ग़ज़ल गायकी और मेंहदी हसन
डॉ गुंजन कुमार झा
ग़ज़ल साहित्य की ऐसी विधा है जो संगीत के बेहद करीब मानी जाती है। इसकी छंदोबद्धता, संक्षिप्तता और चमत्कारिकता इसे गाने के सबसे माकूल विधा बनाती है। इसमें कोई संशय नहीं कि ग़ज़ल एक मजबूत साहित्यिक विधा है और करीब तीन सौ वर्षों से यह माशूका से बातचीत के लहजे में अपने समय से संवाद करता आ रहा है तथापि संगीत ने ग़ज़ल को आमफहम बनाकर इसे जो व्यापकता प्रदान की वह इसे ख़ास बनाती है। गजल गायकों ने देश-विदेश में इसकी विशिष्ट पहचान बनाई. ग़ज़ल गायकी के नए आयाम स्थापित किये. इस तरह संगीत की एक विशिष्ट धारा भी बनी – ग़ज़ल गायकी.
भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदी और उर्दू की जबान की एक बड़ी आबादी ने वर्षों इस गायकी को अपनी श्रुत-संसार में पलकों पर बिठाया. ग़ज़ल गायकों को प्यार और सम्मान की ऐसी नेमतें बख्शीं कि वे जीवित उदाहरण बन गए.
गजल गायकी के कुछ प्रमुख नाम हैं – बेगम अख्तर, मेंहदी हसन, फरीदा खानम,जगजीत सिंह, गुलाम अली आदि। दशकों से भारतीय उपमहाद्वीप में ग़ज़ल गायन के शीर्ष पर प्रायः तीन ग़ज़लकारों का नाम रहा – मेंहदी हसन, जगजीत सिंह एवं गुलाम अली। पिछला वर्ष इस मायने में बहुत दुखद रहा कि ग़ज़ल के तीन दिग्गजों में से दो का स्वर्गवास हो गया । पहले जगजीत सिंह गए—–उनके जाने का ग़म अभी कम न हुआ था कि मेंहदी हसन साहब भी चले गए।
ग़ज़ल पिछले लगभग दो दशक से अपनी लोकप्रियता के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा हैं। ग़ज़ल की सबसे बड़ी त्रसदी भी यही रही कि जिन गायकों ने अपनी गायन प्रतिभा से इसे आसमान की ऊंचाईयों पर ला खड़ा किया उन्हीं ग़ायकों के जीते जी ग़ज़ल लोकप्रियता की जमीन पर लडखडाती नजर आई. ग़ज़ल उनके जीते जी मुख्यधारा के संगीत से लगभग गायब होती गयी और ये गायक सिवाय उसे देखते रहने के कुछ न कर सके। इस मायने में जगजीत सिंह और गुलाम अली से थोड़ी बहुत शिकायत हेा सकती है कि उन्होंने कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं किए किंतु मेंहदी हसन साहब से ये शिकायत नहीं की जा सकती क्योंकि 80 के दशक के अंतिम वर्षों में ही उन्होंने गाना छोड़ दिया था । यह सोच कर मन पीड़ा से ग्रसित हो जाता है कि एक गायक जब अपनी शारीरिक व्याधि के चलते गाना न गा सकता होगा तो उसके हृदय में कैसी टीस उठती होगी। मेंहदी हसन की उस टीस को कोई गायक ही समझ सकता है।
मेंहदी हसन आवाज की दुनियां , विशेष कर ग़ज़ल गायकी के खुदा थे। लता मंगेशकर का यह कथन बिल्कुल सटीक है कि उनकी आवाज ‘ईश्वर की आवाज है’। आवाज और गायकी के इस भगवान ने 13 जून 2012 को इस दुनियां से अलविदा कह दिया और नित्शे का कथन जो ‘वेस्टलैंड’ की रचना के बाद कहा गया – ‘‘ इश्वर मर गया ’’ उसे ग़ज़ल के इस महान गुलुकार की मौत पर पुनः कहने का मन करता है।
ऐसा नहीं कि मेंहदी साहब थे तो बहुत गा रहे थे या कि ग़ज़ल के अवसान की रफ्तार धीमी थी। अपने अशक्त शरीर के साथ वे ग़ज़ल के अवसान को देखने को अभिशप्त थे। किंतु उनके होने मात्र से कम से कम एक इत्मिनान सा था कि अभी मेंहदी हसन हैं न । अब वह इत्मिनान भी न रहा। मेंहदी हसन का जाना एक उम्मीदों और इत्मिनानों का भी चला जाना है.
