हिन्दी सांस्कृतिक पत्रकारिता का चरित्र
डॉ गुंजन कुमार झा
एक प्रतिष्ठित हिन्दी अखबार में मैं शास्त्रीय संगीत के एक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग पढ रहा था। रिपोर्टिंग करने वाली संभ्रांत संगीत समालोचक मानी जाती हैं। उसमें लिखा था कि अमुक जगह कार्यक्रम हुआ जिसमें अमुक कलाकार ने अपनी मनभावन प्रस्तुति दी। उन्होंने अमुक राग प्रस्तुत किया। उस राग में उन्होंने बड़ा ख्याल गाया , उसके बाद छोटा ख्याल गाया। उन्होंने बड़ा ख्याल में आलाप भी लिया और तानें भी लीं। यह पढ़ कर आम अखबार पाठक को शायद कुछ पता न चले किंतु शास्त्रीय संगीत का साधारण श्रोता भी यह पढकर हँसेगा। क्योंकि यह कुछ उसी तरह की रिपोर्टिंग है कि मानो कोई क्रिकेट का समालोचक यह लिखे कि बैटिंग करते हुए विराट कोहली ने बल्ले को हाथ से उठाया और उसे गेंद पर भी मारा। फिर भागकर उन्होंने रन भी लिया।
दरअसल शास्त्रीय संगीत जैसी विधा पर ऐसी सतही रिपोर्टिंग हमारे यहाँ आम है क्योंकि संगीत और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों की पत्रकारिता को हमारे यहाँ कभी तवज्जो दी ही नहीं गई। सच तो यह है कि अखबार और खबरिया चैनल्स पुलिस थानों से जुटाई गई सनसनीखेज आपराधिक घटनाओं की चटखदार प्रस्तुति या सतही राजनीतिक आख्यान भर हैं यदि उनमें सांस्कृतिक पत्रकारिता नहीं है। दुर्भाग्यवश ऐसा ही है। सांस्कृतिक पत्रकारिता को अभी अपनी गंभीरता भी पानी है और लोकप्रियता भी।
सांस्कृतिक पत्रकारिता के लिए अंग्रेजी में ‘कल्चरल जर्नलिज्म’ पद प्रचलित है। भारतीय मूल की ब्रिटिश लेखिका माया जग्गी लिखती हैं कि सांस्कृतिक पत्रकारिता की मुख्य चिंता कला और रचनात्मक जगत है। यहाँ कला शब्द सामान्यतः साहित्य, दृश्य-कला, संगीत, फिल्म, रंगमंच, नृत्य, फोटोग्राफी और चित्रकारी आदि को समाहित किए हुए है। सांस्कृतिक पत्रकारिता पारंपरिक और आधुनिक, शास्त्रीय और लोक , खासप्रिय और लोकप्रिय सभी तरह की कलाओं को अपना विषय बनाती है। संस्कृति की सामाजिक विकास में भूमिका और बढ़ती सांस्कृतिक समझ के कारण सांस्कृतिक पत्रकारिता का महत्त्व और अधिक बढ गया है। इस संदर्भ में वर्तमान में पश्चिम में एडवर्ड सैड, जॉर्ज स्टेनर, उम्ब्रेटो एको और स्टुअर्ट हॉल आदि विद्वानों ने नई सोच विकसित की है। कहना न होगा कि संस्कृति के संदर्भ में पश्चिम काफी हद तक आगे बढकर देख रहा है। वह ‘सांस्कृतिक युद्ध’ की बात करता हैं, ‘सांस्कृतिक परिवर्तन’ की बात करता है।
हमारे यहाँ सस्कृति को बड़े श्रद्धापूर्ण ढंग से देखा जाता है जिसके कारण हम भक्ति भाव से तो संस्कृति की बात बहुत करते हैं किंतु तर्कपूर्ण ढंग से उसकी उपादेयता सिद्ध नहीं कर पाते। यही कारण है कि सांस्कृतिक पत्रकारिता हमारे यहाँ खाली स्थान भरे जाने का जरिया माना जाता है। यों खाली स्थान भरने का भी अपना भविष्य है यदि वह ईमानदारी से हो। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में आयोजित एक व्याक्ष्ख्यान में श्री भानुप्रताप नारायण सांस्कृतिक रिपोर्टिंग के उज्ज्वल भविष्य की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि आज प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया सभी जगहों पर समाचारों की कमी को इसी रिपोर्टिंग के माघ्यम से पूरा किया जाता है और वह दिन अब दूर नहीं कि जब प्रत्येक समाचार-पत्र में सांस्कृतिक रिपोर्टिंग के लिए अलग से एक उपसंपादक रखा जाने लगेगा।
