कुँवर नारायण : संगीत की दृष्टि से
डॉ गुंजन कुमार झा
संगीत की दृष्टि से कुँवर नारायण
-डॉ गुंजन कुमार झा
कविता यदि भाषा में आदमी होने की तमीज है तो संगीत आदमी में इंसान होने का प्रमाण है। कुँवर नारयण इस हिसाब से प्रामाणिक इंसान कवि हैं। हिन्दी का कवि यथार्थ और विचारधारा के नाम पर जैसी कर्कशता को जाने-अनजाने अपने भीतर समाहित कर लेता है कुँवर नारायण उससे जीवन पर्यन्त बचे रह सकने वाले कवियों में से एक हैं।
बकौल मैनेजर पांडेय संवेदना और अनुभूतियों का मूल रूप अमूर्त होता है और उस अरूप संवेदना तथा अनुभूति के रूपात्मक बोध से ही कला का प्रादुर्भाव होता हैं। कला की रचना प्रक्रिया की दो अवस्थाएं होती हैं एक तो अरूप भावनाओं की रूपात्मक अनुभूति , जो पूर्णतः मानसिक प्रक्रिया है। दूसरी बिंबात्मक मानसिक अभव्यक्ति की ध्वनि , रंग, रेखाओं , शब्दों आदि के माध्यम से बाह्याभिव्यक्ति जिससे कलाकृति का निर्माण होता है। कला रूप ( काव्य, संगीत, चित्र, मूर्ति) के सहारे अरूप (भाव, अनुभूति, विचार) की साधना है।
संगीत अमूर्त को अमूर्त के माध्यम से मूर्त करने वाली कला है। साहित्य की भांति उसके पास ठोस शब्द की सुविधा नहीं है। गायन में शब्दों का सहयोग है किंतु वादन में तो वह बिल्कुल नहीं है। उसके पास है अमूर्त ध्वनि । संगीत की यही अमूर्तता कई बार कविताओं को ताकत प्रदान करती है।
संगीत की सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति और उसकी लोकप्रियता की खूबी के चलते उसका उपयोग नाटकों में बहुतायत में हुआ है। कविताओं में भी इसका उपयोग हुआ है। किंतु यह सभी कवियों पर एक ही तरह से लागू नहीं होता। अमूर्त के प्रति यह लगाव अज्ञेय के समकालीन, औसत आधुनिक और समकालीन कवियों में अधिक दिखलाई पड़ता है। शब्दों को जब चुन कर प्रयोग करना हो या जब ‘मौन भी एक कविता हो’ तब जाहिर है संगीत की ओर ध्यान जाएगा ही। कुँवर नारायण अज्ञेय के लगभग साथ-साथ कविता करते हैं। उस दौर के कई उच्च दर्जे के कवि संगीत के प्रति आकर्षण का भाव रखते हैं। अज्ञेय के अलावा नागार्जुन, भी संगीत के प्रेमी थे। इसकी चर्चा प्रायः नहीं मिलेगी किंतु डॉ मुकेश गर्ग (संगीत और साहित्य के अकेले विशेषज्ञ) से हुई बातचीत में इसका खुलासा हुआ। उन्होंने बताया कि बाबा नागार्जुन ने प्रसिद्ध सितार वादक उस्ताद हलीम जाफर खां साहब का सितार सुना और उसपर इतने मुग्ध हुए कि एक कविता लिखी और उन्हें पोस्टकार्ड पर लिख भेजा (वे उस समय ‘संगीत’ पत्रिका के संपादक थे)। बाद में हालांकि वह पोस्टकार्ड कहीं खो गया और जब बाबा नागार्जुन एक बार उनके घर पधारे तो उन्होंने उन से पोस्टकार्ड खोने की बात भी कही. बाबा नागार्जुन ने दोबारा भेजने की बात कही किंतु संयोगवश ऐसा न हो सका।
