शास्त्रीय संगीत का एक सामंत-साधक
डॉ गुंजन कुमार झा
सामंत शब्द सुनते ही एक अवधारणा मन विकसित हो जाती है. शोषण करने वाला. किसानों का खून चूसने वाला. औरतों को ग़ुलाम बनाए रखने वाला आदि. किन्तु सामंती व्यवस्था में भी कुछ सामंत ऐसे हुए जो कलाकार का ह्रदय रखते थे. वे बेशक सामंत थे किन्तु कला साधना में वे भक्त बन जाते थे. एक साधक, एक याचक, एक अपनी धुन में रमा रहने वाला कलाकार. ऐसे थे बिहार के पूर्णिया के बनैली स्टेट के सामंत श्री श्यामानंद सिंह . ज़मींदार थे, राजा का खून रगों में दौड़ता था किन्तु शास्त्रीय संगीत के अनन्य साधक थे. श्यामानंद सिंह यानी एक विनम्र और निवेदित व्यक्ति जिसने संगीत को ही अपना सर्वस्व माना.
बिहार हजारों सालों की सांस्कृतिक विरासत का केंट्रीय स्थल रहा है. नकारात्मक जातिवादी राजनीति और भौगोलिक सीमाओं के चलते यह राज्य आर्थिक मुआमलों में दशकों तक देश का सबसे पिछड़ा राज्य रहा किन्तु अपनी मेघा और अपनी ऐतिहासिक महत्ता के स्तर पर यह अखिल भारतीय सांकृतिक अस्मिता का केंद्र-बिंदु माना जाता रहा है. वेदों से उपजे , ईश्वर से सीधे संवाद करने और आध्यात्म को अपनी खोह में लिए हुए शास्त्रीय संगीत बेशक भक्ति का विषय रहा किन्तु इसका पालन पोषण खेतों और चरागाहों में नहीं महलों में हुआ , राजे-रजवाड़ों के आश्रय में ही हुआ. इस्लाम आगमन के पश्चात भारतीय और फ़ारसी संगीत के मिश्रण से गंगा-जमुनी संस्कृति के तौर पर जो संगीत विकसित हुआ वह हिन्दुस्तानी संगीत कहलाया. मूल आधार यहाँ का किन्तु जिसमें इस्लाम ने जिसमें बहुत कुछ जोड़ा. पृथ्वी राज चौहान को हराकर मुहम्मद गौरी ने अपने ग़ुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली की गद्दी पर बिठाया. उसके बाद करीब पांच सौ सालों की रस्सा-कस्सी के उपरांत मुग़लों के समय तक देश में एकछत्रीय सत्ता का विकास हो चला था. केंद्र दिल्ली था और उसके मातहत विभिन्न छोटे-छोटे राजे-रजवाड़े, ज़मींदार और सामंत. यह एक उर्वर माहौल संगीत और कलाओं के परिवर्धन और विकास के लिए.
केन्द्रीय शक्ति के रूप में दिल्ली में बैठे मुग़ल बादशाह के संरक्षण में सुल्ताओं, राजाओं और सामंतों के पास अब कोई बड़ा लक्ष्य रह नहीं गया था. सो ज़िन्दगी पद्माकर की इन पंक्तियों के हिसाब से चल रही थी. –
गुलगुली गिल में गलीचा है गुनीजन हैं
चांदनी है चिक है चिरागन की माला है.
कह पद्माकर त्यों गजक गिजा है सजी
सेज है सुराही हा सुरा है और प्याला है
तान तुक ताला है , बिनोद के रसाला है
सुबाला है दुसाला है बिसाला चित्रसाला है
शास्त्रीय संगीत का आध्यात्म जो भक्ति आन्दोलन के दौरान और अधिक पुख्ता रूप में मान्यता प्राप्त हो चला था. धीरे-धीरे हिंदी के रीतिकालीन परिवेश की शक्ल में ढल रहा थ. तानसेन जो अकबर के दरबार के नौ रत्नों में शामिल थे., तुलसी के लगभग समकालीन थे. देश का भक्ति युग शास्त्रीय संगीत के ध्रुवपद गायन का स्वर्ण युग था. ध्रुवपद में भक्ति के ही पद गाये जाते रहे हैं. जयदेव के गीतगोविन्दम की अष्टपदियों को गाने की एक सुदीर्घ परम्परा का सूत्रपात उसी समय हो चुका था. किन्तु छोटे-छोटे रजवाड़ों और सामंतों के संरक्षण में पलते शास्त्रीय संगीत में अब वैसी शास्त्रीयता के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह गया था. सो अब ख्याल गायकी और उसके बाद ठुमरी, दादरा के रूप में उपशास्त्रीय शैलियों का विकास होना शुरू हो गया था. लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह इसके पोषक-प्रणेता माने जाते हैं. शासक के रूप में बेहद कमज़ोर यह शासक संगीत पोषक और रसिक के रूप में संगीत में अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है.
