‘भारतीय जन-नाट्य संघ’- एक आन्दोलन
डॉ गुंजन कुमार झा
‘भारतीय जन-नाट्य संघ’
डॉ गुंजन कुमार झा
आधुनिक युग की मूल प्रवृत्ति विज्ञान और सभ्यता के विकास के साथ आत्मविस्तार की भी रही है. नाटक भी इससे अछूता नहीं. देश जब सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर नई करवट ले रहा था तब युग की नाट्यचेतना कुछ नगरों में ही केन्द्रित बनी रहकर नहीं रह सकती थी। भारत जैसे भिन्न संस्कृतियों के देश में भाषायी सरहदों को तोड़कर नवीन विचारों, नवीन चेतनाओं और नवीन वैज्ञानिक उपलब्ध्यिों को पहुँचाना आवश्यक था। इस नवचेतना का रचनात्मक परिणाम था सन् 1943 में अखिल भारतीय स्तर पर भारतीय जननाट्य संघ का स्थापन. ‘इंडियन पीपल थिएटर एसोसिएशन’ यानी ‘इप्टा’ नाम से यह आंदोलन भारतीय नाट्य-कला इतिहास में बेहद महत्त्वपूर्ण है. इसके प्रथम अध्यक्ष थे प्रख्यात श्रमिक नेता एन.एम. जोशी और सुश्री अनिल डिसिल्वा।
दरअसल डिसिल्वा मजदूर नेता थीं और रंगमंच के माध्यम से किसानों और मजदूरों की आवाज बुलन्द करने की पैरोकार थीं। अतः बंबई महानगरी में सुश्री अनिल डीसिल्वा ने एक श्रमिक या मजदूर रंगमंच बनाने की योजना बनाई, जिसे एक अखिल भारतीय आन्दोलन के रूप में चलाया जा सके। उसे कार्यान्वित करने के लिए उन्होंने बंबई के कुछ जाने-माने बुद्धिजीवियों और मजदूर संगठनों के कार्यकर्ताओं से सम्पर्क स्थापित किया। अपनी इस योजना को लेकर जब वे श्री ज्वाला अहमद अब्बास के पास आईं और उनसे अनुरोध् किया कि तो ख्वाजा साहब कह उठे – ‘‘आपका मतलब ‘पीपल्स थियेटर’ से है?’’ अनिल डीसिल्वा ‘‘हां, पीपल्स थियेटर’। यह नाम इस संस्था के लिए उपयुक्त होगा।’’ बस इस संस्था के नामकरण का फैसला वहीँ हो गया। ‘इप्टा’ के नामकरण में जहांगीर भाभा की भूमिका भी स्वीकार की जाती है। शम्सुल इस्लाम के अनुसार –
‘‘ये बात शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि ‘इप्टा’ का नामकरण हमारे देश के एक महान वैज्ञानिक ने किया था और वे थे होमी जहांगीर भाभा। इन्होंने 1942 में सुश्री अनिल डिसिल्वा को यह नाम सुझाया था।
यों चीन में व जापान में भी इस नाम से थिएटर-मंडलियाँ पहले से मौजूद थीं. संभव है कि सुश्री डीसिल्वा के ज़हन में यह जानकारी भी रही हो.
इस अखिल भारतीय जननाट्य संघ का स्थापना सम्मेलन 25 मई 1943 को सुबह साढ़े आठ बजे से बम्बई के एक मारवाड़ी विद्यालय के हौल में आरम्भ हुआ था। इस सम्मेलन में अपना अध्यक्षीय भाषण साम्यवादी नेता हीरेन मुखर्जी ने दिया. उनकी ऐलान था –
‘‘मैं चाहता हूँ कि आप सब जो कुछ भी हमारे भीतर सबसे अच्छा है उसे अपनी जनता के लिए अर्पित कर दें. लेखक और कलाकार आओ …आओ, आओ अभिनेता और नाट्यकार, तुम सारे लोग, हाथ या दिमाग से काम करते हो। …आओ और अपने आपको एक नए वीरत्वपूर्ण समाज बनाने के लिए समर्पित कर दो।’’