नागार्जुन के अलावा गिरिजा कुमार माथुर, प्रयाग शुक्ल, विष्णु खरे, उदय प्रकाश आदि भी संगीत से खासे लगाव रखने वाले और कहीं न कहीं संगीत की शब्दावली को अपनी वैचारिकी और कविकर्म में प्रयोग करने वालों में रहे। इनमें अशोक वाजपेयी एक अहम नाम हैं और कुँवर नारायण उनके बिल्कुल नजदीक।
हिन्दी जगत में साधारणतया कवियों और संगीतकारों का कोई भी आपसी संबंध नहीं होता। दोनों के कार्यक्रम अलग, श्रोता अलग, मिजाज अलग यहाँ तक कि उद्देश्य भी अलग देखे जाते हैं। ऐसा कम ही होता है कि कोई कलाओं के अन्तर्संबंधों पर कार्यक्रम हो और अपने क्षेत्र का कोई बड़ा कलाकार उसमें श्रोता के रूप में शामिल हों। ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन में अशोक वाजपेयी की दिलचस्पी जगजाहिर है। बकौल डॉ मुकेश गर्ग अशोक वाजपेयी द्वारा आयोजित एक संगीत और साहित्य के अन्तर्सम्बन्धेां पर आयोजित सेमिनार के एक सत्र जब कि वे संगीत पर कुछ बोल रहे थे तब एक गंभीर श्रोता के रूप में उन्होंने कुँवर नारायण को अपने सामने बैठा पाया। वहाँ मेरे संगीत गुरू पं. लक्ष्मण कृष्णराव पंडित (ग्वालियर घराने के सुप्रसिद्ध प्रतिनिथि गायक), विदुषी श्रीमती कृष्णा बिष्ट (सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका) आदि कई संगीत क्षेत्र के बड़े नाम माजूद थे। यह इस बात का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है कि कुँवर नारायण जब संगीत की बात करते हैं या जब अपनी कविता में कहीं न कहीं संगीत की शब्दावली का प्रयोग करते हैं तब वह प्रयोग महज शब्द पर सीमित नहीं होता बल्कि उसके मायने कहीं गहरे और ठोस हैं। अपने व्यावहारिक और बौद्धिक जीवन में वे संगीत से जुड़े हुए थे।
यह तो स्पष्ट है कि कुँवर नारायण एक ऐसे साहित्यकार थे जो समवेत रूप में एक कलाकार थे। वे कविता के साथ संगीत, कला और फिल्मों में खासी रुचि रखते थे। वे लिखते हैं –
‘‘ सिनेमा और संगीत मेरे दो बहुत पुराने शौक़ रहे हैं और आज भी जिस तरह उनके साथ एक घनिष्टता अनुभव कर पाता हूँ वैसी हर कला के साथ नहीं।“ शास्त्रीय संगीत सुनने के वे शौकीन थे और उनकी कविताओं व उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों से यह ध्वनित होता है कि वे रागदारी के ध्रुपद ,धमार और ख्याल गायन के कद्रदान होने के साथ बाउल संगीत एवं अन्य लोक गीतों में भी रुचि रखते थे। उनका ताअल्लुक लखनऊ से था। लखनऊ तहजीब और अदब का शहर माना जाता है । संगीत का लखनउ घराना और ठुमरी की लखनवी शैली प्रसिद्ध है। कुँवर नारायण सामाजिक व आर्थिक रूप से एक प्रतिष्ठित एवं समृद्ध परिवार से थे और उनके यहाँ शास्त्रीय संगीत की महफिलों का आयोजन भी होता था। इन सब कारणों से संगीत उनके जीवन से अनुस्युत था।
