भारतेंदु हरिश्चंद्र और संगीत
डॉ गुंजन कुमार झा
साहित्य में संगीत की बात करने वाला एक छोटा सा वर्ग है. साहित्य का कथित गंभीर वर्ग उन्हें ‘सीरियसली’ नहीं लेता. उन्हें लगता है जो हमेशा तनाव की बात करे वो साहित्यकार, तनाव का शमन करने वाला काहे का साहित्यकार.
नाटक में भी जो ब्रेख्त , स्तानिस्लाव्स्की की बात करे , बर्नार्ड शा की बात करे और दृश्यबंध के रूप में ऐसा प्रतीक स्टेज पर दे मारे कि नाटक विभाग का प्रोफ़ेसर या ‘ग्रांट’ दिलवा सकने की ताक़त रखने वाला कोई अकादमिक, कवि , लेखक उस प्रतीक को समझकर उसकी पांच-पेजी व्याख्या कर दे . अगले दिन छपवा दे जिसकी ‘कटिंग’ रखकर निर्देशक आगे के प्रयोजन-प्रस्ताव बना सके तब वह हुआ नाटक . कोई संगीत की बात करे या नाटक में नाच-गाना हो तो काहे का साहित्य. यों अपवाद दोनों जगह मौजूद हैं. एक जगह अशोक वाजपेयी दो दूसरी जगह कारंत साहब.
हिंदी का साहित्यकार सर्वज्ञानी होने का विश्वासी होता है. संगीत, चित्रकला, मोनोविज्ञान, राजनीती . इतिहास सब का स्वयंभू विशेषज्ञ हो जाता है. किन्तु इन सभी विषयों के साधक विशेषज्ञों जात-बाहर मानता है. रामविलास शर्मा और उनसे पहले की पीढ़ि के साधक इसके अपवाद हैं जिनकी एक अंतरविषयी पहचान उनकी साधना और मेहनत के बल पर थी. आचार्य शुक्ल से लेकर रामविलास शर्मा तक अनेक ऐसे साहित्येतिहासकार और आलोचक हुए जिन्होंने अपने विषय-क्षेत्र में संगीत को भी शामिल किया किन्तु हिन्दी विभाग का विद्यार्थी मजाल है कि उसके बारे में जान ले. वह तो गवैयों और नचनियों की बातें हैं.
साहित्य के ‘प्रोफेशनल’ टापू के बाहर जो एक समंदर सी दुनियां है उसमें साहित्य और संगीत को एक दुसरे का पूरक मानने की धारणा व्याप्त है. यह एक अलग तरह की समझ है जो उन्हें पढ़कर हासिल नहीं हुई, जीकर हासिल हुई है. जिया हुआ सत्य ही सांस लेता हुआ अनुभव है.
आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल के अनेक कवियों को संगीत और साहित्य दोनों का विशेषज्ञ माना जाता है। यह मानना , मानने तक ही सीमित है. इसपर शोधपरक अध्ययन का नितांत आभाव है कि जो साहित्यकार संगीतकार भी माने गए वे संगीत की कितनी समझ रखने वाले थे? किस तरह के संगीत के विशेषग्य थे? हिन्दी के पुरोधा साहित्यकार और आधुनिक हिन्दी नाटक के जनक माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए.
