसा विराट और विस्तृत स्वरूप अन्यत्र आसानी से देखने में नहीं आता।
रीतिकाल में कवि भूषण हिन्दू धर्म की रक्षा के योद्धा के रूप में शिवाजी को प्रतिष्ठापित करते हैं। राष्ट्रवाद की पहली स्पष्ट प्रतिध्वनि यहीं सुनाई पड़ती है, हालाकि उस राष्ट्रीयता पर अपनी प्रकृति में साम्प्रदायिक होने का आरोप भी लगाया जाता है। इस राष्ट्रीयता को आप हिन्दू राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि के रूप में देखना चाहें तो देख सकते हैं –
वेद राखे विदित पुरान परसिद्ध् राखै
राम नाम राख्यौ अति रसना सुघर में
हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन की
कांध में जनेऊ राखौ माला राखी गर में
हिन्दू शब्द सुनते ही भूषण को साम्प्रदायिक कह देना और हिन्दू राष्ट्रवाद का नाम आते ही उसे वर्तमान मुस्लिम आबादी के विरोध मान लेना चीजों का हास्यास्पद सरलीकरण है। तमाम बौद्धिकों को बहुत सख्ती से उस प्रवृत्ति से निपटना होगा जिसके तहत हिन्दू को मुस्लिम का और मुस्लिम को हिन्दू का विलोम घोषित कर दिया जाता है।
आधुनिक काल विशिष्टताओं के स्थान पर संश्लिष्टता का काल है। भक्ति का रूप बदलता है , श्रृंगार का रूप बदलता है। ईश वंदना के स्थान राष्ट्र वंदना लेती है और कमोबेश नव विकसित राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति मुखर होती जाती है। देशभक्ति से राष्ट्रीयता, राष्ट्रीयता से सांस्कृतिक चेतना और सांस्कृतिक चेतना से जन चेतना का रूप ग्रहण करने का काम आधुनिक कविता करती है। छायावाद इसमें मूलतः राष्ट्रीयता को सांस्कृतिक चेतना के उत्थान के रूप में और अस्मिता की पहचान के रूप में देखती है। वहीं आगे की कविताएं प्रगतिवाद से चलकर नई कविता और समकालीन कविता में आकर जनचेतना का रूप लेती चलती है। श्री रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार आधुनिकता की केन्द्रीय विशेषता स्वचेतनता की वृत्ति कही जा सकती है। वीरत्व, भक्ति , श्रृंगार – क्रमशः हिन्दी के चारण काल, भक्ति काल और रीति काल की मूल मानसिकताएं – मानव जीवन की सहज सामान्य प्रवृत्तियां कही जा सकती हैं। आआधुनिक काल के नामकरण का औचित्य इस बात में है कि यहाँ रचनाकार का स्वचेतन रूप उभरता हे। उसकी वृत्ति उस राष्ट्रीयता की होती है जो सहज देशभक्ति का प्रयत्नपूर्वक उद्दीप्त क्रिया रूप है। दूसरी ओर काव्यभाषा में वह पिछले संस्कारों को तोड़ने के लिए ब्रजभाषा को छोड़कर खड़ी बोली को अपनाता है। इस दुहरे रूपांतरण के वाहक बनते हैं – भारतेंदु हरिश्चन्द्र।
रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार राष्ट्रीय भावबोध के साथ जुड़ी बात आती है देश वंदना की। ब्रजभाषा काव्य परंपरा में देव वंदना के स्पष्ट ही अनेक अवसर हैं पर देश वंदना का स्वर कभी-कभी ही उठता है। देश वंदना का काव्य शुरू होता है पहली।खड़ी बोली का काव्य ‘कानन कुसुम’ से ।
छायावाद देशभक्ति को सांकृतिक धरातल पर देखता है और छायावाद का राष्ट्रवाद उसके राजनैतिक पक्ष से अधिक उसके सांस्कृतिक पक्ष को मजबूती से पकड़ता है . इस क्रम में वह सम्पुर्ण मानवता की बात करने लग जाता है . वास्तव में सांस्कृतिक उत्थान और नवजागरण की प्रवृत्ति की सूक्ष्म अभिव्यक्ति छायावाद को महत्त्वपूर्ण बनाती है.