संगीत की दृष्टि से जब हम कुँवर नारायण को देखेंगे तो हमें कुछ बुनियादी सवालों से दोचार होना पड़ेगा। एक , कुँवर नारायण ज्ञाता संगीत प्रेमी थे या श्रोता संगीत प्रेमी ? दूसरा संगीत उनकी जिन्दगी में किस तरह शामिल था ? तीसरा, कविताओं में वह किस तरह आता है ? और चौथा, संगीत के प्रति उनकी दृष्टि क्या थी ? यह भी देखना होगा कि संगीत के विचारोत्तेजक सवालों से वे कितने उलझे हैं या उन पर उनकी अपनी राय क्या है? इन बुनियादी सवालों के बाद हम संभवतः कुँवर नारायण को सांगीतिक स्तर पर समझ पाएँ।
कुँवर नारायण संगीत प्रेमी थे यह तो स्पष्ट है किंतु क्या वे संगीत के ज्ञाता भी थे? अमूमन जब कोई शास्त्रीय संगीत को पसंद करता हो तो यह मान लिया जाता है कि वह संगीत का ज्ञाता भी है क्योंकि बिना ज्ञान शास्त्रीय संगीत को पसंद करने वाले कम ही देखने को मिलते है। वह ज्ञान केवल सुनने-समझने तक ही था या उसकी उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा भी ली थी यह जानने का विषय है। वास्तव में , उन्होंने शास्त्रीय संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी। उनका संगीत के प्रति लगाव श्रोता-प्रेम ही था। संगीत सुन-सुन कर या उसके बारे में चर्चाओं के माध्यम से जो ज्ञान उन्हें प्राप्त हुआ उसी से वे संगीत की समझ रखने वाले बने और संगीत की तकनीकी शब्दावलियों से भी उनका परिचय हुआ। संगीत उनकी जिन्दगी में बतौर एक कला शामिल था। यदा-कदा वे शास्त्रीय संगीत के समारोहों में भाग लिया करते थे। कुछ संगीतज्ञों और कुछ अन्य संगीत के चाहने वालों के साथ उनका उठना-बैठना था। उनके निवास पर भी शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियों का आयोजन हुआ करता था। इस प्रकार वे संगीत के एक मुग्ध श्रोता थे।
एक कवि होने के नाते उनकी कविता में संगीत के अवयवों का उपयोग बहुत महत्त्वपूर्ण तरीके से हुआ है। वह उपयोग केवल फैशन के रूप में या बहुज्ञता सिद्ध करने के लिए नहीं अपितु कविता की अर्थवत्ता को खोलने में बुनियादी रूप से आवश्यक तत्व के रूप में हुआ है। जब यह कहा जा रहा है कि संगीत के अवयव का उपयोग हुआ तो उसका बुनियादी अर्थ यही है कि संगीत की शब्दावली का उपयोग हुआ है। कविता में अंततोगत्वा शब्द ही माध्यम है। किंतु वह शब्दावली गद्य के मुकाबले कहीं ज्याद सघन, सूक्ष्म और गहरी अर्थ-छायाओं को अपने भीतर समाहित किए हुए है। इसलिए शब्दावली से हम पीछे नहीं भाग सकते । जिन कविताओं में सांगीतिक शब्दावली का उपयोग हुआ उनके अर्थ को समझने व कविता के भाव को पूरी तरह से जानने के लिए संगीत का ज्ञान आवश्यक है। जाहिर है पाठक को संगीत के उस पक्ष को जानना होगा जिस पक्ष को कुँवर नारायण अपनी कविता में शामिल करते हैं। उदाहरण के लिए ‘राग भटियाली’ कविता को लेते हैं-
एक राग है भटियाली
‘बाउल संगीत से जुड़ा हुआ
अन्तिम स्वर को खुला छोड़ दिया जाता है
वायु मण्डल में लहराता हुआ
जैसे सम्पूर्ण जीवन राग से युक्त हुई एक ध्वनि
अनंत में विलीन हो गई।