यह एक तरह से आगवान था. जनता से नहीं, कलाकारों से, अभिनेताओं से, नाटककारों से. ‘इप्टा’ विचार के स्तर पर राजनीतिक और शैली के स्तर पर लोकवादी आंदोलन था। यह अपने समय की जरूरत भी थी और भविष्य का नियामक भी। इसलिए यह जरूरी है कि हम देखें की उस वक्त जबकि इस आंदोलन की शुरफआत हुई तब वैश्विक और राष्ट्रीय राजनीतिक जमीन पर कैसी उठा-पटक चल रही थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के फैलने पर जर्मनी का मित्र बनकर जापान भारत की पूर्वी सीमा पर आ गया था। भारत में युद्ध के प्रति असहयोग की भावना थी। विश्व युद्ध को देश के नेता ‘साम्राज्यवादी युद्ध’ कहते थे। किंतु जब इस युद्ध में कम्यूनिस्ट देश रूस भी मित्राराष्ट्रों की ओर से कूदा तो यहाँ भारतीय कम्यूनिस्टों ने इसे सही मानते हुए उसे लोकयुद्ध की संज्ञा दे दी। सन् 1941 के स्टुडेन्ट्स फेडरेशन के पटना अधिवेशन में उन्होंने साम्राज्यवादी युद्ध को लोकयुद्ध की संज्ञा देते हुए सभी देशवासियों को युद्ध में पूर्ण सहयोग देने के लिए ललकारा-
‘साथी हाथ से हाथ मिलाओ’ और
‘सारा दुनियां भाइरी, एक साथ दौड़ाओ’
अनेक क्रांति गीतों से लोगों को एकजुट होकर फासिस्टों के विरोध् करने के लिए आह्वान किया गया। प्रगतिशील नेता जेल से छूटकर जनता को जागरूक करने के लिए सांस्कृतिक मोर्चों का गठन करने लगे। इन सांस्कृतिक मोर्चों ने बाद में चलकर भारतीय जननाट्य संघ की स्थापना में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। बंगाल के आतंक के प्रतिरोध् में उत्पन्न ‘कल्चरल स्क्वायड’ की भूमिका सर्वमान्य है.
आर्थिक दृष्टि से देश का अनवरत दोहन और शासन की उपेक्षा के कारण उत्तरी भारत अनेक अकालों का गवाह बना. हजारों मौतों का अंतहीन सिलसिला देश की नियति बन गयी थी. किन्तु अनेक कारणों से बंगाल का अकाल जननाट्य संघ की उत्पत्ति और विकास में महत्त्वपूर्ण बन गया। ज़ाहिर है यह अकाल भी अंग्रेजों की क्रूर नीति का परिणाम थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में कम्यूनिस्टों की सहभागिता के बावजूद गांधी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया। इस स्वर को गूंजित बनाने और तीखा करने के लिए ‘करो या मरो’ का संकल्प लिया। उधर बर्मा में और इम्पफाल में नेता जी सुभाषचन्द्र बोस ने ‘आजाद हिन्द पफौज’ लेकर भारत की स्वतंत्रता का उद्घोष किया और अस्थायी भारत सरकार का ध्वज गाड़ दिया। तत्कालीन विदेशी सरकार पराजय के बाद पराजय खाकर विचलित हो उठी और उसने दमन चक्र तेज कर दिया। बुद्धि और शक्ति के असपफल होने पर उसने छल का, कूटनीति का सहारा लिया, जिसका अनिवार्य परिणाम था – बंगाल की सुहरावर्दी सरकार के विरुद्ध मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाही और मानवकृत सर्वग्राही अकाल। युद्ध, दंगों और अकाल, इन तीनों ने बंगाल की, उसके निम्न और मध्यम वर्ग की प्रजा की कमर तोड़ दी। लाखों व्यक्तियों ने अन्न के मुट्ठी भर दानों के लिए तरस कर दम तोड़ दिया. कलकत्ता का राजमार्ग ऐसे भूख से मरे लोगों की लाशों से भरने लगा. अन्न के दाने-दाने के स्त्रियों ने अपने शरीर तक सौदे किये. भूख और मृत्यू का यह तांडव गहरे असंतोष को पैदा कर रहा था . यह असंतोष भूखी जनता से ज्यादा बौद्धिकों और कलाकारों के हृदय में शोला बन कर धधक रहा था.
