निर्मल वर्मा : धूप का एक टुकड़ा
डॉ गुंजन कुमार झा
एक लेखक : एक कहानी {संक्षिप्तिका-4}
निर्मल वर्मा : धूप का एक टुकड़ा
नयी कहानी के प्रणेताओं में प्रचलित परम्परा से बिल्कुल अलग कथाकार निर्मल वर्मा का जन्म 3 अप्रैल 1929 ई- को शिमला में हआ। पहाड़ी शहर की सुरम्य वादियों की छाया की पहचान निर्मल की संवेदनात्मक बुनावट में की जा सकती है।
निर्मल वर्मा की प्रारंभिक शिक्षा शिमला में ही हुई। आगे की पढाई हेतु उन्होंने दिल्ली का रूख किया और दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास में एम-ए- किया। कुछ समय तक उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया किंतु यह उनके स्वाभावानुकूल न था। फलतः उन्होंने स्वतंत्र मसिजीवी होने का रास्ता इख्तियार किया।
वे सन् 1959 से लेकर 1970 तक युरोप भ्रमण के दौरान चैकास्लोवाकिया समेत अनेक देशों में रहे। बाद में दिल्ली लौट आए। पहले शिमला तदोपरांत दिल्ली और फिर युरोप के विभिन्न देशों में जो जीवन निर्मल जी ने जिया और अनुभव किया उनका उनके साहित्य-सृजन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। विशेषकर चेकोस्लोवाकिया एवं अन्य युरोपीय देशों को निकट से देखने ने जहाँ उन्हें साम्यवादी व्यवस्था की अचूक समझ दी वहीं उत्तर उपनिवेशी भारत के बारे में नई अर्न्तदृष्टि भी प्रदान की।
निर्मल वर्मा ने जीवन को विभिन्न आयामों में जिया। कॉलेज के दिनों में कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता और साथ ही गाँधी जी की प्रार्थणा सभाओं में भी लगातार उपस्थिति, जे-पी- की सम्पूर्ण क्रांति और दलाई लामा के अहिंसक तिब्बत-मुक्ति आंदोलन आदि दो परस्पर विरोधी आयामों में वे लगातार शामिल रहे जिसका पुरजोर प्रभाव उन पर दिखाई पड़ता है। सम्भवतः इसी कारण वे उन थोड़े रचनाकारों में हैं जो संवेदनशील बुद्धिजीवी होने के साथ ही एक जागरूक वैचारिक प्रतिरोध के रचनाकार भी रहे। वे संवेदना और विचार के बीच सुंदर संतुलन का आदर्श प्रस्तुत करने वाले रचनाकार थे।
सन् 1972 में वे इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज, शिमला में फैलो रहे। सन् 1977 में अमेरिका के प्रतिष्ठित ‘इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम’ में सम्मिलित हुए। निर्मल वर्मा की कहानी ‘माया-दर्पण’ पर एक फिल्म भी बनी जिसे 1973 ई- में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन् 1981 में इन्हें ‘निराला सृजन पीठ’,भोपाल एवं सन् 1989 में ‘यशपाल सृजन पीठ’,शिमला का अध्यक्ष पद प्रदान किया गया। सन् 1985 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ मिला। कहानी संग्रह ‘द वर्ल्ड एल्सव्हेयर’ इंग्लैंड में ‘रीडर्स इंटरनेशनल’ द्वारा सन् 1988 में प्रकाशित हुआ। सन् 1996 में युनिवर्सिटी ऑफ ओकलाहोया, अमेरिका की पत्रिका ‘द वर्ल्ड लिटरेचर’ के बहुसम्मानित पुरस्कार ‘न्यूश्ताद् एवार्ड’ के लिए उन्हें भारत की तरफ से मनोनीत किया गया। सन् 1997 में ‘भारत और युरोपः प्रतिश्रुति के क्षेत्र’ को भारतीय ज्ञानपीठ के ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा उन्हें वर्ष 1997-98 में ‘श्लाका सम्मान’ प्रदान किया गया। उत्तर प्रदेश का सर्वोच्च ‘लोहिया पुरस्कार’ के साथ ही उन्हें सन् 1999 में ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार से भी नवाजा गया। भारत सरकार द्वारा सन् 2002 में निर्मल वर्मा को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।
निर्मल वर्मा का रचना संसार पर्याप्त विस्तृत है-
उपन्यासः -वे दिन (1964), लाल टीन की छत(1974), एक चिथड़ा सुख(1979), रात का रिपोर्टर(1989), अंतिम अरण्य(2000)