समाज की मूल्य चेतना का नाम संस्कृति है। सांस्कृतिक पत्रकारिता मूल रूप से संस्कृति के अवयवों की पत्रकारिता है। कोई भी ‘राष्ट्र’ सिर्फ राजनीतिक सीमाओं का नाम नहीं है बल्कि वह एक सांस्कृतिक धरातल है जिस पर उस देश की जनता अपनी भावनात्मक और वैचारिक दुनियाँ विकसित करती है। सांस्कृतिक धरातल राजनीतिक सीमाओं से परे और मानवीय मन के स्तर तक अपनी पैठ रखता है। प्रो. चमन लाल गुप्त लिखते हैं कि ‘राष्ट्र’ ‘देश’ और ‘राज्य’ की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म एवं भावात्मक इकाई है जिसका आधार बोधात्मक, भावात्मक और वैचारिक एकता है। इसे हम सांस्कृतिक एकता कह सकते हैं।
कुछ चुनिंदा चक्रवर्ती राजाओं के समय को छोड़ दें तो भारत राजनीतिक रूप से सामान्यतः बँटा ही रहा किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से इसमें हमेशा एकता रही। राजनीतिक उथल-पुथल के समानांतर यहाँ का शासक वर्ग आपस में ही लड़ता -भिड़ता भी रहा किंतु देश का साधारण जन-मन सदा ही राजनीतिक सीमाओं से ऊपर रहा क्योंकि उसके लिए संस्कृति ही राष्ट्र का आधार थी। किसी पुण्य कार्य के लिए सात प्रमुख नदियों के जल को मिलाकर उसका उपयोग करने की लालसा में वह गाता था –
गंगे च ,यमुने चैव, गोदावरी सरस्वती
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन सन्निधि कुरू
तमाम तीर्थ स्थल जिनमें सात मोक्षदायी पुरी, बारह ज्योर्तिलिंग, बावन शक्ति पीठ, चार धाम , चार महाकुंभ आदि कभी भी राजनीतिक सीमाओं के भीतर न समा सके। रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथ हमेशा देश की बहुसंख्य जनता की मानसिक और वैचारिक संराचना का मूलाधार बने रहे। स्पष्ट है कि भारतीय जनमानस की एकता का मूल आधार सांस्कृतिक ही है अतः यह कहना ग़लत न होगा कि भारत का राष्ट्रवाद भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही है और इस दृष्टि से संस्कृति और सांस्कृतिक पत्रकारिता का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है।
भारत में यह कहावत आम है कि यहाँ हर तीन मील पर बोली, पाँच मील पर भाषा और दस मील पर पानी का स्वाद बदल जाता है। लगभग सभी धर्मों के लोग, कई सारी जातियाँ , जनजातियाँ अलग-अलग हिस्सों में निवास करती हैं। इन सब को एक सूत्र में पिरोने का काम संस्कृति ही करती है। संस्कृति और सभ्यता को प्रायः एक ही समझने का भ्रम कर लिया जाता है किंतु वास्तव में दोनों में गुणात्मक अंतर है। संस्कृति आंतरिक, बौद्धिक या मानसिक विकास है जो लोगों को अंतःसूत्र में बांधता हो वहीं सभ्यता एक सामाजिक शिष्टाचार है। सभ्यता बाह्य अनुशासन और संस्कृति भीतर की यात्रा है।
यह स्पष्ट है कि भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में आई नवजागरण की जो चेतना विकसित हुई और बीसवीं शताब्दी के आरंभ में सुधार की जो बयार बही उसमें सांस्कृतिक पत्रकारिता ने अपनी महती भूमिका निभाई। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन और थियोसोफिकल सोसायटी के धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण में सांस्कृतिक पत्रकारिता की भूमिका अहम थी। कहना न होगा इन ‘सोसायटीज’ ने प्रकाशन को बडे़ औाजार के रूप में इस्तेमाल किया और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपनी बात को जनमानस तक पहुंचाने की कोशिश की। यही ‘सांस्कृतिक पुर्नजागरण’ राष्ट्रीय चेतना का हेतु बना। सांस्कृतिक पत्रकारिता ने देशवासियों की धमनियों में स्वतंत्रता और समता का भाव प्रेषित कर, राष्ट्र प्रेम के भावों को जगाकर, राष्ट्रीय निष्ठा को पुष्ट किया।
