कथाकार भीष्म साहनी : एक नज़र
डॉ गुंजन कुमार झा
स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कहानी अनेक आंदालनों और वादों के बावजूद जिन्दगी की एक मुकम्मल तस्वीर प्रस्तुत करती है। यों मुकम्ल तस्वीर की जब बात होती है तब उसमें वह अधूरापन भी शामिल रहता ही है जो आधुनिक जीवन का सत्य है और जिसकी अनुगूंज हमें नई कहानी में सुनाई पड़ती ही है। भीष्म साहनी स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कहानी के उन कहानीकारों में से हैं जो किसी वाद और आंदालन के पैमानों पर नहीं कसे जा सकते। तमाम वादों और आंदालनों के प्रचलित व्याकरण को भीष्म साहनी का रचनाकार-व्यक्तित्व बराबर तोड़ता चलता है। अपनी सार्थक रचनाशीलता के माध्यम से उन्होंने हिन्दी कहानी को एक विस्तृत फलक प्रदान किया।
विभाजन की त्रासदी को महसूसने वाले रचनाकार भीष्म साहनी की रचनाओं में इस त्रासदी से उत्पन्न विसंगतियों का प्रामाणिक चित्रण तो मिलता ही है साथ ही टूटते मानवीय मूल्यों और निम्न वर्गीय चरित्रें की संघर्षशीलता का भी जीवंत विवरण मिलता है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी भीष्म साहनी कथाकार के रूप में अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। इनकी कहानियों की सफलता का सबसे बड़ा मंत्र यह माना जाता है कि वह सीधे जनता के आमफहम जीवन से अपना ईमानदार सरोकार रखती हैं। इस मायने में वह प्रेचचंद के बाद दूसरे ऐसे लेखक हैं जो कहानी को सीधे वास्तविक जगत से उठाते हैं। वास्तविक जगत की विडंबनापूर्ण स्थिति को भीष्म साहनी बड़ी सहजता और सादगी के साथ प्रस्तुत करते हैं। डॉ- नामवर सिंह के अनुसार-
‘‘ सादगी और सहजता भीष्म जी की कहानी कला की ऐसी खूबियाँ हैं जो प्रेमचंद के अलावा और कहीं नहीं दिखाई देती है। जीवन की विडंबनापूर्ण स्थितियों की पहचान भी भीष्म साहनी में अप्रतिम है। यह विडंबना उनकी अनेक अच्छी कहानियों की जान है। ’’
मार्क्सवाद भीष्म साहनी को राजनीति से नहीं बल्कि जीवन से और अधिक जोड़ने का जरिया बना है। भीष्म जी सच्चे अर्थो में प्रगतिवादी कहानीकार हैं। कह सकते हैं कि उनके साहित्य में प्रगतिवादिता और मार्क्सवादी विचारधारा नारे के रूप में नहीं, नजरिए के रूप में व्याप्त है। भीष्म जी की कहानियाँ एक ऐसा प्रतिपक्ष रचती हैं जो यथास्थितिवाद और जड़ता के विरूद्ध और तथाकथित भद्रजनों की शोषक संस्कृति के विरूद्ध मेहनत-मजदूरी करने वाली शोषित जनता के साथ खड़ी होती है। शोषित वर्ग के साथ उनका यह साथ खड़ा होना कहीं भी थोथली आक्रामकता के साथ नहीं है बल्कि उसमें एक खास किस्म का साहसिक इत्मिनान है जो गहरे रचनात्मक विश्वास से ही पैदा हो सकता है। नामवर जी के ही शब्दों में कि बिना आक्रामक हुए भी कोई लेखक प्रतिबद्ध हो सकता है इसकी सर्वोत्तम मिशाल भीष्म साहनी हैं।