तथ्यों के सामान्य अवलोकन और हिन्दी साहित्येतिहास पर सरसरी निगाह डालने पर हम यह पाते हैं कि हिन्दी साहित्यकारों में ऐसे व्यक्तित्व कम ही हुए हैं जिनका कि इन दोनों क्षेत्रों में विशेष दखल रहा है। हाँ, ऐसे साहित्यकार अवश्य हुए हैं जो संगीत की सामान्य या विशेष समझ रखने वाले हुए हैं संगीत प्रेमी रहे हैं। शौक़ के रूप में थोडा-बहुत सीखा या सीखने की चेष्टा भी की. इनकी संख्या सीमित है किन्तु परम्परा विस्तृत है. भारतेन्दु उस परंपरा में विशिष्ट स्थान रखते हैं।
भारतेन्दु गीत-संगीत को आम-आदमी के ह्रदय के साथ जोड़कर देखते थे और जिस आम-आदमी को वे जगाना चाहते थे उसके लिए वह उसके हृदय तक पहुँचना जरूरी समझते थे. इसके लिए उन्होंने संगीत को सबसे आसान और कारगर जरिया माना। उनके नाटकों का गीत-संगीत से परिपूर्ण होने का कारण भी उनकी गीत-संगीत संबंद्धी यही सोच है।
भारतेंदु संगीत का उपयोग, भारतवर्ष की उन्नति के लिए किए गए उपायों में प्रमुख मानते थे। उन्होंने लिखा-
‘‘यह सब लोग जानते हैं कि जो बात साधारण लोगों में फैलेगी उसी का प्रचार सार्वदेशिक होगा और यह भी विदित है कि जितना ग्रामगीत शीघ्र फैलते हैं और जितना काव्य को संगीत द्वारा सुनकर चित्त पर प्रभाव होता है, उतना साधारण शिक्षा से नहीं होता। साधारण लोगों के चित्त पर भी इन बातों का अंकुर जमाने को इस प्रकार से जो संगीत फैलाया जाय तो बहुत कुछ संस्कार बदल जाने की आशा है। इसी हेतु मेरी इच्छा है कि मैं ऐसे-ऐसे गीतों का संग्रह करूँ और उनको छोटी-छोटी पुस्तकों में मुद्रित करूँ —ऐसे गीत बहुत छोटे-छोटे छंदों में और साधारण भाषा में बने, वरंच गँवारी भाषाओं और स्त्रियों की भाषा में विशेष हों। कजली, ठुमरी, खेमटा, कहरवा, अद्धा, चैती, होली, साँझी, लंबे, लावनी, जाँते के गीत, बिरहा, चनैनी, गजल इत्यादि ग्रामगीतों में इनका प्रचार हो और सब देश की भाषाओं में इसी अनुसार हो, अर्थात् पंजाब में पंजाबी, बुन्देलखंड में बुन्देलखण्डी, बिहार में बिहारी, ऐसे जिन देशों में जिस भाषा का प्रचार हो उसी भाषा में ये गीत बनें।’’
भारतेंदु गीत-संगीत का उपयोग जन-जागरण के महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक महा-आंदोलन के रूप में करना चाहते थे। संगीत के प्रति इसी महती सोच ने उन्हें संगीत को समझने और उसका ज्ञान अर्जित करने के लिए भी प्रेरित किया। थियेटर वाले थे, सो भला आत्मविश्वास की क्या कमी। कुछ संगीत की सामान्य जानकारी और कुछ आत्मविश्वास से लबरेज व्यक्तित्व भारतेंदु ‘प्राफेशनल’ कलाकारों की भी नुक्ताचीं से गुरेज नहीं करते थे। कामेश्वरनाथ मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘काशी की संगीत परंपरा’ में ऐसी ही एक घटना का जिक्र किया है –
