सांस्कृतिक परंपरा और मीडिया
डॉ गुंजन कुमार झा
संस्कृति और परंपरा दोनों ही नित्य गतिमान अवधारणाएं हैं। इसलिए इनकी सम्यक परिभाषा संभव नहीं। इतना अवश्य है कि संस्कृति अपने आप में एक परंपरा है और परंपराएं संस्कृति का अंग हैं। मीडिया एक तीसरी अवधारणा है जो संप्रंषण का व्यापक जरिया है। इसमें व्यक्ति से व्यक्ति का संवाद नहीं होता। यह सिर्फ कहता है और ‘फीडबैक’ लेता है। इस क्रम में जनसामान्य को प्रभावित करता है।
मीडिया मूख्यतः सूचनाओं का प्रसारण केन्द्र है किंतु बदलते परिवेश में वह जनसामान्य को शिक्षित भी कर रहा है और मूर्ख भी बना रहा है। वह समाज के विचारों को बना-बिगाड़ रहा है और रूचियों को भी तय कर रहा है। यही कारण है कि मीडिया एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित हो चुका है।
मीडिया तकनीक के सहारे आज घर-घर पहुँच चुका है। आधुनिक मीडिया, विशेष कर इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो तकनीक की ही उपज है। संस्कृति और परंपरा तकनीक की मोहताज नहीं है। संगीत, साहित्य, रंगमंच या अन्य कलाएँ तकनीक से बिल्कुल शून्य समाज में भी व्याप्त थे।
जैसा कि कहा गया कि मीडिया आज एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरा है। जो मीडिया उस आम जनता की विचारधारा और रूचियों को तय कर रहा है जो नेताओं के लिए वोट बैंक है और बाजार के लिए उपभोक्ता वर्ग है – जाहिर है उस मीडिया को राजनीति और बाजार रूपी आधुनिक युग की दो केन्द्रीय शक्तियों का भरपूर सहारा और समर्थन भी मिलेगा। इतना ही नहीं राजनीति और बाजार मीडिया को अपने तरीके से ‘यूज’ कर भी रहा है।
सवाल यह है कि मीडिया की क्या अपनी कोई सामाजिक और सांस्कृतिक जवाबदेही भी है? यह भी कि हमारे पारंपरिक सांस्कृतिक विरासतों और हमारी जातीयता से भी क्या उसका कोई सरोकार है? अभी तक जो स्थिति नजर आ रही है उसमें इसका जवाब इंकार में ही मिलता है। उदाहरण के लिए मुख्यतः दो कलाओं को लें- एक भारतीय संगीत और दूसरा भारतीय रंगमंच। यहाँ जब भारतीय संगीत की बात हो रही है तो वह लोक और शास्त्रीय दोनों तरह का संगीत है और जब भारतीय रंगमंच की बात हो रही है तो वह हिंदी,मराठी,बंगाली व अन्य भारतीय भाषाओं के रंगमंच से संबंधित है।
शास्त्रीय संगीत की जो वर्तमान स्थिति है वह वास्तव में सोचनीय है । सोचनीय इसलिए क्योंकि यह मीडिया समाज में सर्वहारा है। शास्त्रीय संगीत की बड़ी से बड़ी महफिलें मुख्य धारा की मीडिया में अपनी जगह पाने में असफल रहती हैं। इससे जहाँ एक ओर आम श्रोताओं से इसका संपर्क खत्म हो गया है वहीं बड़े से बड़े कलाकारों को भी लोग नहीं जानते। प्रिंट मीडिया जहाँ साप्ताहिक सप्लीमेंट्स में होने वाले दो-तीन कार्यक्रमों की छोटी सी ‘नोटिस’ को छाप कर अपनी इतिश्री समझ लेता है वहीं इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो इसे एक सकेण्ड के लिए भी दिखाना मुनासिब नहीं समझता ।
शास्त्रीय संगीत को मीडिया में क्यों जगह नहीं मिलती इस संदर्भ में कुछ शास्त्रीय संगीतज्ञों से बातचीत करने पर यह स्पष्ट हुआ कि एक तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया को वह ग्लैमर ऐसी महफिलों में नहीं मिलता जो फिल्म व टी-वी- कार्यक्रमों में मिलता दूसरा आम प्रेक्षक के लिए भी यह उत्सुकतापूर्ण नहीं जिससे उनकी ‘टी-आर-पी’ बढने का इसमें कोई ‘चांस’ नहीं रहता है। ऐसे में वह भूतों की कहानी या बलात्कार की घटना का नाट्य रूपांतरण भले ही दिखा ले ऐसे कार्यक्रमों की रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं करेगा। क्यों कि इस मीडिया को केवल अपने देखने वालों को ‘इन्टरटेंन’ करना है उसका ‘टेस्ट’ नहीं सुधारना।