मेंहदी हसन का जीवन संघर्ष की एक अप्रतिम कहानी है। इनका जन्म 18 जुलाई 1927 को राजस्थान के झुंझनू के लूणा गांव में हुआ। पिता उस्ताद अज़ीम खान और चाचा उ- इस्माइल खां तत्कालीन प्रसिद्ध गायक थे। इन्हीं के द्वारा मेंहदी हसन को संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त हुई। ध्रुपद जो हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की प्राचीनतम् विधा है उसमें मेंहदी हसन साहब बचपन से ही पारंगत हो गए थे। पिता और चाचा ने मेंहदी हसन के गले को शास्त्रीय संगीत के अनुकूल तैयार किया। गले में खटका,मुर्की और लेाच का सौन्दर्य मेंहदी हसन ने रियाज के माघ्यम से प्राप्त किया। तीनों सप्तकों में विचरती इनकी आवाज में जो वितान है वह विरले गायकों को प्राप्त होता है।
संगीत की आधारभूत शिक्षा प्राप्त करने के बाद इससे पहले कि वे कोई पहचान बना पाते कि भारत – पाक बंटवारा, हो गया। घर-बार छोड़कर हसन साहब का पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया। यहाँ हसन साहब को बेहद मुफलिसी का दौर देखना पड़ा। मेंहदी हसन को खर्च चलाने के लिए साइकिल की दुकान में काम करना पड़ा। इस तरह वे मैकेनिक के रूप में दिन भर काम करते और शाम को रियाज।
मुफलिसी के दौर में भी मेंहदी हसन अपने सपनों केा नहीं भूले थे। आखिरकार सन् 1957 में रेडियो पाकिस्तान से उन्होंने गाना शुरू किया और बतौर ठुमरी गायक उनकी पहचान बननी शुरू हुई। उनकी कामयाबी का सफर शुरू हुआ। मेंहदी हसन साहब के ग़ज़ल कार्यक्रम दुनियां भर में आयाजित होने लगे। कई पाकिस्तानी फिल्मों में गाने के बाद और प्रतिष्ठित समारोहों में अपनी गायकी का लोहा मनवाने के बाद वे ग़ज़ल गायकी की दुनियां के ध्रुवतारा बन चुके थे. किन्तु बदकिस्मती के साथ उनका कोई पुराना करार था शायद. उनकी तबीयत ख़राब हुई और ऐसी ख़राब हुई कि 1980 के दशक में उन्होंने गायकी छोड़ दी और काफी समय तक संगीत से दूरी बनाए रखना उनकी मजबूरी बन गयी. अक्टूबर 2012 में एच-एम-वी- कम्पनी ने उनका एलबम ‘सरहदे’ रिलीज किया जिसमे उन्होंने पहली और आखिरी बार लता मंशेकर के साथ दोगाना भी गाया। कुल मिलाकर 1957 से 1999 तक वे सक्रिय रहे।
मेंहदी साहब गले के कैंसर के कारण लगभग बारह वर्षों तक गायकी से दूर रहे. उनकी अंतिम रिकॉर्डिंग 2010 में ‘सरहदें’ नाम से आईं जिसमें फरहत शहजाद की लिखी ‘तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है’ की रिकॉर्डिंग इन्होंने 2009 में पाकिस्तान में की और उस ट्रैक को सुनकर 2010 में लता मंगेशकर ने ‘रिकॉर्डिंग मुम्बई में की । इस तरह यह युगल एलबम तैया हुआ। यह उनकी गायकी का जादू ही है कि बकौल लता मंगेशकर तन्हाई में वे मेंहदी हसन को सुनना बेहद पसंद करती हैं।
मेंहदी हसन ऐसे गजल गायक के रूप में जाने जाते हैं जो शास्त्रीय संगीत के रागों के प्रयोग बहुत खूबसूरती के साथ करते हैं। ऐसे गायक कम हुए जिनमें ये काबिलियत मौजूद रही। उनकी कुछ मशहूर गजलें हिन्दुस्तानी संगीत के रागों की जबरदस्त उदाहरण हैं। उन रागों का पूरा रूप उन गजलों में देखने को मिल जाता है। मसलन:-
राग यमन- रंजिश ही सही , दिल ही दुखाने के लिए आ —
राग अहीर भैरव- हमें कोई ग़म नहीं था, गमें आशिकी से पहले —