कहानी संग्रहः– परिंदे(1959), जलती झाड़ी (1965), पिछली गर्मियों में(1968), बीच बहस में(1973), मेरी प्रिय कहानियाँ(1973), कव्वे और काला पानी(1983), प्रतिनिधि कहानियाँ(1988), सूखा तथा अन्य कहानियाँ(1995)।
यात्रा-संस्मरण व डायरीः– चीड़ों पर चाँदनी(1963), हर बारिश में (1970), धुंध से उठती धुन(1997)।
निबन्धः– शब्द और स्मृति(1976), कला का जोखिम(1981), ढलान से उतरते हुए(1985), भारत और युरोपःप्रतिश्रुति के क्षेत्र(1991), इतिहास स्मृति आकांक्षा(1991), शताब्दि के ढलते वर्षों में(1995), ‘आदि, अंत और आरंभ’(2001)।
नाटकः– तीन एकान्त(1976)
संचयनः– दूसरी दुनियाँ(1978)
अनुवादः– कुप्रिन की कहानियाँ(1955), रोमियो जूलियट और अंधेरा(1964), कारेल चापेक की कहानियाँ(1966), बाहर और परे(1967), बचपन(1970), आर यू आर(1972), एमेके एक गाथा(1973)।
निर्मल वर्मा की कहानियाँ उस शहरी मध्यवर्गीय व्यक्ति को अपना विषय बनाती हैं जो बहुत कुछ आत्मकेंद्रित है। वह समाज से असम्बद्ध होने के साथ ही मानसिक रूप से असहज है। पाश्चात्य जीवन शैली के शहरी मध्यवर्गीय व्यक्तियों के बिगड़ते और बदलते संबंधों को इनकी कहानियों में उकेरा गया है। इनमें एक खास तरह का अवसाद, हताशा, पराजय बोध, अस्तित्व का संकट और उदासी के बादल छाए रहते हैं। एक तरह से अतीत की उदास स्मृतियों के सहारे निर्मल की कहानियाँ अपना सफर तय करती हैं।
निर्मल वर्मा अपनी कहानियों में आधुनिक युग की यांत्रिकता और जड़ता के फलस्वरूप टूटते परिवेश और पारिवारिक अनमनेपन के बीच व्यक्ति के अकेलेपन और अजनबीपन को बहुत शिद्दत के साथ दर्शाने वाले रचनाकार हैं। भीड़ के हाहाकार में शमशानी सन्नाटों का एक पूरा संसार निर्मल की कहानियों में नजर आता है। ‘धूप का एक टुकड़ा’ भीड़ में अकेलेपन की इसी विडंबना का एक बयान है।
‘धूप का एक टुकड़ा’ में धूप अपनी जगह का , अपने अस्तित्व का प्रतीक है जो हमें हमारे होने का एहसास कराती है। नायिका उस धूप के टुकड़े के लिए कभी इस बेंच पर तो कभी उस बेंच पर बैठती है किंतु उसे सबसे अजीज वह बेंच है जिसके ऊपर कोई पेड़ नहीं है। प्रचलित अर्थ में पेड़ छाया और संरक्षण का प्रतीक है किंतु यहाँ पर वह एक तरह के बंधन का प्रतीक भी है। वहाँ से गिरिजाघर साफ दिखता है- वही गिरजाघर जहाँ पर ठीक पंद्रह वर्ष पूर्व नायिका का विवाह हुआ था।
पूरी कहानी में नायिका केवल बोलती है। बिना यह जाने कि सामने वाला व्यक्ति जो एक वृद्ध है और पैरेम्बुलेटर के साथ बैठा है, वह उसे सुनने में रूचि रखता भी है कि नहीं। संवाद में सवाल और जवाब का भाव शामिल है जिसमें एक कहेगा , दूसरा सुनेगा, पुनः दूसरा कहेगा और पहला सुनेगा। इसलिए संवाद एक तरह से समूह का प्रतीक है। आधुनिक भाव-बोध इस सामूहिकता को अपदस्थ कर निजता को उसकी पूर्ण-विडंबनाओं सहित प्रस्तुत करता है। पूरी कहानी में नायिका कहती है- और कहती जाती है।
नायिका उस कहने के क्रम में बार-बार धूप के टुकड़े के लिए स्थान बदलती हुई अपनी जीवन-दशा बयान करती जाती है। उसकी शादी उसी गिरिजाघर में हुई थी जो उस बेंच से साफ़ दिखाई पड़ता है। उसे वह गिरिजाघर आज भी वैसा ही लगता है। वर-वधु को देखने आई भीड़ उसे ठीक वैसी ही लगती है जैसी भीड़ उसे पन्द्रह वर्ष पूर्व वधू के रूप में देख रही थी।
नायिका जीवन के प्रति अजीब अजनबियत से ग्रसित है। जन्म, विवाह और मृत्यू के प्रति उसका नजरिया इसे स्पष्ट करता है-
‘‘ मुझे कभी-कभी यह सोचकर बड़ा आश्चर्य होता है कि जो चीजें हमें अपनी जिंदगी को पकड़ने में मदद देती हैं वे चीजें हमारी पकड़ के बाहर हैं। हम न उनके बारे में कुछ सोच सकते हैं, न किसी दूसरे को बता सकते हैं। मैं आपसे पूछती हूं- क्या आप अपनी जन्म की घड़ी के बारे में कुछ याद कर सकते हैं या अपनी मौत के बारे में किसी को कुछ बता सकता हैं या अपने विवाह के अनुभव को हूबहू अपने भीतर दुहरा सकते हैं?’’
