हरिवल्लभ संगीत सम्मलेन
जालंधर से लौट कर (2016)
डॉ गुंजन कुमार झा
शास्त्रीय संगीत की महफ़िलों की मध्यकालीन वास्तविकताओं और किविदंतियों को वर्तमान में साकार करती चुनिन्दा महफ़िलों में से एक “हरिवल्लभ संगीत सम्मलेन” २५ दिसंबर २०१६ को जालंधर में संपन्न हुआ. तीन दिवसीय यह सम्मेलन तीन रात्रियों को अपनी सुरों कि बानगी और तालों की झंकार के साथ जगमगाता रहा .
देश के अलग अलग हिस्सों से करीब सौ कलाकारों नें इसमें भाग लिया . इनमें करीब चालीस कलाकारों ने प्रमुख कलाकारों के रूप में भाग लिया . पं कृष्णराम चौधरी (शहनाई) , प्रशांत कुमार मालिक (ध्रुपद गायन) , निशांत कुमार मालिक ( ध्रुपद गायन ) , पं तेजेंद्र नारायण मजूमदार (सरोद), सुरेश गान्धर्व( गायन), मनु श्रीवास्तव ( गायन) , सुखविंदर सिंह पिंकी नामधारी ( तबला) , शुभ महाराज ( तबला) , पं शुभदा पराड़कर ( गायन) , डॉ संतोष नाहर( वायलिन), सतविंदर पाल सिंह ( सारंगी ) प्रसाद खपड़डे ( गायन), चंदना दीक्षित ( गायन) , पं ( डॉ) हरविंदर कुमार शर्मा ( सितार) , सानिया पाटनकर ( गायन) , मोर मुकुट केडिया ( सितार) , मनोज कुमार सितार (सरोद) , पं शांतनु भट्टाचार्य (गायन ) , पं रणेंद्र( रेनू ) मजूमदार (बांसुरी) , पं उपेन्द्र भट्ट ( गायन) के साथ ही , हरशरण दीप सिंह ( गायन – ठुमरी) , ऋषभ सेन (सितार) , शुभ घोष ( गायन), भगवद चवन ( पखावज) पूर्व वर्ष के संगीत प्रतियोगिताओं के विजेताओं नें अपनी स्वतंत्र प्रस्तुतियां दीं . संगतकार के रूप में मृणाल मोहन उपाध्याय ( पखावज ) , सुखविंदर सिंह पिंकी नामधारी (तबला ) पं देवेन्द्र वर्मा (हारमोनियम) पं रामस्वरूप रतौनिया (तबला) ओजस आधिया (तबला), तन्मय देओचके (हारमोनियम) , शुभ महाराज (तबला) , डॉ विवेक बन्सोड (हारमोनियम), पं शुभशंकर बैनर्जी (तबला), राजेंद्र प्रसाद बैनर्जी (हारमोनियम), सुधीर घोरई (तबला) हरिदत्त शर्मा (बांसुरी) , पं उमेश पुरोहित (हारमोनियम) पं अविनाश पटवर्धन (तबला) आदि ने अपना योगदान दिया. इनके अतिरिक्त कार्यक्रम कि शुरुआत में प्रत्येक दिन डॉक्यूमेंट्री फिल्म्स का प्रदर्शन किया गया और विभिन्न महाविद्यालय के संगीत समूहों द्वारा सरस्वती एवं हरिवल्लभ वंदना की भी प्रस्तुति दी गयी . कार्यक्रम के अंतिम दिन का समापन वन्दे मातरम से किया गया .
संगीत सम्मलेन के पहले दिन डॉक्यूमेंट्री फिल्म और वंदना के बाद शास्त्रीय प्रस्तुतियों की शुरुआत पं कृष्णराम चौधरी के शहनाई वादन से हुई . भारतीय परंपरा में शहनाई मंगल का प्रतीक है . शहनाई पर पंडित जी ने राग श्याम कल्याण प्रस्तुत किया . मध्य लय झप ताल एवं द्रुत लय तीन ताल में निबद्ध थी . तबले पर उनकी संगत की पं रमाकांत ने और दुक्कड़ पर थे हेमंत राज . उनके बाद दरभंगा घराने के तेरहवीं पीढी के प्रतिनिधि गायक मालिक बंधुओं ( प्रशांत कुमार मलिक एवं निशांत कुमार मलिक) ने ध्रुपद गायन प्रस्तुत किया . उन्होने अपनी प्रस्तुति की शुरुआत श्री राग से की. बंदिश के बोल थे ‘जाके गले मृग छाल’ जो चौताल में निबद्ध थी . उसके बाद उन्होंने राग चारुकेशी में सूलताल में निबद्ध बंदिश ‘सुर नर मुनि ‘ पेश की . पखावज पर उनकी संगत मृणाल मोहन उपाध्याय नें की. उनके बाद तेजेंद्र नारायण मजूमदार ने सरोद संभाला . उन्होंने राग जयजयवंती में आलाप जोड़ एवं झाला प्रस्तुत किया . उसके बाद राग किरवानी में सितारखानी तीनताल और द्रुत तीनताल में प्रस्तुत की . तबले पर संगति की सुखविंदर सिंह नामधारी पिंकी ने. पहले दिवस के अंतिम प्रस्तोता के रूप में इंदौर घराने के सुरेश गान्धर्व नें राग मालकौंस प्रस्तुत किया . मालकौंस में उन्होंने उ अमीर खान द्वारा प्रसिद्द बंदिश ‘जाके मन राम बिराजे’ पेश की . द्रुत खयाल में प्रचलित बंदिश ‘आज मोरे घर आये ‘ प्रस्तुत किया . उसके पश्चात राग कलावती पेश किया और कार्यक्रम का समापन राग भैरवी में निबद्ध भजन से किया.