इसमें राग भटियाली शब्द युग्म से कविता को समझने का प्रयास शुरू करते हैं। पाठक पढेंगे तो उन्हें लगेगा यह कोई राग होगा जिसके बारे में कवि कह रहे हैं। यह राग बाउल संगीत में होगा जैसा कि कविता में कहा गया है। किंतु यह कविता के अर्थ को खोलने में नाकाफी होगा। दरअसल राग भटियाली जैसा कोई राग हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रचलन में है ही नहीं। ऐसा कोई राग सुनने में नहीं आता। इतना ही नहीं यह बाउल संगीत से भी जुड़ा हुआ नहीं है। किन्तु तथ्य की कमी भाव-संचरण में गडबडी नहीं पैदा कर रही। संभव है कुछ सूत्र और हों जिन्हें पकड़ना शेष हो। दरअसल ‘भटियाली’ एक लोक धुन या लोक गीत का प्रकार है. यद्यपि वह बाउल संगीत से अलग है किंतु प्रेम का तत्त्व दोनों को एक करता है। बाउल ईश्वर से एकाकार करता है और भटियाली प्रकृति से। ईश्वर और प्रकृति से एकाकार होने की विराट प्रवृत्ति कवि को दोनों के बीच संबंध होने का आभास देती है और वह कविता में दोनों को एक साथ रख देता है। जो केवल साहित्य को जानने समझने वाला होगा वह ग़लत तथ्य के साथ इसकी अर्थ-छायाओं को ग्रहण करेगा और जो केवल संगीत को जानने समझने वाला होगा वह कविता को ही खारिज करता चलता बनेगा। दोनों स्थितियां ग़लत हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि सभी साहित्यकारों को संगीत सीखना चाहिए। बल्कि कहने का आशय यह है कि जब किसी कला-विशेष की चर्चा हो तब या तो उस विषय का संदर्भित अध्ययन किया जाए और यदि समयाभाव हो तो उस विधा के विशेषज्ञ से तो राय ली ही जा सकती है। इस तरह कुँवर नारायण की कई कविताएँ संगीत की व्यावहारिक समझ की अपेक्षा रखती हैं।
बाउल संगीत एक लोक गीत है जो बंगाल में फकीरों का गीत कहा जाता है। ‘बाउल’ यानी ‘बाउरी’ अर्थात् पागल। बाउल संगीत में भी बाउल शब्द पागल के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। जो दुनियाँ के प्रचलित मुहावरों में फिट न हो ; जो प्रचलित तरीके से जिन्दगी न जिए या जिन्दगी को न समझे वह बावरा है , पागल है। बाउल संगीत ऐसे ही पागल और फकीर साधुओं का संगीत है जो दुनियावी सोच से इतर हर चीज को ईश्वर से जोड़ते हैं और उसी अदृश्य की सत्ता में खोए रहते हैं। किन्हीं मायनों में सूफी संगीत के करीब। उधर ‘भटियाली’ एक लोक धुन है जो नौका चलाते हुए नाविकों का गान है। फिल्मी गीत के उदाहरण से शायद जल्दि समझ आए। आर डी बर्मन का संगीतबद्ध और किशोर कुमार द्वारा गाया ‘खुशबू’ फिल्म का वह गीत याद कीजिए – ‘‘ओ मांझी रे…अपना किनारा नदिया की धारा है….’’ । कुछ कुछ वेसा होता है धुन भटियाली । बंगाली लोक गीत ‘भटियाली’ आप निरमलेंदु चैधरी की आवाज में यू ट्यूब व अन्य माध्यमों से सुन सकते हैं। यह खुली आवाज में गाया जाता है और चूंकि नौका चलाते हुए नदी के बीच गाया जाता है अतः आवाज मानो तैरती हुई पूरे वातावरण में गूंजती रहती है। अब कविता की अगली पंक्ति देखिए-
‘ अंतिम स्वर को खुला छोड़ दिया जाता है’।