एक और मध्यकालीन भक्ति भावना का पर्यवसान सूक्ष्म आध्यात्म में होता है वहीं देेशभक्ति की भावना स्वच्छंदतावादी मानसिकता का रूप ले लेती हुई छायावादी भावबोध में बदल जाती है . एक विकास क्रम भारतेंदु और प्रसाद के बीच घटित होता है अरु दूसरा भारतेंदु से आरम्भ होकर श्रीधर पाठक से होता हुआ सुमित्रानंदन पन्त के बीच सक्रिय होता है .
स्वच्छान्दवाद का दौर हिंदी कविता में भाषा और संवेदना के स्तर पर पूर्ण वयस्कता का दौर है। इसी दौर में माखनलाल चतुर्वेदी , बालकृष्ण शर्मा नवीन और सियारामशरण गुप्त की कविता को देखा जा सकता है जो राष्ट्रीय काव्य के रूप में हिंदी कविता में अपना विशेष दर्जा पाती है। एक ओर राष्ट्रीय काव्य देश पर उत्सर्ग के लिए प्रेरणास्रोत बनती है वहीं दूसरी और छायावाद मुख्यधारा में शक्ति का काव्य बन जाती है. स्वच्छन्दतावाद और राष्ट्रीय काव्य की यही इकहरी धाराएं छायावाद में आधुनिक जीवन की संश्लिष्ट और जटिल काव्य-धारा का रूप लेती हैं.
आधुनिक हिंदी कविता में राष्ट्रवाद के स्वरुप को रामस्वरूप चतुर्वेदी बड़ी स्पष्टता से समझाने का प्रयास करते हैं. एक तरफ भारतेंदु और दूसरी तरफ रघुवीर सहाय की कविता के माध्यम से इसे सूक्ष्म स्तर पर समझा जा सकता है। यह तो स्पष्ट है की देशभक्ति की सामान्य वृत्ति ही स्वचेतन होकर राष्ट्रीयता का रूप लेती है. भारतेंदु ऐसे भक्त थे जो एक तरफ तो बिलकुल आम जनता की सोचते थे और दूसरी और वे समकालीन राजनीती पर भी पूरी निगाह रखते थे. उनकी अग्रलिखित दो पंक्तियाँ ततकलेएन राष्ट्रीयता के कश्मकश को सूत्र रूप में कह देती है –
अंग्रेज राज सुख साज – सजे सब भारी
पे धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी
अंग्रेजी राज की सुख और सुविधा से मन संतुष्ट हो सकता है मगर ज्योंही समकालीन राजनीतिक समझ और विवेक का साबका पड़ता है त्योंही राष्ट्र के धन का विदेश चला जाना अखरने लगता है . यह धन किसी व्यक्ति विशेष का नहीं है . यह देश का है. देश की जनता का है. राजभक्ति और देश भक्ति के इस द्वंद्व के बीच राष्ट्रीयता हिन्दी कविता में अपना मजबूत क़दम रखती है जो आगे चलकर राष्ट्रीय कविता के रूप में हिन्दी पट्टी को उद्वेलित करती है –
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गुंथा जाऊं
चाह नहीं मैं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नहीं सम्राटों के शव पर है हरि डाला जाऊं
मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पर जाएं वीर अनेक
फिर वहां से चलकर रघुवीर सहाय के ‘अधिनायक’ तक राष्ट्रीय बोध अपना दूसरा रूप प्रस्तुत करती है . यह राष्ट्रवाद की प्रचलित अवधारणाओं के अनुकूल बेशक न लगे किन्तु इसकी अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता है जिसके बग़ैर राष्ट्रवाद का रूप इकहरा ही बना रहेगा . इस बिंदु पर आकर रघुवीर सहाय लिखते हैं –
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है
यदि भारतेंदु और रघुवीर सहाय में देखें तो एक में गुलामी का दर्द और दुसरे में आज़ादी का दर्द . इन दोनों दर्दों के द्वंद्व के बीच कहीं राष्ट्रवाद का एक स्वरुप निर्धारित होता है . हिन्दी कविता में हमें इसके सूत्र दिखाई पड़ जाते हैं.
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1 हिन्दी साहित्य का इतिहास , डॉ नगेन्द्र
२. हिन्दी काव्य-संवेदना का विकास , रामस्वरूप चतुर्वेदी
३ हिन्दी साहित्य का इतिहास , आ शुक्ल
४ http://hi.wikipedia.org/wiki/
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