जैनेन्द्र कुमार : जान्हवी
डॉ गुंजन कुमार झा
एक लेखक : एक कहानी {संक्षिप्तिका-6}
जैनेन्द्र कुमार : जान्हवी
कहानीकार के रूप में जैनेन्द्र का उदय प्रेमचन्द युग में हुआ। किन्तु प्रेमचंद और जैनेन्द्र में बुनियादी अंतर स्पष्ट है। । प्रेमचन्द ने जहां अपने समग्र कथा साहित्य में व्यष्टि के स्थान पर समष्टि को महत्व दिया है वहीं जैनेन्द्र व्यष्टि के रचनाकार माने जाते हैं।
जैनेन्द्र कुमार का जन्म 2 जनवरी 1905 ई को कौड़ियागंज, जिला अलीगढ में हुआ। इनकी आरंभिक शिक्षा ब्रह्मचर्याश्रम, हस्तिनापुर में हुई। इसके बाद उन्होंने हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में अघ्ययन किया । जैनेद्र का असली नाम आनंदी लाल था। सन 1911 को शिक्षा प्रारंभ करते समय गुरुकुल ने इन्हें ‘जैनेन्द्र’ नाम दिया।
इनकी पहली कहानी संग्रह ‘फांसी’ के नाम से सन् 1930 में प्रकाशित हुई। जैनेन्द्र भारतीय स्वाधीनता संग्राम में पूरे मनोवेग से जुड़े रहे। प्रेमचन्द्र क साथ मिलकर इन्होंने लाहौर में ‘हिन्दुस्तानी सभा’ की स्थापना की। इस दौरान इनकी रचनाएं- परख, वातायन, एक रात, नीलम देश की राजकन्या, सुनीता, त्यागपत्र आदि प्रकाशित हो चुकी थीं। प्रेमचन्द्र के बाद ‘हंस’ का संपादन भी जैनेन्द्र ने ही किया।
जैनेन्द्र कुमार अपने समय में महात्मा गांधी, विनावा भावे, रविन्द्र नाथ टैगोर, पं- जवाहर लाल नेहरू, जय प्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के साथ सतत संबद्ध रहे। इनकी अन्य कृतियाँ हैं- सुखदा, कल्याणी, जयवर्धन, दशार्क, स्मृति पर्व, साच विचार, परिप्रेक्ष्य, अकाल पुरुष गांधी, प्रेमचन्दःएक कृती व्यक्तित्व, साहित्य-संस्कृति, साहित्य का श्रेय और प्रेय, नीति और राजनीति, समय और हम, जीवन साहित्य और परम्पराएँ, गांधी और हमारा समय तथा संस्कृति, आस्था और तत्व दर्शन आदि।
साहित्य जगत को दिए गए अपने अमूल्य योगदान के लिए जैनेन्द्र को अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया। जिनमें प्रमुख हैं- हिंदुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद(परख, 1929),भारत सरकार शिक्षा मंत्रालय (प्रेम में भगवान,1952), साहित्य अकादमी(मुक्तिबोध,1965), हस्तीमल डालमिया पुरस्कार, उ-प्र- राज्य सरकार( समय और हम, 1970), पद्मभूषण(भारत सरकार,1971), मानद डी-लिट (दिल्ली वि-वि-,1973), हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग(साहित्य वाचस्पति, 1973), साहित्य अकादमी फैलोशिप(1974), भारत भारती एवं तुलसी नैतिक पुरस्कार(उ-प्र-सरकार) आदि।
इनका देहांत 24 दिसम्बर 1988 को हुआ।
जैनेन्द्र अपनी व्यष्टि चेतना के कारण मनोविज्ञान एवं मनोविश्लेषण के रचनाकार माने जाते हैं। वे किसी मनावैज्ञानिक सिद्धांत की बात नहीं करते किंतु मन की परतों को खोलने मे यकीन रखने वाले कहानीकार हैं। इस क्रम में वे अंतर्मुखी कलाकार के रूप में सामने आते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य दृश्य-बाह्य जगत की अभिव्यंजना न होकर भावजगत एवं व्यक्ति के अन्तर्मन का निरीक्षण और निरूपण करना है। इस तरह वे शिल्प की बाहरी बुनावट को भी एक तरह से खारिज करते हुए लिखते हैं-