‘‘भारतेन्दुजी की उपस्थिति में एक व्यक्तिगत संगीत महफिल में काशी की अपने युग की अनुपम गायिका-नर्तकी ‘बड़ी मैना’ किसी पद के गायन पर अत्यन्त सुन्दर भाव के साथ नृत्य द्वारा उक्त पद को साकार कर रही थी। उपस्थित महफिल के श्रोता बड़ी तन्मयता से नृत्य-संगीत का आनन्द ले रहे थे, लेकिन भारतेन्दुजी के मन में कल्पना उठी कि इस पद के शाब्दिक अर्थ को ध्यान में रखकर अन्य प्रकार से भाव व्यक्त करके इस आनन्द को द्विगणित किया जा सकता है। भारतेन्दु इस विचार के आते ही अपने को रोक नहीं पाये और ‘बड़ी मैना’ से उसी प्रकार का भाव दिखाने की जिज्ञासा प्रकट की। भरी महफिल में ‘बड़ी मैना’ को भारतेन्दुजी की फरमाइश अच्छी नहीं लगी और उन्होंने व्यंग्यात्मक ढंग से कहा- ‘‘हुजूर कह देना सरल होता है, करके दिखाना कठिन होता है।‘’ यह सुनकर भारतेन्दुजी का कलाकार हृदय स्वाभिमान से भर उठा और भरी महफिल में भारतेन्दुजी ने पैरों में घुँघरू बांधकर तत्काल अपने मन के भावों को इतनी सहजता से करके दिखाया, कि ‘बड़ी मैना’ सहित सारी महफिल अवाक रह गई और ‘बड़ी मैना’ ने अपने कहे की माफी उसी समय भारतेन्दुजी से मांगी।’’
सामान्य जानकारी और आत्मविश्वास के इसी सम्मिलन ने भारतेन्दु को शास्त्रीय संगीत के ‘शास्त्र’ पर लिखने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने ‘संगीत सार’ नामक वृहत् लेख लिखा जो ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ में छपा और बाद में पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने तद्युगीन संगीत की स्थिति प्रगट करते हुए उसके संरक्षण व संवर्धन हेतु अपने विचार भी प्रकट किए हैं। आश्चर्य होता है जब वह अपने और युग द्वारा पसन्द की जाने वाली कजरी और ठुमरी से इतर विशुद्ध शास्त्रीय संगीत की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं और उसकी अवनति पर अफसोस जताते हैं. लिखते हैं –
‘‘भारतवर्ष की सब विधाओं के साथ यथाक्रम संगीत का भी लोप हो गया। यह गान शास्त्र हमारे यहाँ इतना आदरणीय है कि सामवेद के मंत्र मात्र गाए जाते हैं। हमारे यहाँ वरंच यह कहावत प्रसिद्ध है ‘प्रथम नाद तब वेद’। अब भारतवर्ष का सम्पूर्ण संगीत केवल कजरी, ठुमरी पर आ रहा है। तथापि प्राचीन काल में यह शास्त्र कितना गंभीर था यह हम इस लेख में दिखलाएंगे।‘’
अपने इस लेख में भारतेंदु कमोबेश शास्त्रीय ग्रन्थों से ही सारी बातें कहते हैं किंतु यह लेख इस बात का प्रमाण है कि भारतेंदु ने संगीत का शास्त्रीय ही सही, अध्ययन तो किया था। संगीत की परिभाषा जो कि ‘संगीत रत्नाकर’ में निम्न दी गई है-
‘’गीत, वाद्यं तथा नृत्तं त्रयं संगीत मुच्यते।‘’ अर्थात- गीत, वाद्य और नृत्य ये तीनों मिलकर संगीत कहलाते हैं।
भारतेंदु इसमें एक और चीज जोड़ देते हैं – बताना । वे लिखते हैं –
‘’गाना, बजाना, बताना और नाचना इसके समुच्चय को संगीत कहते हैं।’’
यों यहाँ पर ‘बताना’ जोड़ने से परिभाषा को किसी प्रकार का बल नहीं मिलता। इतना कहा जा सकता है कि ‘बताना’ से उनका अर्थ विशिष्ट रूप में बताना (अभिनय आदि करना) होगा. इस रूप में सम्भवतः वे नाटक को भी संगीत की परिभाषा के अन्तर्गत लाना चाहते थे।