संगीत सम्मलेन का दूसरा दिन गायन की विभिन्न शैलियों, वायलिन और सारंगी की जुगलबंदी और दो धुरंधर तबला वादकों की टंकार से गूंजित रहा . पूर्व वर्ष की प्रतियोगिता के विजेताओं की प्रस्तुतियों के बाद गायन की गंभीर शुरुआत की मनु श्रीवास्तव नें . उनकी गायकी में ग्वालियर घराने के साथ ही आगरा और जयपुर घरानों कि शैली का भी सम्मिश्रण दिखा . तबले पर उनका साथ दिया जयदेव नें . सुखविंदर सिंह पिंकी नामधारी और शुभ महाराज के युगल तबला वादन से दिशाएं झंकृत हो उठीं . पं किशन महाराज के दोनों शागिर्दों नें बनारस बाज के प्रचिलित रूपों तक अपने वादन को सीमित रखा किन्तु श्रोताओं नें उसका भरपूर आनंद लिया . हारमोनियम पर लहरा दिया तन्मय देओचके नें . शुभदा पड़ाडकर नें अपनी आक्रामक गायन शैली से श्रोताओं को नए आस्वाद का परिचय दिया . सरगम और तानों की अधिकता रागों की छवि को ठीक से उभरने नहीं दे रहे थे मगर उनका रियाज़ साफ़ दृष्टिगत होता था. भावात्मकता पर हावी चमत्कारिकता की गायकी में किराना , आगरा , ग्वालियर और जयपुर घरानों की शैली का प्रभाव भी नज़र आता था. वायलिन और सारंगी की जुगलबंदी नें अनुभव और नवीनता के संगम का निदर्शन कराया . डॉ संतोष नाहर और सतविंदर पाल सिंह नें वायलिन और सारंगी में अपने हुनर का मुजाहिरा किया . उन्होंने राग वाचस्पति में अपनी प्रस्तुति दी . तबले पर संगत की शुभ महाराज ने . डॉ संतोष नाहर के वादन में जहां शुरुआती गंभीरता और उत्तरोत्तर चपलता का समावेश था वहीं सतविंदर के वादन में सारंगी की प्रकृति के प्रतिकूल तेज गति की असहज कोशिश थी . समवेत रूप में दोनों ने श्रोताओं को मुग्ध किया . अंतिम प्रस्तुति उ राशिद खान के शिष्य प्रसाद खपरदे के गायन से हुआ . हारमोनियम पर थे डॉ विवेक बंसोड़ और तबले पर साथ निभाया ओजस आधिया ने .