कला की साधना विपन्नता की मिटटी में जन्म लेती है. अमीरियत कला रसिक बनाकर कला पोषक बना सकती है, कलाकार नहीं. किन्तु कुछ ऐसे कला रसिक और पोषक हुए जो स्वयं उच्च कोटि के कलाकार भी हुए. ऐसे लोगों में थे श्री श्यामनन्द सिंह . ये पूर्णिया के बनैली के सामंत थे. पूर्णिया जिले का ‘बनैली स्टेट’ संगीत और कला के संरक्षण और संवर्धन के लिए विशेष रूप से विख्यात रहा. इस स्टेट के आश्रय और प्रोत्साहन में अनेक विद्वानों और कलाकारों ने संगीत सेवा में अपना जीवन खपाया.
श्यामंनद सिंह का जन्म २७ जुलाई १९१६ को हुआ . इनके पिता पूर्णिया के बनैली स्टेट के राजा बहादुर कृत्यानंद सिंह थे. श्यामानंद सिंह केवल संगीत के राशिक और पोषक ही नहीं अपितु संगीत के ईमानदार और मेहनती साधक थे. उन्होंने बाकायदा गुरु-शिष्य परम्परा के तहत शास्त्रीय संगीत की शिक्षा-दीक्षा ली. संगीत की गंभीर और अनवरत साधना की . तब जाकर उन्हें रागदारी और उपशास्त्रीय गायन में सिद्धि प्राप्त हुई.
कहते हैं कि एक बार जब श्यामानंद जी अपनी कार से दार्जीलिंग जा रहे थे , तभी रास्ते में उन्हें बंगाल के शास्त्रीय गायक पं भीष्मदेव चटोपाध्याय के गायन का रिकॉर्ड सुनाई दिया. उन्होंने उसी समाय यह तय कर लिया कि वे उन्हीं से संगीत सीखेंगे. पंडित भीष्मदेव चट्टोपाध्याय जाने-माने गायक थे जिन्होंने दिल्ली घराना के उस्ताद बादल खान और आगरा घराना के उस्ताद फैयाज़ खान साहब से संगीत की शिक्षा ली थी. श्री श्यामानंद उनके गंदाबद्ध शिष्य हुए और संगीत की विधिवत तालीम ली. कुछ वर्षों के बाद भीष्म देव चट्टोपाध्याय पांडिचेरी के अरविन्द आश्रम चले गए. उन्हीं की सलाह पर श्यामानंद जी ने आगरा के उस्ताद बच्चू खान से संगीत सीखना जारी रखा. आगे चलाकर उन्होंने अनेक अन्य गुरुओं से भी शास्त्रीय गायन में ख्याल और ठुमरी की तालीम ली. ये थे – इलाहबाद के पं भोलानाथ भट्ट, दिल्ली के उस्ताद मुज़फ्फर खान, दरभंगा के पंडित महावीर मल्लिक, उस्ताद मुबारक अली खान आदि. इनमें सबसे लम्बा सान्निध्य इन्हें मिला खुर्जा घराना के उस्ताद अल्ताफ हुसैन खान का जो अपने जीवन के अन्तिमं समय में इन्हीं की ड्योढ़ी में रहने आ गए और करीब चौदह वर्ष तक रहे.
कुमार साहब का रुझान ख्याल गायकी में रहा. ख्याल की प्रस्तुति में वह बंदिश की अदायगी पर विशेष ध्यान देते थे. उनकी मान्यता थी कि बंदिश की सही अदायगी के बिना गाने में भाव या रस पैदा नहीं किया जा सकता. तानों की पेंचीदी प्रस्तुतियों और गूढ़ गायकी के बजाय वे रस पैदा करने में यकीन रखने वाले गायक थे.