प्रिंट मीडिया में यदा-कदा शास्त्रीय संगीत की महफिलों की कुछ ‘रिपोर्ट्स’ छाप दी जाती हैं। रवींद्र मिश्र, यतीन्द्र मिश्र, शशि प्रभा तिवारी आदि कुछ संगीत आलोचकों के लेखन कहीं-कहीं पढे जा सकते हैं किंतु इन आलोचनाओं या ‘रिव्यूज’ का मुख्य लक्ष्य केवल औपचारिकता भर रह गया है। सही मायने में शास्त्रीय संगीत पर प्रायः प्रिंट मीडिया अब खामोश होने लगा है। जो कुछ संगीत की महफिलों की ‘रिव्यूज’ आ रही हैं वे प्रायः सतही हैं। कार्यक्रम की केवल रिपोर्ट भर दे दी जाती है। यथा- ‘‘ इसमें फलाँ कलाकार ने, फलाँ दिन, फलाँ राग, फलाँ ताल में गाई। उसमें उन्होंने आलाप भी लिया और तानें भी ली।’’ मानो राग में आलाप और तान लेकर कलाकार ने कोई बड़ा विशिष्ट काम कर दिया । ध्यातव्य है कि राग गायकी में आलाप और तानें लेना लाजिम है, यह उसकी प्रकृति है विशेषता नहीं। ज़ाहिर है इसमें लिखने वाले के ऊपर ही सारा दोष नहीं मढा जा सकता। ‘कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी , यूँही कोई बेवफा नहीं होता।‘
दरअसल हम पत्रकारिता के छात्रों को राजनीति और बाजार का ज्ञान तो दे रहे हैं किंतु उसमी अपनी संस्कृति और जातीय परंपरा को कोई बोध विकसित नहीं कर रहे। ग्वालियर घराने के पंडित परिवार परम्परा के प्रतिनिधि गायक पं- एल- के पंडित जी का मत है कि पत्रकारों को ट्रेनिंग के दौरान ही जैसे फिल्म समीक्षा हेतु अलग से पढाया जाता है उसी तरह शास्त्रीय व पारंपरिक कलाओं का भी ज्ञान दिया जाना चाहिए। इतना ही नहीं विशेज्ञता के आधार पर इसे और भी गहन किया जा सकता है। मसलन शास़्त्रीय संगीत की आलोचना हेतु शास्त्रीय संगीत का ज्ञान दिया जाना चाहिए। इससे अखबारों में उसका ‘रिव्यू’ व लेख प्रमाणिक भी होगा और व्यावहारिक भी।
यदि रा-ना-वि- के ‘थियेटर फेस्टिवल’ को छोड़ दें तो साल भर होने वाले हजारों नाट्य-मंचनों के बार में भूलवश ही कभी कोई ‘रिपोर्ट’ या ‘रिव्यू’ दिखाई-सुनाई देती है। नाटकों से आम प्रेक्षकों को काफी हद तक जोड़ा जा सकता था यदि इसमें मीडिया का समर्थन होता।
आज दिल्ली प्रदेश में ही छोटी-बड़ी दो सौ से अधिक नाट्य-संस्थाएं काम कर रही हैं। मण्डी हाउस और इंडिया हेबिटेट सेंटर के अलावा अन्य अप्रचलित सांस्कृतिक केन्द्रों पर इनके मंचन होते रहते हैं। एक बहुत सीमित वर्ग है जो इन्हें यदा-कदा देखता रहता है। किंतु ‘मास’ इससे नहीं जुड़ा, क्योंकि मीडिया का साथ नहीं है। यदि अखबार और सभी न्यूज-चैनल्स यह तय कर लें कि उन्हें प्रतिदिन एक निश्चित समय पारंपरिक व सांस्कृतिक हलचलों को देना है तो लोगों की रूचियों का संवर्धन अवश्य होगा।
साहित्य से भी मीडिया का सम्बंध दूर का हाता जा रहा है। इलेक्ट्रिक मीडिया से उसका संबंध उतना स्वाभाविक है भी नहीं किंतु अखबारों से तो साहित्य का गहरा रिश्ता रहा है। हिन्दी के कई बड़े साहित्यकार स्वयं किसी न किसी बड़े अखबार से जुड़े हुए थे। अखबारों में अब साहित्यिक पन्ने सिमटते जा रहे हैं। कहीं तो गायब होते जा रहे हैं। प्रति दिन से सप्ताह में दो दिन, फिर सप्ताह में एक दिन पूरा सप्लीमेंट और अब सप्ताह में एक दिन कभी एक तो कभी आधा पेज। कुल मिलाकर अखबारों से साहित्य को निष्कासित सा कर दिया गया। यह किस तरह प्रक्रियाबद्ध तरीके से हुआ इसपर अखबारों को आधार बनाकर अलग से शोध किया जा सकता है। बहुर रोचक तथ्य सामने आएँगे।
संगीत, साहित्य और रंगमंच से मीडिया की इस दूरी को क्या समझा जाए? क्या इसे मीडिया की लापरवाही समझी जाए या उसकी मजबूरी। हम देख पा रहे हैं कि आज सभी प्रमुख मीडिया हाउसिज बड़े कोरपोरेट जगत के हैं। इस जगत के लिए समाज में मनुष्य नहीं उपभोक्ता बसता है। यह मूल्यों को नहीं कीमतों को प्रश्रय देता है। और इसके लिए मीडिया केवल एक दुकान भर है जहाँ खबरों का व्यवसाय होता है। ऐसे मीडिया समूहों से किसी भी तरह की जवाबदेही की उम्मीद करना संभवतः अतिरिक्त आशावादिता है। मगर इसी आशावादिता में हमें संभावनाओं को खोजना होगा।
डॉ गुंजन कुमार झा
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