‘‘शिल्प से किनारे बनते हैं, पानी नहीं बनता। कहानी का क्षेत्र वस्तु से अधिक व्यक्ति का है, स्थिति से अधिक गति का है। ’’
फ्रायड यौन संबंधों को एक बड़े सत्य के रूप में प्रस्तुत करते हुए तमाम नैतिकतावादी विचारधाराओं को खारिज करते हैं। जैनेंद्र में हमें इसकी प्रतिघ्वनि सुनाई देती है। वस्तुतः आधुनिकता चरित्र के पुराने प्रतिमानों को नहीं मानती। देह की पवित्रता से परिभाषित चरित्र और प्रेम को जैनेंद्र खारिज करते हैं। इसलिए हम पाते हैं कि चाहे वह ‘मृणाल’ हो या ‘जान्हवी’ जैनेन्द्र की सहानुभूति उनके साथ दिखती है।
भारतीय संदर्भ में देखें तो पुरुषों के बरख्श महिलाओं को दैहिक पवित्रता आधारित नैतिकता के चश्में से ही देखा और परखा जाता है। यही कारण है जान्हवी चरित्रहीन मानी जाती है। आजाद ख्याल ‘जान्हवी’ समाज के प्रचलित प्रतिमानों पर खड़ी नहीं उतरती और अंततः लेखक के भांजे के साथ उसकी शादी टूट जाती है।
कहानी में लेखक ने जान्हवी के चरित्र को अपनी आंखों से प्रकट करने का प्रयत्न किया है। पूरी कहानी में जान्हवी का एक भी संवाद नहीं है, न ही उसकी कोई प्रत्यक्ष घटना ही घटित होती है। सबकुछ लेखक की आँख से दृश्य के रूप में दिखाया जाता है। किंतु वह दिखाना बहुत सारगर्भित है। जान्हवी की कुछ गतिविधियों से ही लेखक उसके व्यक्तित्व केा स्पष्ट करने में सफल हो जाता है-
जान्हवी प्रतिदिन छत पर आती है और कौओं को रोटी के टुकड़े खिलाती हुई गाती है-
‘‘कागा चुन-चुन खाइयो—दो नैना मत खाइयो–पिउ मिलन की आस’’
मोहन राकेश कृत ‘आषाढ़ का एक दिन’ में मल्लिका बारिश में भीगने के बाद अपनी माँ से कहती है –
माँ, आज के वे क्षण मैं कभी नहीं भूल सकती। सौंदर्य का ऐसा साक्षात्कार मैंने कभी नहीं किया। जैसे वह सौंदर्य अस्पृश्य होते हुए भी मांसल हो। मैं उसे छू सकती थी, देख सकती थी, पी सकती थी। तभी मुझे अनुभव हुआ कि वह क्या है जो भावना को कविता का रूप देता है। मैं जीवन में पहली बार समझ पाई कि क्यों कोई पर्वत-शिखरों को सहलाती मेघ-मालाओं में खो जाता है, क्यों किसी को अपने तन-मन की अपेक्षा आकाश में बनते-मिटते चित्रों का इतना मोह हो रहता है।..
दैहिक स्तर पर स्त्री सुख की यह स्वीकार्यता प्रचलित नैतिकता के पैमानों का विलोम है। ऐसे बेबाकी और स्वीकार्यता हमें जाह्नवी में भी दिखाई पड़ती है। बस यहाँ यह स्वीकार्यता संवाद के में नहीं अनुभाव के रूप में है। कौओं का आकर चाव से टुकड़ों का खाना, जान्हवी का उक्त गीत गाना, आखिरकार टुकड़े खत्म हो जाने पर कौओं के जाने के पश्चात जान्हवी का बेबाकी और झटके से अपने बालेां को खोलना और उनके साथ खेलना ये सारी गतिविधियां बंधन में जकड़ी उन्मुक्त आकांक्षा की युवती का पता दे जाती हैं। इस दृष्टि से जाह्नवी आधुनिक स्त्री की उन्मुक्त एहसासात की प्रतिनिधि पात्र बन जाती है।
डॉ गुंजन कुमार झा
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