राग की शुद्धता के साथ बंदिश की भी शुद्धता का भी वे ख्याल रखते थे. बंदिशों के प्रति उनका लगाव भावों की उत्पत्ति में शब्दों के विस्तार को लेकर था. वे भाव-प्रवणता की दृष्टि से ठुमरी की बंदिशों को भी ख्याल गायन में प्रस्तुत करते थे. ठुमरी शैली की बंदिशों के शब्द और वाक्य विन्यास अपेक्षाकृत कोमल और और मधुर होते थे. कहते हैं कि ख्याल ठुमरी की बंदिशों का खजाना था उनके पास. आकाशवाणी दिल्ली केंद्र में उनके गायन की करीब सात घंटे की रिकॉर्डिंग सुरक्षित है.
श्यामानंद जी शास्त्रीय संगीत की टकसाली परम्परा के पोषक थे इसलिए व्यावसायिक गायक न होते हुए भी उन्होंने रागों की शुद्धता का विशेष ख्याल रखा. तानों को लेकर उनका मत स्पष्ट था. वे तान को केवल चमत्कार के लिए प्रयुक्त करने के हिमायती नहीं थे बल्कि उसमें मधुरता और राग-सम्मतता के पक्षधर थे. आकाशवाणी को दिए अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं.-
“ अब तो बिलासखानी में भी वही तान होते हैं और मल्हार में भी वही.” ज़ाहिर है तानों में भी राग स्पष्ट नज़र आए , वे ऐसा मानते थे. .
श्यामानंद जी गायन को आध्यात्म से जोड़कर देखते थे और इसे इश्वर से मिलाने वाला मानते थे. एक बार पूर्व राष्ट्रपति श्री जाकिर हुसैन जब बिहार के गवर्नर के रूप में नियुक्त थे तब उन्होंने श्यामानंद जी को सुनकर कुछ इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये थे जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी गायकी ईश्वर से प्रार्थना का एहसास देती है.
प्रख्यात केसरबाई केरकर और पंडित जसराज के सन्दर्भ में दो घटनाएँ इस बात को स्पष्ट करती हैं कि घरानेदार गायकों की श्यामानंद जी के सन्दर्भ में क्या राय थी. ऐसा कहा जाता है कि केसरबाई उनकी एक ठुमरी से इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने उनसे बाकायदा उसे सीखा और जब कभी वह महफ़िलों में उस ठुमरी को गातीं तब शयमानंद जी के विषय में दो शब्द ज़रूर कहतीं. घटना कुछ यूं घटित हुई कि श्यामानंद जी राग भैरवी में निबद्ध ‘’भला मोरा मनभाय मुरली बजाई’ का गायन कर रहे थे. ड्योढ़ी में पधारीं केसरबाई जी के कानों में जब यह पड़ी तो वे उस और खींचीं चली गयीं . स्यमानंद जी को सुनते हुए वे मंत्रमुग्ध हो गयीं. श्यामानंद जी उनकी काबीलियत और गुणवत्ता से वाकिफ थे. सकुचा गए. किन्तु केसर बाई ने न सिर्फ उनकी तारीफ की अपितु उनसे यह ठुमरी सीखने कि इच्छा भी प्रकट कि. श्यामानंद जी तैयार न थे. ऐसी विदुषी गायिका को वे कैसे सिखाएं. केसर बाई ने कलाई आगे बधाई और कहा कि चाहें तो गंडा बाँध कर शिष्य बना लें , पर सिखाएं ज़रूर. सकुचाए मन से श्यामानंद जी ने उन्हें वह ठुमरी सिखाई. ज़ाहिर है यह केसरबाई की महानता को तो प्रकट करता ही है , श्यामानंद जी कि सुरीली और उच्च कोटि की गायिकी को भी प्रमाणित करता है.
जसराज जी के सन्दर्भ में यह घटना प्रचलित है कि शयमनद जी के मुख से भजन सुनकर वे इतने भाव-विह्वल हो गए कि उनकी आँखों से आंसू आ गए. पंडित जसराज जी ने कहा कि आज तक वे तो शायद किसी को रुला न पाए किन्तु शयमंद जी कि भाव-प्रवण गायिकी ने उन्हें रुला दिया.
बावजूद इसके कि श्यामानंद जी व्यावसायिक संगीतग्य नहीं थे उन्होंने संगीत सिखाने का काम भी किया. किसी भी कलाकार के लिए उसकी शिष्य मण्डली उसके कलाकार-व्यक्तित्व का विस्तार होती है. उनके शागिर्दों में सीताराम झा, कुमार जयानंद सिन्हा, शक्तिनाथ झा , शंकरानंद झा, सूर्यनारायण झा, कैशल किशोर डूबे, श्याम चैतन्य झा, विजय कुमार झा और राम शरण सिंह का नाम गिना जाता है. किन्तु शयमानंद जी की गायकी की विशिष्टता उनके शरीर के साथ ही चली गयी ऐसा कह सकते हैं क्योंकि उनके तमाम शिष्य स्थापित होने के क्रम में संघर्षरत ही रहे.