सरलीकरण के लिए भीष्म साहनी को प्रेमचंद की परंपरा का कहानीकार मान लिया जाता है। किंतु भाषा, विषय और शैली सभी स्तरों पर भीष्म साहनी प्रेमचंद के आगे के रचनाकार हैं। भीष्म साहनी के युग में समकालीन प्रगतिवादी कहानीकारों की एक जमात थी। उनके ही समकाली यशपाल हैं। वे अपने समकालीन रचनाकारों से इस रूप में अलग चमकते हुए नजर आते हैं कि उनकी कहानी जब हम पढते हैं तब हम किसी खास विचार को नहीं बल्कि वास्तव में कहानी पढते हैं। दूसरे प्रगतिवादी कहानीकारों में पहले विचार आता है फिर कहानी आती है किन्तु भीष्म साहनी के यहाँ पहले कहानी आती है, विचार तो उसमें सहज ही गुम्फित रहते हैं। आप उनके उपन्यास ‘तमस’ को पढें चाहे ‘झरोखे’ को आपको यह तय करना मुश्किल हो जाएगा कि आप इसे विचार के कौन से पैमाने पर रखें क्योंकि इनमें जो तकलीफ है वह वैचारिक नहीं मानवीय है। इनके लेखन की यही आमफहमता इन्हें अनन्य बना देती है। किसी भी तरह के वादों के सींखचों में कैद नहीं रहने कारण ही उनकी कुछ रचनाएं अपने समय और समाज की ऐतिहासिक दस्तावेज को रूप इख्तियार कर चुकी हैं।
आज कल राष्ट्रवाद को लेकर एक बड़ी बहस छिड़ी हुई है। यह बहस दो अतिवादों के बीच फँसकर कई बार केवल मीडिया नियोजित नौटंकी भर लगती है। वास्तव में एक संप्रभु राष्ट्र की संकल्पना बगैर राष्ट्रवाद के संभव नहीं किंतु राष्ट्रवाद जब दूसरे राष्ट्रों अथवा विचारधाराओं से नफरत का कारक बनने लग जाए तब वह खतरनाक भी हो सकता है। इस खतरे की आहट हमें भीष्म साहनी के ‘वाडचू’ कहानी में मिलती है। चीनी वाडचू राष्ट्रवाद के उस छद्म रूप का शिकार बनता है जो किसी देश विशेष का होने की वजह से किसी को संदिग्ध बना देता है।
विभाजन की त्रासदी, फिरकापरस्ती और रूढ़िवादिता को भीष्म साहनी ने अपने जीवनानुभव से प्राप्त किया था इसलिए उनकी कहानियों में इनकी प्रामाणिक अभिव्यक्ति मिलती है। यह ध्यातव्य है कि अपनी भतीजी शबनम की शादी उसके मुसलमान मित्र से न करवाकर जबरन किसी दूसरे व्यक्ति से करवाने का परिणाम उसकी आत्महत्या के रूप में भीष्म साहनी ने झेला था। उस दंश को उनकी कहानियों में कई स्तरों पर पाया जा सकता है। फिरकापरस्ती की यह आहट ‘वाडचू’ में भी दिखाई पड़ती है। चीनी पर्यटक पर आधारित इस कहानी की एक स़्त्री पात्र है -नीलम। ‘वाडचू’ उससे मन ही मन प्यार करता है किंतु शुद्धतावाद के प्रहरी का भय उसे कभी यह बताने का अवसर नहीं देता। वह इसी खामोश मुहब्बत को मन में लिए सियासी नफरत की भेंट चढ जाता है।
भीष्म साहनी का कथा परिवेश अधिकतर शहरी मध्यवर्ग के जीवन को ही साथ लेकर बढता है। उनकी कहानियों के चरित्र स्वाभाविक गति से आगे बढते हैं। इसका कारण यह है कि कहानी के कथ्य की तरह वे कहानी के चरित्रें को भी वास्तविक जीवन से ही उठाने के पक्षधर रहे हैं। भीष्म साहनी लिखते हैं –
‘‘ कहानी लिखते समय हम स्थितियों – घटनाओं को तो वास्तविक जीवन में से अक्सर उठाते हैं साथ ही साथ पात्रों को भी उठाते हैं। घटना उस सक्रिय पात्र के साथ जुड़कर ही हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। पात्र काल्पनिक अथवा अमूर्त नहीं होता। जो विसंगति किसी विशेष स्थिति में पाई जाती है वैसी ही कोई विसंगति उस पात्र में भी पाई जा सकती है।
भीष्म साहनी की कहानियों में हमें स्त्री की जीवटता और उसके संघर्ष की बेहद प्रामाणिक तस्वीर मिलती है। संकटों से जूझती स्त्री पात्र बेहद स्वाभिमान के साथ जीती दिखाई पड़ती हैं। उनकी कहानी ‘तस्वीर’ में पति की असमय मृत्यू के पश्चात बेहद गरीबी की हालत में भी वह अपने ससुर को घर का कोई सामान बेचने नहीं देती। वहीं ‘चीफ की दावत’ में शामनाथ की माँ में यह जीवटता तब दिखाई पड़ती है जब थक हारकर दूखित मन से हरिद्वार जाने को मन बना लेती है तभी जब उसे यह पता चलता है कि उसे साहब के लिए फुलकारी बना देने से उसे तरक्की मिल सकती है मानो वह पूरी बिखरी ताकत को इकट्ठा करके बोलती है – ‘‘ तो मैं बना दूंगी , बेटा, जैसे बन पड़ेगा , बना दूंगी।“