अंतिम स्वर को खुला छोड़ना संगीत की दृष्टि से अर्थ नहीं देता , यहाँ प्रतीकार्थ लेना होगा। खुला छोड़ दिया जाता है से तात्पर्य है कि खुली आवाज में गाते हुए अतिम स्वर (एंडिंग नोट) लहराता हुआ छोड़ा जाता है जो वातावरण की अन्य ध्वनियों में मिल जाता है। आगे लिखा भी है-
वायु मण्डल में लहराता हुआ
जैसे सम्पूर्ण जीवन राग से युक्त हुई एक ध्वनि
अनंत में विलीन हो गई।
वह स्वर वायु मण्डल में तैरता रहता है और धीरे-धीरे ध्वनि का लोप होता है। जैसे संपूर्ण जीवन अंततः अनिश्चय में लुप्त हो जाता है । यहाँ पर जीवन के अंतिम सत्य को राग भटियाली के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश की गई है। उन्होंने सांगीतिक शब्दावली का प्रयोग जीवन दर्शन की व्याख्या हेतु किया है।
कुँवर नारायण कहते हैं कि संगीत व्याकरण के तमाम पद – लय, ताल, सम स्वर, तान, आरोह-अवराह , वादी – प्रतिवादी, राग वैगरह उन्हें प्रेरक लगते हैं। संगीत की प्रस्तुतियों में संगत एक महत्त्वपूर्ण शब्द है। एक गायक या मुख्य वादक होता है और दो या तीन या उससे अधिक संगतकार होते हैं। गायक गाता है (या मुख्य वादक राग बजाता है) और संगतकार (वादक) उनकी संगत करते हैं। उसके स्वर में अपना स्वर मिलाते हैं, उसकी लय में अपनी लय मिलाते हैं। और सब मिल कर एक संगीत उत्पन्न करते हैं। इस प्रक्रिया में जीवन की व्याख्या का एक कोण कुँवर नारायण ढूंढ लेते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘संगीत से जुड़ा एक सुपरिचित शब्द है -संगत। विभिन्न वाद्यों का मूल गायकी के साथ योग। मुझे हमेशा ऐसा लगा कि मानो एक जीवन राग में बंधी अनेक ध्वनियों का सरस सामंजस्य, जिसमें केवल सजीव गायक ही नहीं , निर्जीव वाद्य तक जी उठते हैं। ध्वनियों का यह संसार हमें आकृष्ठ करता है क्योंकि उसमें विविधता भी है और संतुलन भी , और दोनों ही अत्यंत सधे ढंग से विस्तृत होते हुए निष्पत्ति तक पहुंचते हैं।’’
आप देखें कि कुंवर नारायण संगीत के एक पारिभाषिक शब्द ‘संगत’ से जीवन का एक महत्त्वपूर्ण दर्शन विविधता और संतुलन प्रस्तुत करते हैं। उसी तरह शास्त्रीय संगीत के ख्याल गायन में जब कोई कलाकार अपनी प्रस्तुति देता है तब प्रायः (ऐसा जरूरी नहीं है) वह बिलम्बित लय में गायन प्रारंभ करता है और उसके बाद मध्य लय व द्रुत लय में ख्याल प्रस्तुत कर अपना गायन समाप्त करता है। इस बेहद अलिखित व्यावहारिक परिपाटी में कुँवर नारायण जीवन के गहरे अर्थों को प्रकट करने का कारण ढूंढ़ लेते हैं। इतना ही नहीं संगीत की प्रभावात्मकता के कारणों की भी बेहद मौलिक व्याख्या कर डालते हैं जिससे संगीत जगत भी वैचारिकी के स्तर पर कुछ पा सकता है। वे लिखते हैं -‘‘ साधारणतः एक राग बिलम्बित में आलाप से शुरू होकर द्रुत से होता हुआ समापन तक पहुंचता है-या अन्त में विलय होता है। जीवन की गति इससे उल्टी होती है। तीव्र अथवा द्रुत- चंचल