स्वतंत्रता के बाद शास्त्रीय संगीत की स्थिति
स्वतंत्रता के बाद में शास्त्रीय संगीत की स्थिति
ग्वालियर घराना के प्रतिनिधि गायक पं लक्ष्मण कृष्णराव पंडित जी के विचार
स्वतंत्रता के बाद शास्त्रीय संगीत जगत में बड़े उलटफेर हुए . ग्वालियर दरबार में मेरे पिताजी सम्मानित कलाकार थे . यहाँ जो भी संगीतकार थे उन्हें किसी प्रकार की लिखा पढ़ी नहीं करनी पड़ती थी , न ही उन्हें किसी ऑफिस में जाना पड़ता था. सिंधिया के देवालय गोर्की में पूजा के समय उनका गाना बजाना होता था. वह भी सप्ताह में एक बार . इसके अलावा में दरबार में जब कोई मेहमान आता महाराजा या राजमाता को संगीत सुनने की इच्छा होती , तब दरबार में संगीत की महफ़िल सजती थी. कृष्णा जन्माष्टमी पर भी गाना होता था. श्रीमंत जयाजी राव सिंधिया जी के दादा जी और परदादाजी अक्सर रोज़ संगीत सुनते थे. सिंधिया परिवार की छतरी में चालीस दिन का उत्सव होता था . वहां रोज़ संगीत होता था- सुबह से रात तक . तमाम दरबारी गायक और वादक का गाना बजाना होता था और काफी संख्य में श्रोता भी आते थे. श्रीमंत जीवाजी राव सिंधिया की छतरी पर पूज्य पिताजी का प्रोग्राम रखा जाता था. वे उनके गुरु थे. दरबारी संगीतकारों को बहार प्रोग्राम देने की पूरी छूट थी. सिर्फ उनको लिखित सूचना देनी पड़ती थी. दरबार का यह आदेश था की जहाँ भी प्रोग्राम हो वहां ‘ग्वालियर दरबार के गायक या वादक’ , ऐसा उल्लेख होना ज़रूरी होता था. प्रोग्राम के मानदेय राशि के विषय में कोई जानकारी देने की आवश्यकता नहीं होती थी. कलाकारों को अपनी कला को विकसित करने की पूरी छूट थी. अपनी शिष्य परंपरा को बनाने – सीखाने का भी पूरा समय था.
पूज्य पिताजी महाराज जीवाजी राव सिंधिया से दशहरा पर मिलने जाते थे जिसे महाराष्ट्र में सोना देना कहते हैं . इसकी पूर्व सूचना देनी पड़ती थी. महाराज पंडित जी के आने के पहले अगरबत्तियां जलाते थे क्योंकि वो चैन स्मोकर थे. वैसे ही ग्वालियर मेले में जब पंडित जी का सामना महाराज से मिल जाए तो महाराज पहले अपने हाथ की सिगरेट को अपनी पेंट से बुझाते थे जिससे उनकी पेंट जल जाया करती थी . यह बात राजमाता विजयराजे सिंधिया ने मुझे बतायी थी. इतना सम्मान महाराजा ग्वालियर पंडित जी को देते थे. वैसे पूज्य पिताजी सिंधिया राजवंश के गुरु भी थे. श्रीमंत जीवाजी राव सिंधिया और उनकी बहन श्रीमंत कमला राजे सिंधिया पिताजी से गाना सीखती थी.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब राज्यों का विलय हुआ तब यह सब बदल गया . सब कलाकारों को पेंशन दी जाने लगी . पूज्य पिताजी को छोड़ कर ग्वालियर के ज्यादातर गायक –वादक ग्वालियर छोड़कर चले गए. सिर्फ पूज्य पंडित जी ही ग्वालियर में आखिरी सांस तक रहे. कलाओं की राष्ट्रीय अकादमी का गठन हुआ जिसे संगीत नाटक अकादमी के नाम से जाना गया . संगीत में उथल पुथल का यह दौड़ था. संगीत में राजनीति का समावेश होना यहीं से शुरू हुआ. संगीत नाटक अकादमी की प्रथम सचिव निर्मला जोशी जी थीं जो रामपुर सहसवान घराने के प्रति उदार होने के कारण कई बार विवादों में रही .
आकाशवाणी तो ब्रिटिश राज्य काल से ही शास्त्रीय संगीत के संरक्षण और प्रसार की नीति के साथ चल रही थी. आकाशवाणी में लगभग ८० प्रतिशत तक शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम ही प्रस्तुत होते रहे. उसके बाद डॉ केसकर जब मंत्री हुए तब उन्होंने अपने सचिव मिस्टर लाड के साथ आकाशवाणी को एक नई दिशा दी. जिसमे कि संगीत के राष्ट्रीय प्रोग्राम , रविवारीय प्रातःकालीन संगीत आदि का आयोजन शुरू हुआ. रेडियो में ऑडिशन कमीशन का गठन हुआ जिसके अद्ध्यक्ष थे पंडित एस एन रातान्धंकर और मेंबर थे श्री पद्मनाभं शास्त्री और पंडित विनायक राव पटवर्धन . जिसमें लाइव ऑडिशन्स शुरू हुई. कुछ कलाकारों को छोड़कर सबको ऑडिशन में बुलाया गया. कई मूर्धन्य कलाकारों को सबसे निम्न सी क्लास दिया गया. इसके विरोध में कलाकारों ने आकाशवाणी के विरोध में प्रदर्शन किया जिसके प्रमुख थे उ विलायत हुसैन खान और सचिव थे पंडित गजानन राव जोशी. बहुत से कलाकारों ने रेडियो से प्रोग्राम देना बंद कर दिया. पंडित जी को ऑडिशन से मुक्त रखा गया था किन्तु उन्होंने भी कुछ समय तक प्रोग्राम देना बंद कर दिया था. सरकार ने इस विरोध को तोड़ने के लिए उ विलायत खान और पंडित गजन राव जोशी को म्यूजिक एडवाइजर बना दिया . कलाकारों का संगठन इससे शिथिल हो गया और मूर्थान्य कलाकारों के ग्रेड यथास्थित ही रहे. पंडित गजानन राव जोशी के अनुरोध पर पूज्य पंडित जी ने भी प्रोग्राम देना शुरू किया.