आगे उन्होंने संगीत के चार मतों, सात अध्यायों (स्वर, राग, ताल, नृत्य, भाव, कोक और हस्त) धातु-मातु, निबद्ध-अनिबद्ध गीत-भेद, गाने-बजाने के दो प्रकार (ध्वन्यात्मक व रागात्मक) आदि की चर्चा की है। सुरों में परंपरानुसार ही वे ‘सा’ की उत्पत्ति मोर से, ‘रे’ की गउ से, ‘ग’ की बकरे से, ‘म’ की क्रौंच से, ‘प’ की कोयल से, ‘ध’ की अश्व से व ‘नि’ की हाथी से मानते हैं। तमाम मतों के अनुसार रागों की चर्चा, ग्राम मूर्च्छना, तान, श्रुति की चर्चा करते हुए भारतेंदु ने संगीत में अन्वेषण की कमी पर भी चिंता जाहिर की है –
‘कोई अन्वेषण करने वाला हुआ नहीं, जो ग्रन्थकारों को मिला व उन्होंने सुना, लिख दिया।’’
ताल के विषय में उन्होंने लिखा है –
‘महादेवजी के नृत्य तांडव व पार्वतीजी के नृत्य लास्य का प्रथमाक्षर लेकर ‘ताल’ बना है।’ आगे नृत्य भाव के भेदोपभेदों की चर्चा की गई है। भारतेंदु यह उल्लेखित करना नहीं भूलते कि उन्होंने ये बातें संगीत दामोदर, संगीत कल्पतरु, संगीत सार आदि के आधार पर लिखी है।
भारतेंदु इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि संगीतज्ञों में एकमत नहीं है और उनके अभिमान के कारण कोई महती कार्य नहीं हो रहा है. लिखते हैं –
‘’कोई बंधा-बंधाया नियम नहीं है। जितने इस विद्या को जानने वाले हैं, अपने अभिमान में मत्त हैं। कोई ऐसा नियम नहीं कि जिसके अनुसार सब चलें। यही कारण है कि रागों के पत्थर पिघलाने इत्यादि के प्रभाव लोप हो गये।‘’
रागों के प्रभाव के कम होने का दोष वे जैनियों और मुसलमानों की कट्टरता को देते हैं और मानते हैं कि इसी कारण से ‘‘केवल गुरु मुख श्रुति पर यह विद्या रही। किसी ने कभी इसको सुगम रीति पर न लिखा कि उसे देखकर वही काम दूसरे कर सके।’’ अंततः वह सलाह देते हैं कि-
“सब जानकार लोग मिलकर एक बेर इस लुप्त हुए शास्त्र का भली भांति मंथन करके इसकी एक उज्ज्वल परिपाटी बना डालें। नहीं तो यह शास्त्र कुछ दिनों में लोप हो जाएगा। और हिन्दुस्तानी अमीरों को चाहिए कि वारवधु की सुंदरता ही पर इस विद्या की इतिश्री न करें, कुछ आगे भी बढ़ें।’’
शुरू से लेकर आखिर तक भारतेंदु का संगीत सम्बन्धी यह सारा विवेचन और सारी चिंताएं अटलांटिक महासागर की तस्वीर देखकर उसके ठंडेपन का वर्णन करने जैसा है। ‘संगीत-सार’ नामक यह लेख केवल एक परिपाटी के रूप में दिखता है. बावजूद इसके यह सदैव अप्रभावी नहीं है. कई बार वे सच्ची लगती हैं और प्रभावित भी करती हैं।
इस प्रकार भले ही भारतेंदु ने संगीत की व्यावहारिक शिक्षा नहीं ली और वे बड़े संगीत चिन्तक भी नहीं थे किंतु संगीत की महत्ता को वे शिरोधार्य करते थे और उसकी आधारभूत जानकारी भी उन्हें थी। डॉ मुकेश गर्ग के शब्दों में कहें तो अपनी इसी सोच और समझ के बल पर ही भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने पारसी थियेटर के सस्ते मनोरंजन प्रधान गीतों और ओछी शेरों-शायरी से मुक्ति की ओर नाटक को ले जाने का प्रयास किया। अपने साहित्यिक गीतों के जरिये नाटक में उन्होंने एक ओर ठुमरी और गजल के माध्यम से उच्च कोटि के उपशास्त्रीय संगीत के लिए रास्ते खोले तो दूसरी ओर जन-संगीत को भी अवसर दिया।
डॉ गुंजन कुमार झा
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