वास्तव में बंगाल का अकाल एक ऐतिहासिक दुर्घटना थी। इसके बारे में अपनी पुस्तक ‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में पण्डित जवाहरलाल नेहरू लिखते हैं –
‘‘अकाल पड़ा …भीषण, दहलाने वाला, ऐसा घोर कि बयान से बाहर। मालावार में, बीजापुर में, उड़ीसा में और सबसे बढ़कर बंगाल के हरे-भरे सूबे में। आदमी, औरतें, नन्हें बच्चे हजारों की तादाद में, रोज खाना न मिलने के कारण मरने लगे। कलकत्ते के महलों के सामने लोग मरकर गिर पड़ते। उनकी लाशें अनगिनत गांवों की मिट्टी की झोपड़ियों में और देहातों, सड़कों पर और खेतों में पड़ी थीं। …यहां मौत के पीछे न कोई मकसद था, न कोई हेतु, न उसकी कोई जरूरत ही थी। यह इंसान की पैदा की हुई थी।‘’
जन-संस्कृति कर्मियों एवं संगठनों के साथ वहाँ की कम्यूनिस्ट पार्टी की इकाई की पहल पर ‘जन-संगठनों’ ने एक ‘पीपुल्स रिलीफ कमेटी’ बनाई। इसके तहत एक ‘कल्चरल स्क्वायड’ का भी गठन किया गया। इस ‘कल्चरल स्क्वायड’ ने प्रदर्शन की एक नवीन शैली को इजाद किया, जो जनसामान्य के बीच काफी लोकप्रिय और प्रभावकारी हुआ। उस जनसामान्य शैली के तहत इन्होंने अभिनय, दृश्य-ध्वनि के साथ गीत और संगीत को नए तरह से अपने प्रस्तुतीकरण में शामिल किया। यह सांस्कृतिक टोली कलाकार नहीं मजदूर कलाकारों की टोली थी. यह टोली अपनी रचनात्मक ऊर्जा धुप, धुल और पसीने से प्राप्त करती थी. बलवंत गार्गी ने अपनी पुस्तक ‘रंगमंच’ में लिखा है –
‘‘खबर मिली कि बंगाल से नाटक खेलने वालों की एक टोली लाहौर आ रही है। यह सन् 1943 की बात है। …थर्ड क्लास के ठसे हुए डिब्बे में से दस-बारह लोग निकले। पुरुष सूखे हुए से थे, स्त्रिायां काली, दुबली-पतली और नंगे-पांव। पंजाबी लड़कियों ने नाक चढ़ाई ‘ये कलाकार हैं!’ उनके नेता ने हमें अपनी मण्डलि से परिचित कराया।‘’
कला और कलाकार की प्रचलित अवधारणा यहाँ पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी थी. प्रदर्शन के सन्दर्भ में वे लिखते हैं-
“उस रात उन्होंने वाइ.एम.सी.ए. के भरे हुए हाल में नाटक प्रस्तुत किया। बत्तियां बुझीं। दर्शकों में से ही एक व्यक्ति अचानाक उठा। उसने ढोल पर तीन बार धीरे-धीरे चोट की और मंच की ओर चल दिया। तीन पुरुष और दो स्त्रियाँ किसी और स्थान से उठे और दर्शकों की भीड़ में से ही उसके पीछे चल पड़े। वे कंगाल भिखमंगों की तरह जोर-जोर से पुकार रहे थे – ‘हम भूखे हैं। हम भूखे हैं।’ दर्शकों में खुसुर-पुसर हुई। यह लोग कौन है? ये क्या कह रहे हैं? खेल में विघ्न क्यों डाल रहे हैं? ये क्या चाहते हैं? इन छहों कलाकारों की कांपती आवाजों ने एक गीत का रूप धरण कर लिया। वे गाते हुए मंच पर आकर खड़े हो गए। उनकी आँखों में काली ज्वाला थी। उनके गीत और सुते हुए चेहरों से बंगाल के भीषण अकाल की यातना और निर्धनता टपक रही थी। चेहरे के हाव-भाव, अभिनय और वाणी में कोई कृत्रिमता नहीं थी। ऐसी दृष्टियाँ और चेहरे हमने लाहौर की कंगाल बस्तियों में देखे थे। …दर्शकों में से स्त्रिायों की सिसकियाँ सुनाई दे रही थीं। …इन संक्षिप्त नाटकीय दृश्यों में संगीत, नृत्य और शैलीबद्ध अभिनय था। न कोई मंच-सज्जा थी, न ही कोई सामग्री। केवल पृष्ठभूमि में एक काला पर्दा टंगा हुआ था। कलाकार दर्शकों में से ही उठकर मंच पर आते और दृश्य समाप्त होने पर दर्शकों में ही जा बैठते। ये व्यावसायिक कालाकार नहीं थे। ये कुछ ऐसे नवयुवक थे जिन्हें देश में होते हुए विदेशी राज्य के अत्याचार ने उद्विग्न कर दिया था। उनमें उत्साह था और वे कुछ कहना चाहते थे। उन्होंने मंच की प्रचलित नीतियों को तोड़कर अपना ही एक स्वाभाविक और सरल नाट्य-रूप ढूंढ लिया। यह ‘इण्डियन पीपुल्स थियेटर’ की लहर का आरम्भ था।‘’
‘इप्टा’ ने लोक को अपने भीतर समाहित कर मंच और दर्शक के द्वैत को पाट दिया। फासिस्ट ताकतों के विरुद्ध बोलने से लेकर बंगाल की भुखमरी को आवाज देने के लिए ये कलाकार खुले आकाश के नीचे हर स्थान पर नाटक पेश करने लगे। गलियों के मोड़ों पर, चैगानों में, खलिहानों में और गांवों-कस्बों के चबूतरों पर. नाटक इनके लिए एक ऐसे गुस्से और असंतोष का प्रदर्शन था जो अपने खोह में गहरे लोक सरोकारों से संपृक्त था.
