कृष्णा सोबती : सिक्का बदल गया
डॉ गुंजन कुमार झा
एक लेखक : एक कहानी, संक्षिप्तिका-2
कृष्णा सोबती : सिक्का बदल गया
आधुनिक हिन्दी कहानीकारों में नयी कहानी के महत्त्वपूर्ण कथाकारों में कृष्णा सोबती का नाम एहतराम के साथ लिया जाता है।
मूलतः पंजाब की रहने वाली कृष्णा सोबती ने अपनी लम्बी साहित्यिक यात्रा में अनेक उपन्यासों एवं कहानियों की रचना की है। उनका पहला उपन्यास सन् 1958 में प्रकाशित हुआ जो पंजाब की पृष्ठभूमि पर आधारित है। उसके बाद क्रमशः ‘सूरजमुखी अंधेरे के(1972)’ ‘जिंदगीनामा’(1979), ‘दिलोदानिश’(1993) पर्याप्त चर्चित रहे। मित्रे मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, बादलों के घेरे, ऐ लड़की,दिलो-दानिश, ‘हम हशमत’ और ‘समय सरगम’ आदि रचनाओं में कृष्णा सोबती नई बानगी के साथ प्रस्तुत होती हैं।
कृष्णा सोबती की कहानियों में भाव-विचार के स्तर पर कई नए पहलुओं को उद्घाटित किया गया है। कमलेश्वर के अनुसार –
‘‘आपकी कहानियों में सदियों को आवाज देती एक सांस्कृतिक गूंज है, जो अतीत मोह से ग्रस्त नहीं है वरन् आधुनिक समय के सीमांतों पर सक्रिय है- वे सीमांत जो हिन्दूकुश पहाड़, पामीर के पठार और यूराल की बंजर धरती से भी जुड़े हैं और आज के लहुलुहान मनुष्य की आंतरिक और खण्डित सच्चाई की सभ्यता के सीमांत भी हैं। ’’
सोबती जी की कहानियों में वस्तु और शिल्प का संयोजन इस प्रकार होता है कि वह पाठक की मानवीय संवेदना और अनुभूति को झकझोर देती है। भावना और यथार्थ का स्वाभाविक समन्वय इनकी विशेपता है।
भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी के दौर में राजनीति की बिसात पर इंसानी संवेदनाओं के मूल्यहीन हो जाने की पीड़ा को ‘सिक्का बदल गया ’ में महसूस किया जा सकता है। सिक्के के बदल जाने की प्रतीकात्मक स्थिति को आधार बनाकर लेखिका ने पूरी कहानी का चुस्त ताना-बाना बुना है।
साहनी एक ऐसी महिला है जिसकी पुश्तैनी जमीन बँटवारे के दौरान पाकिस्तान के हिस्से में चली गयी है। वह केवल ज़मीन का एक टुकड़ा नहीं था बल्कि उसके साथ उसके पति साहजी व परिवार की तमाम स्मृतियां जुडी हुई हैं। साहनी को वह सब छोड़कर हिंदुस्तान आना पड़ेगा। इस वापस आने के क्रम में किस तरह उसके अपने चाहकर भी अपने नहीं रह जाते। किस तरह सुख-दुख के संगी खून के प्यासे हो जाते हैं- इसकी प्रतिध्वनि इस कहानी में सुनाई पड़ती है। वही शेरा जो कल तक उसका वफादार था आज उसे लूटने की सोच रहा है। मगर इतनी नृशंस साच के बावजूद कहानी में भयावहता सामने नहीं आती। पृष्ठभूमि में रहती है। कमलेश्वर लिखते हैं-
‘‘ कहानी की खूबी यह है कि बातें इधर-उधर की होती हैं पर उनमें गंध आती है दूर कहीं भावनाओं के कुचले जाने की , उबलते हृदयों की , षडयंत्रों की।’’
कृष्णा सोबती ने हिन्दी कथा भाषा को एक विलक्षण ताजगी दी है। भाषा की सजीव प्रान्जलता और सम्प्रेष्ण की सादगी ने अनेक पेचीदे और उलझे सत्यों से हमारा साक्षात्कार कराया है। ‘सिक्का बदल गया’ कहानी में वातावरण और पृष्ठभूमि के अनुरूप ही पंजाबी और उर्दू मिश्रित भाषा का प्रयोग किया गया है जो इसे जीवंत बनाता है।
डॉ गुंजन कुमार झा
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