से शुरू होकर वह क्रमशः एक समापन या अंत में ठहर जाती है। संगीत स हमें जो एक राहत से मिलती है उसके मूल में हो सकता है कहीं यह व्यतिक्रम अथवा विपर्यय भी एक कारण हो जो जीवन-ऊर्जा का एक बढत के रूप में एहसास कराता है- उत्कर्ष के चरम पर उसे ठहरा देता है ना कि अपकर्ष में उसे समाप्त करता है। शाब्दिक कलाओं में -खासकर कविताओं में- जीवन-वस्तु को अक्सर हम तरंगों में जीते हैं, उसके तीव्रतम (स्मरणीय) क्षणों में, ना कि कालक्रमानुसार बिलम्बित में। यह कहीं हमारी जीवन-ऊर्जा को जगाए रखने की एक युक्ति भी है।’’ और जब संगीत की दृष्टि से कहीं आपको यह लगने लगे कि कुँवर जी का यह कथन खाँटी साहित्यिक है और इसका संगीत जगत के लिए कोई मोल नही तब अपने मत के पक्ष दिया उनका बयान उनकी तार्किकता के पक्ष में नतमस्तक सा कर देने वाला है- ‘‘तात्पर्य यह है कि जब एक रचनाकार अन्य कलाओं से प्रेरणा पाता है तो उसकी व्याख्या में उसकी अपनी रचनाशीलता की ज़रूरतें प्रमुख हेाती हैं, अन्य कलाएँ या कला-वस्तुएँ भी उसके लिए उस कच्चे माल की तरह होती हैं जिनका वह बिल्कुल अपनी तरह से इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र होता है। ’’ और अपने कहे हुए की सार्थकता सिद्ध करते हुए घोषित करते हुए कहते हैं – ‘‘ किसी अन्य कला को लेकर एक रचनाकार की नितान्त निजी ढंग की प्रतिक्रियाओं का भी आनुषांगिक महत्त्व है-खासकर उसकी अपनी रचनाधर्मिता में।’’
और अब हम आते हैं सबसे अंतिम सवाल पर कि संगीत के विचारात्मक धरातल पर उनका स्टैण्ड क्या है? क्या वह कोई ऐसी बात कहते हैं या विमर्श प्रस्तुत करते हैं जिससे संगीत या कला जगत को सोचने और समझने के लिए उर्वर भूमि मिले या बहस की गुंजाइश बने? इस संदर्भ में हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि कुंवर जी संगीत के औपचारिक शिक्षण से प्राप्त ज्ञानी नहीं थे। संगीत से जुड़़ा उनका ज्ञान मूलतः संगीत-प्रस्तुतियों का ज्ञान है। किंतु उनकी विशिष्टता और उनका बड़प्पन इस बात में है कि वे इसे कहीं भी छुपाने का प्रयास नहीं करते । बल्कि कलाओं के अंतर्सम्बन्धों की दृष्टि से ही संगीत की शब्दावली का सार्थक प्रयोग करते हैं।
संगीत उनकी कविता को बहुरंग प्रदान नहीं करता। वह उनकी कविता को विविधता या वैशिष्ट्य नहीं देता अपितु वह उनकी कविता के शरीर से हाड़-मांस की तरह जुड़ा हुआ है। उसे अलग करके नहीं देखा जा सकता । कुँवर नारायण ने संगीत जगत और उस बहाने अन्य कलाम माध्यमों में आने वाले बदलावों , परंपरा और आधुनिकता को लेकर उसकी अवस्थिति और उसके पीछे के कारणों की सटीक व्याख्या की है। यह व्याख्या कला जगत में चर्चा की अपेक्षा रखती हैं-