राग बागेश्री – दिल की बात लबों तक लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं—
राग बहार – फूल ही फूल खिल उठे, मेरे पैमाने में _ आप क्या आए , बहार आ गई मैखाने में—
राग भैरवी – यारों किसी का़तिल से कभी प्यार न मांगो—
राग भंकार – खुली जो आंख, वो था—
राग भीमपलासी-जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं—मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा
राग बिलावल – यूं न मिल मुझसे , खफा हो जैसे—
राग भूपेश्वरी- अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलेकृजैसे सूखे हुए फूल िक़ताबों में मिले-
राग भूपाली – दुनियां किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं,,,
राग गारा – पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा , हाल हमारा जाने हैकृ
राग गौड़ सारंग- भूली-बिसरी चंद उम्मीदें, चंद फसाने याद आए—
राग जंगला भैरवी-खुदा करे कि मुहब्बत में वो मक़ाम आए
राग झिंझोटी- सता सता के हमें
गुलों ने रंग भरे—–
तनहा तनहा मत सोचा कर —
राग जोगिया – ग़ज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया
राग काफी – प्यार भरे , दो शर्मीले नैन
रफ्ता रफ्ता वो मेरे —
राग खमाज – मुहब्बत करने वाले कम न होंगे
राग किरवानी – शोला था जल बुझा हूं
राग मालकौंश – क्या भला मुझको परखने का नतीजा निकला
राग मांड – हम ही में थी न कोई बात
राग मिंया की मल्हार – एक बस तू ही नहीं
राग पहाड़ी – बात करनी मुझे मुश्किल
राग पठदीप – रौशन जमाल-ए-यार
राग पीलू – कैसे छुपाऊं राज़-ए-ग़म
गुन्चाए शोक लगा है खिलने
राग रागेश्री – देख तो दिल की जां से उठता है ये धुआं सा कहां से उठता है
मुझे तुम नजर से मिला तो रहे हो
राग सारंग – नवाजिश करम शुक्रिया मेहरबानी
मेंहदी हसन ने उक्त रागों का जिस मधुरता के साथ प्रयोग किया यह युग की एक बड़ी घटना है। किसी हिंदुस्तानी राग को इस तरह गाया जा सकता है यह उनकी गायकी सुनने से पूर्व सोचना मुश्किल था.
शायरों के चयन में मेंहदी हसन का जवाब नहीं था। उन्होंने कभी सस्ती लोकप्रियता का सहारा नहीं लिया। गजलें भी वही गाने के लिए चुनीं जिनमें कुछ बात थी। हल्की गजलों के चक्कर में कभी नहीं पड़े। बल्कि कहना तो यह चाहिए कि उन्होंने गंभीर और दुरूह से प्रतीत होने वाली ग़जलों को भी अपनी गायकी के जरिए आम श्रोताओं में मशहूर कर दिया। ग़ज़लों का सटीक चुनाव उन्हें अप्रतिम बनाता है.
आज मेंहदी हसन साहब हमारे बीच नहीं हैं. उनकी गायकी ग़ज़ल के करोड़ों चाहने वालों के लिए और हजारों गाने वालों के लिए किसी खजाने से कम नहीं. मेहदी साहब की गायकी शायरी की अर्थ-छायाओं को स्वर-विस्तार के माध्यम से नया फलक प्रदान करती है. इस तरह वे सिर्फ ग़ज़ल गायक न होकर ग़ज़ल के सांगीतिक व्याख्याता बन जाते हैं. शायरी के अर्थों की गिरह को उनका स्वर (लगाव और बनाव) खोल देता है. कहा जाता है कि ग़ज़ल गाया नहीं, कहा जाता है. मेंहदी हसन साहब ग़ज़ल को कहते हैं , स्वरों के विस्तार के माध्यम से. इसलिए वे सुनने वाले के लिए तो आस्वाद का एक समंदर बन ही जाते हैं , नए गायकों के लिए एक विश्वविद्यालय बन जाते हैं.
डॉ गुंजन कुमार झा
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