‘मीडिया’ का बदलता स्वरुप और ‘न्यू मीडिया’
डॉ गुंजन कुमार झा
मनुष्य और मनुष्य के बीच संवाद और सूचना का आदान-प्रदान होता रहे, यह मानवीय सभ्यता की केन्द्रीय चिंताओं में रही है। इसलिए भाषा और संप्रेषण के माध्यमों का जन्म हुआ। तकनीक ने मनुष्य की शारीरिक उपस्थिति को अनावश्यक बना दिया। संपर्क और सूचनाओं का आदान-प्रदान अब तकनीक के माध्यम से सरल और सहज हो गया।
कलम के जरिए संवाद की स्थिति सदियों से बनी रही है। पत्र के माध्यम से इसका आरम्भ मानव सभ्यता के बिल्कुल प्रारम्भिक दौर से बदस्तूर जारी है। पहले ताम्र पत्रें पर, फिर कागजो पर, फिर टाइप राइटर व कम्प्यूटर के माध्यम से स्क्रीन पर । इस तरह हस्त-लेखन से डिजिटलाइज्ड होने तक – लेखन कार्य को संपर्क एवं सूचना-प्रसारण का एक माकूल जरिया माना जाता रहा है।
कम्यूटर और मोबाइल के साथ इंटरनेट और सेटेलाइट चैनल्स के माध्यम से आज दुनिया दूरी को धता बताकर मिनटों में संपर्क साधने की शक्ति से लबरेज है। कह सकते हैं कि सूचना-प्रसार या कम्यूनिकेशन के एक बेहद क्रांतिकारी युग में हम जी रहे हैं।
मनुष्य सभ्यता में संवाद की स्थिति जितनी आवश्यक थी उतनी ही आवश्यकता थी एक व्यवस्था की । एक ऐसी व्यवस्था की, जो उसको सुरक्षा प्रदान करे । एक व्यवस्था जो उसकी रुचियों व सुविधाओं का ख्याल करते हुए उसका विकास करे। यानी एक प्रशासनिक व्यवस्था। शासन-प्रशासन करने के लिए क्षेत्र के एक कोने से दूसरे कोने तक पूरी जानकारी चाहिए। इस हेतु सूचनाओं का महत्त्व अत्यधिक था। पहले जहाँ राजे-राजवाड़ों के यहाँ अलग से सन्देश एवं गुप्तचर विभाग हुआ करता था वहीं अंग्रेजी शासन काल में अंग्रेजों ने ‘पोस्ट’ व ‘तार’ के माध्यम से संपर्क का एक पूरा जाल देश भर में फैलाया। इसके निहितार्थ यही थे कि वे समूचे भारत पर नजर रख सकें और विद्रोह आदि की स्थितियों में समय रहते सशस्त्र बल भेज सकें।
उन्नीसवीं सदी में नवजागरण, समाज-सुधार और गांधी के नेतृत्व मे हुए स्वतंत्रता-आंदोलन में मीडिया ने जबर्दस्त भूमिका निभाई। स्वतंत्रता के बाद गणतंत्र की जिस शासन-व्यवस्स्था को देश ने स्वीकार किया उसमें प्रेस व मीडिया को लेाकतंत्र के चौथे स्तंभ या खम्भे के रूप में देखा गया। और इसके महत्त्व को समझा गया।
मीडिया ने बदलते दौर में अपने कई रूप इख्तियार किए हैं। प्रिंट मीडिया के बाद इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने खबरों को जनता तक पहुँचाने की एक नई तहजीब विकसित की। ‘इंफोटेनमेंट’ चैनल्स की बाढ ने लोकप्रियता के पैमाने पर तो खुद को साबित किया ही, उपयोगिता के पैमाने पर भी इनको खारिज नहीं किया जा सकता। कई भ्रष्टाचार, अन्याय और शोषण के खबरों का एक हद तक ‘बायस’ प्रसारण करने के बावजूद इन्हें समाज के समक्ष उजागर करने में इन खबरिया चैनल्स की जबर्दस्त भूमिका रही है।
प्रिंट एवं इलेक्ट्रिोनिक माध्यमों में जो पत्रकारिता होती रही है वह एक निश्चित समूह द्वारा संचालित होती रही है। और ‘फीड बैक’ की महत्ता अपनी ‘स्लोनेस’ के कारण कम रही है। इसमें यदि प्राप्तकर्ता (प्रेक्षक) कोई ‘फीड बैक’ देता भी है तो उसे प्रकाशित या प्रसारित करने, न करने का अधिकार मीडिया हाउस को होता है। इसलिए इन माध्यमों में उपभोक्ता या पाठक/प्रेक्षक वर्ग की भूमिका न के बराबर रहती है। इसके सामानांतर अब एक नए तरह के संचार ने अपनी पहुँच में अभूतपूर्व इजाफा किया है। इसे न्यू