‘‘इस अन्तर की ओर भी ध्यान जाना चाहिए कि सभी कलाएँ बराबर से परिवर्तित और विकसित नहीं होती हैं। अनेक कलाओं के -खासकर प्रदर्शित की जाने वाली कलाओं के -पारम्परिक रूप कम बदलते हैं जबकि शाब्दिक कलाओं के रूप , भाषाई होने के कारण बहुत तेजी से बदलते हैं। आधुनिकता के साथ जिस तेज़ी से कविता , साहित्य और चित्रकला के रूप बदलते रहे, संगीत और नृत्य नहीं बदले। उनका मूल सौन्दर्य-बोध पारंपरिकता से शक्ति ग्रहण करता है। साहित्य ने ‘परम्परा’ के अर्थ को आधुनिकता तक विस्तृत किया।’’
और फिर संगीत और साहित्य में होने वाले बदलावों की बुनियादी फर्क को वे उदाहरण से स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं –
‘‘कुमार गन्धर्व के गायन में कबीर का अर्थ वही नहीं है जो अशोक वापपेयी की कविता (बहुरी अकेला) में कुमार गन्धर्व का अर्थ है। कबीर के भजनों की लोक गायन की अनेक शैलियां प्रचलित हैं. कुमार उन पारम्परिक शैलियों को ख्याल गायकी का नया अंदाज और परिमार्जन देते हैं।’’
कुँवर नारायण जीवन के निर्लेपी व्याख्याता कवि हैं। सीधी बात केा सच्ची प्रकार से कहने वाले कवि । उनकी कविता में वस्तु के स्तर पर मिथकों का व प्रतीकों का प्रयोग हुआ है किंतु बात कहने का अंदाज बेहद सीधा और प्रामाणिक है। अनुभूति की प्रामाणिकता भाषा की सहजता कुँवर नारायण की कविता का संसार रचती हैं। वे कहीं भी एकांगी , एक पक्षीय या सीधी लकीर जैसी बात नहीं कहते। यही कारण है कि खास विचारधारा से प्रतिबद्ध आलोचकों ने या तो उन्हें निशाना बनाया या उनकी उपेक्षा की। उनकी कविता में एक खास तरह का फैलाव है जो जीवन का फैलाव है। जटिलता के जो बिंतु उभरते हैं वे जीवन की जटिलताएँ है। कुल मिलाकर वे जीवन के कवि हैं। इस हेतु वे कविता की अभिव्यक्ति क्षमता को बढाने और अर्थ के व्यापक फैलाव के लिए अन्य कलाओं के साथ उसके सह-अस्तित्व की बात करते हैं। वे कहते हैं कि श्रेष्ठ कलाओं में अन्तर्विरोध नहीं होते, विभिन्नताओं का समन्वय और सहअस्तित्व होता है। लिखते हैं – ‘‘ मैं हर कला को प्रमुखतः एक जटिल संरचना के रूप में देखता हूँ। उसका उस रूप् में होना बहुत कुछ वैसा ही है जैसा कि जीवन या प्रकृति का एक सरल जीवांश से विकसित होकर इतनी बड़ी सृष्टि में बन जाना रहा होगा। कुँवर नारायण की कविता को और उनके कवि- हृदय को समझने के लिए संगीत और अन्य कलाओं के माध्यम से अपनी बात कहने वाली कविताओं को समझना होगा। इनमें विशेषकर ‘नीरो का संगीत प्रेम’, ‘पत्थर के प्राण’, ‘हवेली की दर्शक दीर्घा से’, ‘राग भटियाली’ आदि कविताएं महत्त्वपूर्ण हैं। इन कविताओं के आलोक में और उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियों, लेखों और साक्षात्कारों के आधार पर यह प्रामाणिकता के साथ कहा जा सकता है कि कुँवर नारायण हमारे समय के सम्पूर्ण क्षमताओं से लबरेज सच्चे कलाकार कवि थे। उनकी अन्तर्कला विषयक व्याख्या का एक बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य अभी हम सबको करना है।
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