हरिवल्लभ की पूरी रात कार्यक्रम चलने की प्रथा में रात को छोटी और कार्यक्रम को बड़ा बनाने का काम तीसरे दिन प्रत्यक्ष रूप से हुआ. ये सर्वाधिक लम्बी अवधि का कार्यक्रम था जिसमें गायन के अलावा पखावज , सितार , सरोद और बांसुरी की प्रस्तुतियां हुईं . पूर्व वर्ष के प्रतियोगिता विजेताओं कि प्रस्तुतियों के बाद चंदना दीक्षित का गायन हुआ. चंदना दीक्षित ने राग बिहाग से अपनी प्रस्तुति की शुरुआत की . बिलम्बित के बोल थे ‘ मेरो मन अटको ‘ . तीन ताल निबद्ध प्रसिद्द द्रुत लय के बोल थे ‘ लत उलझी सुलझा जा रे बालम ‘ . अंत में तराना प्रस्तुत किया. गायकी में आवाज़ की खूबसूरती , शब्दों की स्पष्टता और तिहाइयों का सौन्दर्य ख़ास विशेषता रही . तबले पर उनका साथ दिया पं रामस्वरूप रतौनिया ने और हारमोनियम पर थे पं देवेन्द्र वर्मा . उनके बाद डॉ हरविंदर कुमार शर्मा के सितार वादन ने कार्यक्रम को आगे बढाया. तबले पर उनका साथ दिया सुखविंदर सिंह पिंकी नामधारी ने . डॉ हरविंदर शर्मा ने राग मिश्र पीलू से शुरुआत की . उनके वादन में उ विलायत खान साहब की शैली की झलक दिखी . आलाप , जोड़ आलाप , झाला और जोड़ झाला को प्रस्तुत करने के पश्चात उन्होंने राग पहाड़ी में धुन ‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो ‘ बजाकर श्रोताओं को अपने साथ तन्मय किया. सानिया पाटनकर का गायन सरगम की अधिकता और तानों की अतिरेकता से लबरेज था. किन्तु उनकी गायकी श्रोताओं को बांधे रही . सुर की सटीकता और गायन कि नवीनता उनकी विशेषता बनी . उन्होंने राग नन्द से अपनी शुरुआत की. बिलम्बित की बंदिश तीन ताल में निबद्ध थी और बोल थे –‘धूंढूं म्हारे सैंया’ , तोहे सकल बन बन‘ . उसके बाद मध्य लय प्रस्तुत की. राग सोहनी में चतुरंग प्रस्तुत किया गया. बोल थे – ‘ नन्द लाल ब्रिज युवती संग रचो रास’ . उसके बाद झूला प्रस्तुत किया गया . हारमोनियम पर थे पं देवेन्द्र वर्मा और तबले पर संगति की पं रामस्वरूप रतौनिया नें . मोर मुकुट केडिया और मनोज कुमार केडिया के सितार और सरोद की जुगलबंदी आस्वाद के नए धरातल को सामने लायी . सितार और सरोद की जुगलबंदी में राग के विस्तार में कोई हडबडाहट न दिखाई दी और राग की छवि बहुत खूबसूरती से उभरी . उन्होंने राग चंद्र्नंदन में अपनी प्रस्तुति दी. अंत में प्रसिद्द भजन ‘ वैष्णव जन तो ‘ का वादन किया. तबले पर पं शुभंकर बैनर्जी ने बहुत सहज कलात्मकता का मुजाहिरा क्या . पं शांतनु भट्टाचार्य के गायन में सुरों की हरकत में कहीं कहीं सटीकता का आभाव दिखा किन्तु कुछ समय पश्चात वह अपने रंग में आ गए . उनके साथ हारमोनियम पर राजेंद्र प्रसाद बैनर्जी और तबले पर श्री सुधीर घोराई ने सांगत की . पं रनेन्द्र (रेनू) मजूमदार के बांसुरी वादन में राग की बढ़त में चपलता और मधुरता का संगम था. उनके साथ हरिदत्त शर्मा का बांसुरी पर सहयोग पूरक था. तबले पर संगत की सुखविंदर सिंह पिंकी नामधारी ने . पं उपेन्द्र भट्ट के गायन में किराना घराना और उनके गुरू पं भीमसेन जोशी की गायकी की छाप साफ़ दृष्टिगत हो रही थी. उनका साथ हारमोनियम पर दिया पं उमेश पुरोहित ने और तबले पर पं अविनाश पटवर्धन ने . कार्यक्रम का अंत वन्दे मातरम् के समवेत गायन से हुआ.
तीन दिनों तक जालंधर की फिजाएं महासभा द्वारा आयोजित विश्व के सबसे पुराने माने जाने वाले हिन्दुस्तानी संगीत सम्मलेन में उठने वाली स्वर लहरियों में लबरेज़ थी . अखवारों के सप्लीमेंट्स में इसके लिए अलग से रंगीन पन्ने निर्धारित थे . उनमें बिलकुल आम जनता के समझने लायक रिपोर्टिंग मौजूद रहती थी. लोकल चैनलों पर भी इस कार्यक्रम की रिपोर्टिंग देखी जा सकती थी. दूकान , बाज़ार और मंदिर हर आम-ओ-खास इस सम्मलेन से बावस्ता था. श्री देवी तालाब मंदिर परिसर में मौजूद सभी धर्मशालाओं में तिल रखने की जगह न थी और बाहर के होटलों में भी समारोह के कारण आये बाहरी श्रोताओं के रहने से रंगत थी. समारोह के पंडाल में जाने से पूर्व श्रोताओं की पादुकाओं को उसी अंदाज में सेवा भाव से जमा किया और वापस दिया जा रहा था मानो वे प्रेक्षागार में नहीं अपितु मंदिर या गुरूद्वारे में जा रहे हों. और क्यों न हो , वह समारोह स्थल भी तो एक मंदिर ही था- सुरों का मंदिर . तीन दिन का यह सम्मलेन समवेत रूप में एक सफल आयोजन था.
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