मीडिया कहा जा रहा है। न्यू मीडिया उन उपकरणों का मीडिया है जो प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से आगे की चीज़ है। मूलतः यह इंटरनेट की दें है जो सोशल मीडिया और एनी प्लेटफार्म्स पर उपलब्ध होने के सात अपनी असीमित क्षमताओं से लबरेज़ है। इसकी लोकप्रियता में ‘फीड बैक’ की ज़बरदस्त भूमिका है। इंटरनेट ने एक ऐसा जाल बुना जिसने सूचनाओं के आदान-प्रदान की पूरी प्रक्रिया ही बदल दी। सैकेण्ड्स में लीखित रूप में सूचनाएं प्रसारित। इस निर्बाध त्वरित प्रसारण ने सूचनाओं के आदान-प्रदान के एक नए युग से हमारा परिचय कराया।
मीडिया के दो रूप हैं- एक पारम्परिक मीडिया और दूसरा नवीन मीडिया या न्यू मीडिया । निश्चित रूप से ये दोनों ही अवधारणाएँ गतिमान है और इनकी कोई एक रूढ़ परिभाषा नहीं दी जा सकती। क्योंकि आज जो ‘न्यू’ है, कल वह पुराना जाएगा। जिसे आज हम पारम्परिक मीडया कह रहे हैं। वह कभी ‘न्यू मीडिया’ थी। मसलन इलेक्ट्रोनिक मीडिया विशेषकर टेलीविजन पत्रकारिता ने जब अपने पैर पसारने शुरू किए तो वह मीडिया का नया अवतार मानी गयी। उस दौर में वह ‘न्यू मीडिया था’ यद्यपि उसे इस नाम से संबोधित नहीं किया गया। किंतु वक्त के इस दौर में अब हम एक और कदम आगे बढ़ गए हैं। अब इन्टरनेट ने हमें सबकुछ को पुनः परिभाषित कने और नए अर्थ व संबोधन विकसित करने के अवसर दिए हैं।
इंटरनेट के ‘अपलोडिंग’ और ‘डाउनलोडिंग’ सिस्टम ने संचार और प्रसारण के सभी माध्यमों को जबर्दस्त चुनौती दी है। पुराने सारे ढाँचे इंटरनेट के तूफान में धूल-धूसरित होते दिख रहे हैं। यदि हम मनोरंजन के साधनों को देखें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। ज्यादा समय नहीं बीते जब हम फिल्में वी-सी-आर- पर देखा करते थे और संगीत कैसेट पर सुना करते थे। फिर कम्प्यूटर परिचालित ‘कॉम्पेक्ट डिस्क’ यानी ‘सी-डी-’ ने ‘रील’ से बनी पूरी ‘कैसेट’ परंपरा को खत्म कर दिया। ‘रीलों’ की एक पूरी दुनियाँ मानो समाप्त हो गयी। किंतु कुछ ही समय में इंटरनेट ने सी-डी- की उपयोगिता पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं। डाटा कार्ड, पेन ड्राइव व कम्प्यूटर में ‘डाउनलोडिंग’ के जरिए ही सूचना, ज्ञान और मनोरंजन के सभी द्रव्य सहज प्राप्त हैं। कौन सा समाचार, कौन सा तथ्य, कौन सा गाना, कौन सी फिल्म, कौन सा दृश्य- सबकुछ एक ‘क्लिक’ की दूरी पर स्थित है। इससे अब ‘सी-डी-’ की दुनियाँ भी समाप्तप्राय है और मनोरंजन का सारा व्यापार इंटरनेट के माध्यम से परिचालित होने होने की और तेज़ी से अग्रसर है।
इस ‘डाउनलोडी’ संस्कृति ने निश्चित रूप से कला रसिकों के ‘टेस्ट’ को भी प्रभावित किया है। अब गीत को पूरा सुनने के बजाय मुखड़ा सुनने से ही काम चल रहा है। पूरी चीज देखने का जो इत्मिनान था वह खत्म हो गया है। अब सबकुछ छाँटा, ‘कॉम्पेक्ट’ और ‘फटाफट’।
ज्यादा समय नहीं बीता जब ‘हेलो ट्यून’ की आंधी ने तमाम संगीत कम्पनियों को धूल चटा दिया था। एक समय संगीत से सर्वाधिक कमाई करने वाली कम्पनी- संगीत की पुरानी कम्पनियाँ – टी-सिरीज, टिप्स, वीनस, एच-एम-वी-, सिमारो, टाइम्स म्यूजिक, युनिवर्सल आदि में से कोई भी नहीं अपितु मोबाइल-नेटवर्क कंपनी ‘एयरटेल’ थी। यह एक नई तरह की संस्कृति का आग़ाज़ थी। आज हम उसका उफान देख रहे हैं।