वर्ग-संघर्ष, लिंग-भेद और शोषितों के पक्ष में अपनी आवाज दर्ज कराते हुए भीष्म साहनी एक इंकलाबी कथाकार के रूप में सामने आते हैं। शोषित वर्ग के दर्द को व्यक्त करते हुए साहनी जी शोषक वर्ग के चरित्र को स्पष्ट करने से भी नहीं चूकते। इसीसे उनकी कहानियाँ नारों की कहानी बनने के बजाए विचारोत्तेजक और भावोत्पादक कहानियाँ बन जाती हैं। ‘पिकनिक’ कहानी हाशिए पर जी रहे निम्न वर्ग की संघर्षशीलता और जिजीविषा की कहानी है। इस कहानी की नायिका दूसरों के घर में चुल्हा-चौका करने जाती है। नाम है गौरी। उसके जीवन को, उसकी नियति को, उसके संघर्ष को और उसकी आदतों को भीष्म जी ने बहुत सूक्ष्मता से उकेरने का प्रयास किया है। इसमें वे इतने सफल हुए हैं कि पाठक के मानस पटल पर गौरी की कहानी की पूरी झाँकी बिल्कुल ‘लाइव’ चलती रहती है।
‘गौरी’ जिस मुहल्ले में काम करती है वह उसके घर से मील भर की दूरी पर है। उसके तीन बच्चे हैं और चौथा पेट में है, तिस पर उसका एक छोटा भाई भी है । इन सबको भी गौरी को अपने साथ ही रखना पड़ता है क्योंकि घर में कोई सहारा नहीं है। उसका घरवाला कोई काम नहीं करता और उसी के पैसों पर टल्ली मारता है। वह जब-तब गौरी से झगड़ता है और उससे पैसे भी छीन लेता है।
गौरी के बच्चे दरिद्रतापूर्ण जीवन को जिस जीवटता से जीते हैं उसका सूक्ष्म विवरण भीष्म जी ने अपनी कहानी में दिया है। बच्चे मौसम के ठण्डेपन, माँ की गाली और गाड़ियों के खतरों के बीच सड़क के मध्य में खड़े होकर ‘गोल-चक्कर’ खेलते हैं। गौरी का छोटा भाई पोखर के किनारे लेटकर उसका गन्दा पानी पीना शुरू कर देता है। उधर इन हरकतों को देखकर फ्लैट में रहने वाली गिडवानी की पत्नी अपने बेटे को यह दृश्य दिखाती हुई कोसती है कि कैसे उन बच्चों को ठंड में भी जुखाम नहीं होता और गन्दे पानी से भी बीमारी नहीं होती जबकि गिडवानी के बच्चे गर्म कपड़ों और साफ पानी के बावजूद आए दिन बीमार पड़ते रहते हैं। लेखक के शब्दों में‘‘गौरी ने इस मुहल्ले शिशु-पालन की मिसाल कायम कर दी है।’’
इसी संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण स्थल तब आाता है जब गौरी के बच्चों को भूख लगती है और वे सिंधी सज्जन द्वारा धमार्थ बाँटे जा रहे ‘स्लाइस’ की ओर भागते हैं। उधर गिडवानी की पत्नी भी तीन दिन पुरानी बासी रोटी व सालन चबूतरे पर रख देती है । उसे गाय भी खा सकती है, कुत्ते भी और गौरी के बच्चे भी। इत्तेफाक से और किस्मत से गाय और कुत्तों से पहले गौरी के बच्चे इसे हासिल करते हैं और बड़े चाव से आपस में खाने लगते हैं। मिसिज गिडवानी पुनः अपने बच्चे को ताना मारती है- ‘‘ देखा? कैसी भूख से खाना खाते हैं! तुझे तो भूख ही नहीं लगती। बात-बात पर नखरे करता है, यह नहीं खाऊंगा, वह नहीं खाऊंगा। देख तो, लगता है जैसे ‘पिकनिक’ कर रहे हैं। ’’
गौरी के बच्चे के इस ‘पिकनिक’ की विडंबना को ही कहानी में प्रगट किया गया है। इसी से कहानी का नाम सार्थक जान पड़ता है।