नायिका अपने उस एकाकी जीवन की छटपटाहट को स्वीकार तो कर चुकी है किंतु उसकी आदी नहीं हो सकी है। वह इसे अपना दुर्भाग्य मानती है। यह कमोबेश आधुनिक शहरी मध्यवर्गीय अकेलेपन के शिकार व्यक्ति का दुर्भाग्य है-
‘‘किसी चीज का आदी न हो पाना , इससे बड़ा और कोई दुर्भाग्य नहीं। वे लोग जो आखिर तक आदी नहीं हो पाते या तो घोड़ों की तरह उदासीन हो जाते हैं, या मेरी तरह धूप के एक टुकड़े की खोज में एक बेंच से दूसरे बेंच का चक्कर लगाते रहते हैं।
इन सबके बीच नायिका उस पैरेम्बुलेटर में बच्चे को बार-बार झाँकती है।
बच्चे निर्मल की कहानियों में अक्सर आते हैं और उनकी भूमिका विशिष्ट होती है। बच्चा मानो सारी मूल्यहीनता और सारी संदिग्धता के बीच एकमात्र असंदिग्ध और मूल्यवान बचा रहता है जिसे अपनाया जा सकता है। रमेशचन्द्र शाह के अनुसार
‘‘लगता है जैसे इस कथाकार के लिए बच्चे की दुनिया ‘एक दूसरी दुनिया’ है जिसका हस्तक्षेप इस दुनिया में होते रहना इस दुनिया के स्वास्थ्य के लिए ही नहीं उसके महज टिके रहने के लिए भी जरूरी है।“
दाम्पत्य जीवन के टूटने के फलस्वरूप अकेले पड़ जाने और फिर खुद की चीड़-फाड़ करने की दास्तान निर्मल वर्मा की अन्य कहानी ‘एक दिन का मेहमान’ में भी है किंतु वहाँ जो अवलोकन है वह पुरूष के कोण से है – यहाँ ‘धूप का टुकड़ा’ में अवलोकन का कोण स्त्री की ओर से हो गया है।
दाम्पत्य जीवन में जो अलगाव हमें ‘धूप का टुकड़ा’ में दिखाई पड़ता है उसकी कोई ठोस वजह नहीं दिखाई पड़ती। ‘पजेसिवनेस’ का पुरूषधर्मी भाव अवश्य परिलक्षित होता है। यह ‘पजेसिवनेस’ या ‘अतिकामी -परिग्रही भाव’ यहाँ एक समस्या की तरह दिखाई पड़ता है। बहुत कुछ वर्जिनियाँ वुल्फ की ‘मिसेज डलीवे’ की तरह जो इसलिए आजीवन कुंवारी रह जाती है क्योंकि उसे इस बात का डर रहता है कि पति उसकी चेतना पर हावी हो जाएगा और उसका निजीपन खत्म हो जाएगा। ‘धूप का एक टुकड़ा’ की नायिका भी कहती है-
‘‘यह आपको कुछ अजीब नहीं लगता कि जब हम किसी व्यक्ति को बहुत चाहने लगते हैं तो न केवल वर्तमान में उसके साथ रहना चाहते हैं बल्कि उसके उस अतीत को भी निगलना चाहते हैं जब वह हमारे साथ नहीं था। ’’
‘धूप का एक टुकड़ा’ शैली की दृष्टि से विशिष्ट रचना है। कहानी का विन्यास नाटक की शक्ल इख्तियार कर लेता है। पूरी कहानी नायिका का एकल संवाद है। ‘कहानी का रंगमंच’ के प्रणेता देवेन्द्र राज अंकुर ने इसका सफल मंचन भी किया है।
डॉ गुंजन कुमार झा
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