श्यामानंद जी स्वान्तः सुखाय के गायक थे. ज़मींदार थे, पैसों की लालसा नहीं ही थी. सार्वजानिक पहचान की भी लालसा न थी. अक्सर जब कहीं कार्यक्रम में गाते भी तो जितना मन होता उतना ही गाते . बाद के दिनों में तो ऐसा भी होता कि वे गाने के बीच में ही उठ जाते ये कहते हुए कि
“ अब तबीयत नहीं लगती भाई’’
ज़ाहिर है ऐसे में संगीत कार्यक्रमों (कॉन्सर्ट्स) का आयोजन या वहां पर उनको बुलाना इतना आसन न था. यह खतरों से भरा काम था जिसे केवल उनके जिद्दी क़त्रदान ही अंजाम दे पाते.
श्यामानंद जी संगीत के बड़े संरक्षक के रूप में जाने जाते हैं. वे अखिल भारतीय संगीत समारोह के प्रमुख संरक्षक सदस्य थे. अपने चंपानगर स्थित आवास परिसर को उन्होंने शास्त्रीय संगीत का समागम स्थल बना दिया था. उस्ताद सलामत अली खान, उस्ताद अल्ताफ हुसैन खान, उस्ताद बच्चू खान को चम्पानगर का आश्रय प्राप्त था. हिंदुस्तान का शायद ही कोई बड़ा उस्ताद शेष हो जिसे वहाँ आमंत्रित न किया गया हो. उस्ताद फैयाज़ खान, उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खान. उस्ताद मुबारक अली, उस्ताद निसार हुसैन खान, पं डी वी पलुस्कर, विदुषी केसरी बाई केरकर, सवाई गन्धर्व, उस्ताद विलायत हुसैन खान, उस्ताद हाफिज अली खान, उस्ताद अल्ताफ हुसैन खान, पंडित जसराज, दिलीप चंद बेदी, उस्ताद मुश्ताक हुसैन खान, पं नारायण राव, पं बसवराज राजगुरु, उस्ताद सलामत अली खान और उस्ताद नज़ाक़त अली खान, मलंग खान (पखावज) , अलाउद्दीन खान (सरोद), मुश्ताक अली (सितार), पं भोलानाथ भट्ट, पंडित चिन्मय लाहिरी, महावीर मालिक , जदुवी मलिक, रामचतुर मलिक, उस्ताद युनुस हुसैन खान आदि.
ऐसा कहा जाता है कि सन १९४४ में दशहरा उत्सव के दौरान उस्ताद सलामत अली खान और नजाकत अली खान को चम्पानगर बुलाया गया. उनकी प्रस्तुति से श्यामानंद जी इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें दो महीने तक उन्हें अपने आतिथ्य में रखा. बाद में उन्हें अखिल भारतीय संगीत समारोह में परिचय कराया जहाँ से उन्हें एक राष्ट्रीय पहचान मिली. इसी प्रकार जाने-माने गायक पं छन्नू लाल मिश्रा जी के सन्दर्भ में भी यह कहा जाता है कि उन्हें भी युवा कलाकार के रूप में चम्पानगर में बुलाया गया था. उनकी गायन प्रतिभा से भी कुमार साहब बड़े प्रभावित थे और उन्हें चंपानगर स्टेट में गायक के रूप में नियुक्त करना चाहते थे.
ज़मींदारी उन्मूलन तक चम्पानगर ड्योढ़ी संगीतकारों के जमघट का एक प्रमुख स्थान बनी हुई थी. आफ़ताब-ए-मौशिकी उस्ताद फैयाज़ खान साहब जब तक जीवित रहे , हर साल दशहरा पूजा के अवसर पर चम्पानगर की ड्योढ़ी पर ज़रूर गए. उस्ताद विलायत हुसैन खान (आगरा वाले ) ने अपनी पुस्तक ‘’संगीतज्ञों के संस्मरण’’ में लिखा है कि
“बिहार में कुमार साहब श्यामानंद सिंह से बेहतर संगीत के मर्माघ और कद्रदान नहीं है’’
संगीत के इस साधक और कद्रदान ने सन १९९४ में अंतिम सांस ली.
डॉ गुंजन कुमार झा
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