गौरी और उसके बच्चों की चुनौतियाँ इतनी भर नहीं हैं। गौरी काम पर जाने से पूर्व अपने बच्चों को बाबू हरगोपाल के घर के सामने की सूखी नाली में डालकर जाती है ताकि नाली की गहराई में बच्चा अटका रहे और घिसटकर सड़क की ओर न जाए। किंतु कुछ दिनों से बाबू हरगोपाल ने अपनी दुकान के बक्से उस नाली में रखवा दिए हैं इसलिए गौरी वहाँ खाट ले जाती है ताकि अपने बच्चों को उसपर लिटा दे। किंतु स्थिति की विभत्सता तब खुलकर सामने आती है जब उसे कहीं खाट रखने की भी जगह नहीं मिलती। जब वह पड़ोस के डॉक्टर साहब के घर के सामने खाट रखना चाहती है तो देखती है कि डॉक्टर साहब ने वहाँ अपनी गाड़ी पार्क कर दी है। गौरी जानती है यह सब उसे नहीं बैठने देने की साजिश है। अन्ततः वह वकील के घर के सामने अपनी खाट डालकर बच्चों को उसपर लिटा कर काम पर चली जाती है।
उधर वकील की पत्नी को इसमें परेशानी है कि गौरी ने उसके घर के सामने ही खाट क्यों रखी? वह उसे हटाने के लिए हरसंभव कोशिश करती है। पहले तो वह स्वयं खाट को खिसकाकर सड़क के दूसरी तरफ कर देती है किंतु गौरी इससे कहाँ टलने वाली थी । वह पुनः अपना खाट वहाँ ले आती है। वकील की पत्नी पुलिस की भी धमकी देती है किंतु गौरी भी डरने वाली नहीं थी। उसे पता है कि सड़क किसी की नहीं है और सबकी है। अंततः वकील की पत्नी पड़ोस से कुत्ता ले आती है। ताकि कुत्ता देखकर बच्चे डरकर भाग जाएं।
कहानी का ‘क्लाइमेक्स’ तब आता है जब वकील की पत्नी एक लंबी रस्सी से कुत्ते को गेट पर बांधने के बाद घर बंद कर लेती है और कुछ देर बाद उसे बच्चों के चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ती है। उसे लगता है कुत्ते ने बच्चे को काट खाया है – वह बाहर जाकर देखती है तो होंठ काट के रह जाती है। जिस कुत्ते को उसने बच्चों को डराने के लिए रख छोड़ा था वह बच्चों के साथ खेल रहा था। किंतु काम से वापस जाते हुए गौरी यह समझ जाती है कि उस दरवाजे से भी उसका ठौर उठ गया है।
इस प्रकार ‘पिकनिक’ कहानी में मनुष्य और मनुष्य के एक अमानवीय फर्क को तमाम विडंबनाओं सहित प्रदर्शित किया गया है। ऐसा लगता है कि पूंजीवादी व्यवस्था ने मनुष्य और मनुष्य के बीच घृणा की एक दीवार निर्मित कर दी है। सृजनहीन यांत्रिक आधुनिकता के कारण हर आदमी के मन में घृणा है। घृणा एक तरह से धुन्ध की तरह सड़कों पर तैरती है। राजेश्वर सक्सेना लिखते हैं- ‘‘ इस घृणा के मूल में है शोषण और अतिरिक्त मूल्य की संस्कृति, जिसमें एक वर्ग अपनी संपन्नता में जानवर बन जाता है, दूसरा वर्ग अपनी विपन्नता में जानवर जैसा रह जाता है। ’’
कहा जा सकता है कि चाहे विभाजन की त्रसदी हो , चाहे आधुनिक जीवन शैली की विद्रूपताएं हों , चाहे राष्ट्रवाद के विकृत रूप का जहर हो और चाहे सामंतवादी सोच का खोखला चेहरा। चाहे शोषित वर्ग की पीड़ा और जीवटता हो चाहे स़्त्री के अपने संघर्ष की कहानी; सभी कुछ भीष्म साहनी की कहानियों में नजर आते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात कई तरह के वादों में विकसित कहानी विधा भीष्म साहनी के हाथों में पहुँचकर अपने को बेहद बेलौस और सहज रूप में प्रस्तुत करती है। यही एक कथाकार के रूप भीष्म साहनी के सबसे बड़ी सफलता है।
Leave a Comment