कमोबेश यही स्थिति फिल्म व अन्य मनोरंजन के साधनों पर भी लागू होती है। टेलीविजन को ही लें। नवीन आँकड़े बताते हैं कि लोगों का ध्यान अब टी-वी- के बजाय इंटरनेट की ओर बढ रहा है। प्रेक्षक अपना मनपसंद कार्यक्रम इंटरनेट पर ही देख लेते हैं। इससे टेलीविजन दर्शकों की शहरी जनसंख्या की बढोत्तरी कम हुई है। जाहिर है वह समय दूर नहीं जब टेलीविजन के स्थान पर इंटरनेट का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा।
इंटरनेट की इस केन्द्रीयता ने मीडिया को बुनियादी तौर पर प्रभावित किया है। वेब पत्रकारिता ने कागजो से लेकर प्रिंटिंग तक का सारा व्यापार खत्म कर दिया है। इससे बीच के सारे तामझाम समाप्त हो गए है। पाठक हर खबर व समीक्षा पर अपने विचार व राय तत्काल प्रकट कर सकता है और तत्काल ही उत्तर भी पा सकता है। पहले इतनी सी प्रक्रिया में एक से दो महीने तक का समय लग ही जाता था जो अब सैकेण्ड्स का काम हो गया है।
वेब पत्रकारिता में यह तात्कालिकता इसकी सबसे बड़ी ताकत है। और यही ताकत इसकी कमजोरी भी है। इस फटाफटवादिता में एक आपाधापी व्याप्त रहती है। जिसमें न तो पाठक के पास पढने का समय है और न ही लेखक के पास इत्मिनान से लिखने का समय है। ऐसे में गम्भीरता व स्तरीयता को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। इसलिए अपनी इस प्रवृति के कारण यह समाचारों के प्रसारण में तो अहमियत रखता है किंतु विचारोत्तेजक लेखों व साहित्यक पत्रकारिता में इसका फटाफटवाद बड़ी चुनौती पेश करता है।
समाचार के लिए प्रिंट माध्यमों को अब तक एक आदर्श माध्यम के रूप में देख जाता रहा है। इलेक्ट्रिोनिक माध्यम के समाचारों को हम अपने अनुसार दुबारा-तिबारा नहीं पढ सकते । एक समाचार प्रसारित हो गया तो वह अपनी एक निश्चित अवधि के बाद ही ‘रिपीट’ होगा किंतु अखबार को जब चाहे उलट-पलट कर इच्छित पृष्ठ या समाचार पढा जा सकता है। साथ ही ‘लाइव’ और ‘तेज’ समाचार दिखाने की होड़ मे चैनल्स प्रायः अधूरे और अपुष्ट समाचार प्रस्तुत करते रहते हैं – जबकि पूरे दिन की खबरों को देर रात तक देखने-परखने और समीक्षा करने के बाद प्रकाशित करने के कारण प्रिंट मीडिया की खबरें अधिक पुष्ट मानी जाती हैं। साथ ही लिखित होने के कारण यह अधिक विश्वसनीय भी लगता। यानी लिखित होना प्रिंट माध्यमों के लिए एक बड़ी शक्ति है। इस बिंदु पर वेब पत्रकारिता भी एक लिखित माध्यम है जो दृश्यता और श्रव्यता का अतिरिक्त सामर्थ्य भी रखता है इसलिए इसमें कोई शक नहीं अपनी विस्तार के साथ यह प्रिंट मीडिया पर बहुत भारी पड़ने वाला है।
वेब पत्रकारिता का सबसे चुनौतीपूर्ण पहलू यह है कि यह अपने चरित्र में अंग्रेजी दाँ है। एक शोध के अनुसार विश्व के इंटरनेट उपभोक्ताओं में सबसे अधिक लोग अंगेजी भाषा का प्रयोग करते हैं। दूसरे नंबर पर चाइनीज है। उसके बाद क्रमशः स्पेनिश, जापानी, पुर्तगाली,जर्मन, अरबी, फ्रेंच, रूसी और कोरियन आदि भाषाओं का नंबर आता है। हिंदी इनके आस-पास भी नहीं है। हिंदी पढने और बोलने-चालने वाली इतनी बड़ी आबादी के बावजूद भारत में हिंदी में इंटरनेट उपयोग करने वालों का आंकड़ा 0-1 प्रतिशत से भी कम है। इसलिए अभी तक वेब पत्रकारिता में जो हिन्दी की उपस्थिति है वह उत्साहवर्धक तो कतई नहीं है। जाहिर है भारत का आम इंटरनेट उपभोक्ता भाषा के रूप में अंग्रेजी का ही उपयोग करता है। हिंदी का उपयोग सामान्यतः हिन्दी के उच्च शिक्षार्थियों तक सीमित है।
डॉ गुंजन कुमार झा
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