भारतीय जननाट्य संघ ने 1940-42 से 1960 के भीतर सैकड़ों नाटकों एवं एकांकियों का प्रदर्शन किया था। ‘ये किसका खून है’ (अली सरदार जापफरी) ‘आज का सवाल’, आधा सेर चावल’, ‘राजाजी दिल बैठा जाए’, ‘घायल पंजाब’, ‘लपटों के बीच’, ‘प्लानिंग’, ‘पहेली (राजेन्द्र रघुवंशी), ‘कानपुर के हत्यारे’, ‘जमींदार कुलबोरन सिंह’, ‘सीता का जन्म’, ‘तुलसीदास ( रामविलास शर्मा) ‘हिमालय’, ‘आखिरी धब्बा (रांगेय राघव), ‘यह अमृत है’, ‘जुबैदा’, ‘मैं कौन हूं (ख्वाजा अहमद अब्बास) , ‘जादू की कुर्सी’, ‘मशाल (बलराज साहनी)’, ‘बेकारी’, ‘संघर्ष’, ‘किसान (शील), ‘तूफान से पहले (उपेन्द्रनाथ अश्क), ‘पीर अली (लक्ष्मीनारायण लाल, पटना), ‘धनी बांके’, ‘घर (कानपुर, इप्टा) आदि नाटक बार-बार मंचित हुए थे। इनमें से जादु की कुर्सी, मैं कौन हूं, जुबैदा और किसान अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुदित होकर खेले गए और सराहे गए।
महती उद्देश्य के इस आंदोलन का समापन बहुत जल्द, लगभग दस वर्षों के भीतर हो गया। वस्तुतः एक राजनीतिक विचारधरा से प्रभावित नाट्यधरा का राजनीतिक कारणों से ही पतन हुआ। राजनीतिक विचारधरा के कारण इसे सत्ता-लोलुपता से भे भी जोड़कर देखना जाने लगा. यद्यपि इप्टा के दसवें राष्ट्रीय अध्विेशन में राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री आजमी ने कहा कि हमारी पूंजी नाटक, नाच और गाने हैं और हमारा इरादा सत्ता में आने का कतई नहीं है। किन्तु इप्टा की राजनीतिक पक्षध्रता स्पष्टतर होती गयी। साम्यवादी विचारधरा से शुरू ‘इप्टा’ आाखिर अपने ही भीतर सिमटता गया और वृहत्तर लोक से उसका रिश्ता कटने लगा जिससें यह आन्दोलन अपने आवासन की और गया. आन्दोलन के स्तर पर बेशक ‘इप्टा’ का समापन हो गया है किन्तु विचार और नाट्य-धारा के रूप में यह अब भी विद्यमान है.
‘इप्टा’ के इस आन्दोलन को इसी नाम से पूँजीवाद और फासीवाद के प्रतिरोध के रूप में आज भी कुछ शहरों में संचालित किया जा रहा है. मुंबई, आगरा आदि शहरों में ये पर्याप्त सक्रिय हैं. सन २०१८ में इन संगठनों ने मिलकर एक बैनर तले इसकी ७५वीं वर्षगाँठ भी मनाई. आगरा विश्वविद्यालय में विदेशी भाषा विभाग के अध्यक्ष रहे श्री जीतेन्द्र रघुवंशी इप्टा हेतु हाल के वर्षों तक सक्रीय रहे. सन २०१५ में स्वाइन फ़्लू से उनकी दुखद मृत्यू हो गयी.
इस आन्दोलन का जो सबसे दुखद पहलू है वो यह है कि ‘इप्टा आन्दोलन’ के दौरान रचे और खेले गए नाट्यलेखों की ज्यादातर पाण्डुलिपियों का आज अता-पता नहीं है। राजेन्द्र रघुवंशी ने एक साक्षात्कार के दौरान बेहद अपफसोस जताया और उनकी आँखे छलछला गईं कि हम नाटक की पाण्डुलिपियों को सहेजकर न रख सके। पांडुलिपियों के आभाव में ‘इप्टा’ की बहुत सी ऐसी व्याख्याओं का होना अभी शेष है जिससे इसके वैचारिक वितान के साथ शैलीगत विशिष्टताओं के अनेक अपरिचित क्षेत्रों की पहचान की जा सके.
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