ऑडिशन कमिटी के रोचक प्रसंग भी हुए. मेरे रेडियो सहकर्मी श्री मिश्र जी एक ऐसी घटना का मुझसे जिक्र किया था. उसमे खुर्जा के उ अल्ताफ हुसैन खान साहब की ऑडिशन का यह जिक्र है . ऑडिशन में ज्यादातर पहला राग अपनी पसंद का और दूसरा कमिटी का होता था. परदे के अन्दर से आवाज़ आई कि कौन सा राग गाएंगे. जवाब था –‘ भैरव का प्रकार ‘ राग गाया गया. बाद में अन्दर से आवाज़ आई – ‘ दूसरा राग सुनाइये ‘ जवाब था ‘ बिलावल का प्रकार ‘ सुना रहा हूँ . गाने के बाद अन्दर से आवाज़ आई ‘ इस राग का नाम क्या है’ . जवाव था ‘ तुझे नहीं मालूम ? तू तो मेरा ऑडिशन ले रहा है .’’
उन दिनों में ‘ टॉप क्लास ‘ आर्टिस्ट को एक महीने में दो प्रोग्राम मिलते थे. बाद में साल में 12 या १३ प्रोग्राम दिया जाता था. a श्रेणी को ८ से १०. बी+ को ६ से ८ , बी श्रेणी को ४ से ६ प्रोग्राम मिलते थे , मगर प्रसार भारती का गठन होने के बाद यह सिलसिला नहीं रहा . टॉप क्लास को साल में एक से दो और a ग्रेड को मुश्किल से ही प्रोग्राम मिल पाता है .
वैसे देखा जाए तो शास्त्रीय संगीत को संरक्षण देने में रियासतों के बाद रेडियो का प्रमुख हाथ रहा है . संगीत नाटक अकादमी तो सिर्फ अवार्ड ही देती है. परफोर्मिंग आर्टिस्ट को प्रोत्साहन देने के लिए तो रेडियो की ही प्रमुख भूमिका रही है. आजकल कौन्फ्रेंसिस में स्टार आर्टिस्ट का ही बोलबाला है. वैसे भी इसकी संख्या बहुत कम रह गयी है. पहले तो मेरठ , झाँसी. आगरा , बांदा. होशियार पुर आदि अनेक छोटी जगहों पर संगीत सम्मलेन होता था, किन्तु अब नहीं होता. उभरते कलाकारों को तो रेडिओ और संगीत सम्मेलनों से निराशा ही हाथ लगती है. इसके आभाव में तो संगीत का स्तर भी घाट रहा है .सम्मान वगैरह तो कलाकार के रूप में स्थापित हो जाने के बाद ही दिया जाता है किन्तु प्रतिभावान कलाकारों के लिए तो मंच न के बराबर है जिससे शास्त्रीय संगीत को बहुत हानि हो रही है. इस तरफ शासन को /सरकार को ध्यान देना आवश्यक है.
पूज्य पंडित जी ने इसके लिए बड़ा संघर्ष किया. एक बार तो तानसेन समारोह में जब एक केन्द्रीय मंत्री आए थे तब पंडित जी कलाकारों का डेलिगेशन लेकर मिले थे और कहा था कि या तो कलाकारों के लिए कुछ करो या फिर हम सब एक जगह इकठ्ठा होते हैं , वहां एक बम्ब फोड़ दो.
स्वतंत्रता के बाद पूज्य पंडित जी अपनी साधना , प्रोग्राम और शिक्षण कार्य में व्यस्त रहे . ख्याल गायकी को सीखने के लिए उच्च शिक्षण देने के लिए उन्होंने शासन को सुझाव दिए थे. इस समय में उन्होंने कई रागों की बंदिशें भी बनाईं जो अब प्रकाशित की जा रही है.
इस प्रकार स्वतंत्रता के बाद बदलाव का जो दौड़ शुरू हुआ उसमें शास्त्रीय संगीत के संवर्धन में सरकारों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी . दुर्भाग्य से तमाम सरकारें इस और उदासीन ही रही . ज़रुरत इस बात की है कि ऐसी नीति का विकास हो जिसमें पुराने कलाकारों को संरक्षण और नए कलाकारों को प्रोत्साहन की पूरी व्यवस्था हो.
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