स्वतंत्रता से पूर्व सांस्कृतिक पत्रकारिता के पास एक स्पष्ट ‘विजन’ था- राष्ट्रीय भावना का । हिन्दी पत्र – पत्रिकाओं के आधार पर यह कहा जा सकात है कि हिन्दी पत्रकारिता सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मजबूत वाहक बना। तद्युगीन पत्रकारिता की परिधि में यह कह सकते हैं कि राष्ट्रवादी पत्रकारिता , सांस्कृतिक राष्ट्रवादी पत्रकारिता और सांस्कृतिक पत्रकारिता में कोई स्पष्ट विभेद नहीं नजर आता ।
स्वतंत्रता के बाद पत्रकारिता मूलतः राजनीति और वैचारिकी की ओर मुड़ी। सांस्कृतिक पत्रकारिता ने धार्मिक आयोजनों की रिपोर्टिंग, खेल, मनोरंजन, संगीत और कला जगत की रिपोर्टिंग व समीक्षा में खुद को लगाया। यह न तो गैर जरूरी था और न गलत। यह अपने समय की आवश्यकता थी। किंतु दुःखद यह है कि राजनैतिक पत्रकारिता के समक्ष यह दोयम दर्जे की पत्रकारिता मानी जाने लगी।
अखबारों व टीवी चैनलों की पत्रकारिता में जिस प्रकार राजनीतिक व सामाजिक समालोचकों का स्थान त्वरित ‘ब्रेकिंग’ न्यूज ने लिया उसी प्रकार और उसी रफ्तार में अखबारों से ‘संपादकीय’ पृष्ठ छोटे होते गए। साहित्यिक व सांगीतिक समीक्षाओं के ‘काॅलम्स’ गायब होने लगे। टीवी पत्रकारिता कुछ सतही ‘डिबेट्स’ को कराकर श्रोताओं को उथले रूप में उत्तेजित तो कर देती हैं किंतु कोई मानसिक उत्तेजना या वैचारिक विमर्श नहीं खड़ा कर पाती। वहीं सांस्कृतिक पत्रकारिता के नाम पर टीवी पत्रकारिता में अब कुछ भी रचनात्मक शेष नहीं रह गया है।
सांकृतिक रिपोर्टिंग के मुआमले में हिन्दी और अंग्रेजी दोनों तरह के समाचार ‘चैनल्स’ में समानता की सी स्थिति है। अंग्रेजी चैनल्स प्रायः ग्रहों की दशा और भूत प्रेतों की कहानियों के चक्कर में नहीं पड़ते किेतु सांस्कृतिक पत्रकारिता के नाम पर वहाँ भी केवल एकांगी मनोरंजन जगत की चकाचैंध ही शेष है। हिन्दी ‘चैनल्स’ में सांस्कृतिक पत्रकारिता के नाम पर दोपहर को टीवी धारावाहिकों की दिलचस्प कहानियाँ सुनाई जाती हैं, शाम को फिल्मी अभिनेताओं के चटखदार किस्से कहानियां और यदा-कदा अंधविश्वास फैलाने वाले तंत्र-मंत्र के कार्यक्रम भी दिखाए जाते हैं। किंतु ये ‘चैनल्स’ साहित्य, संगीत, कला, रंगमंच , नृत्य आदि किसी भी रचनात्मक विषय पर कोई प्रस्तुति नहीं देते।
अखबारों से साहित्य समीक्षाओं, कला विश्लेषणों, सगीत समीक्षाओं , रंगमंच समीक्षाओं का दौर ढलान पर है। ऐसा नहीं कि यह सब पहले बहुत था और अब बिल्कुल नहीं है। पहले भी यह कम ही था किंतु लगभग सभी बडे अखबारों में रचनात्मक जगत की विचारोत्तेजक और सोैन्दर्य बोध विकसित करने वाली कलात्मक अभिरुचि से संबद्ध समाचार आते रहते थे।अब ये लगभग नदारद हो चले हैं। जहाँ छप रहीं हैं वहाँ सांस्कृतिक समालोचना के नाम पर ऐसी ऐसी ‘रिपोर्टिंग्स’ व ‘लेख’ छप रहे हैं कि जानकार व्यक्ति के लिए वह हास्यास्पद है और सामान्य पाठक के लिए दुरूह वअपठनीय। यों इक्के-दुक्के अंग्रेजी अखबार कला और संस्कृति की सामग्री को निरंतर उत्कृष्टता के साथ छाप रहे हैं। कहना पड़ेगा कि सांस्कृतिक पत्रकारिता के स्तर पर हिन्दी पत्रकारिता अंग्रेजी ही नहीं वरन कई प्रादेशिक भाषाओं से भी बहुत पीछे है।
ज़रुरत इस बात की है कि पत्रकारिता न सिर्फ पाठकों और प्रेक्षकों को ज्ञान दे, मनोरंजन दे अपितु उसकी रुचियों का परिष्करण भी करे। सांस्कृतिक पत्रकारिता को उचित स्थान देकर और विशेषज्ञों की सहभागिता से यह कार्य बहुत सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
संदर्भ सूची
भारतीय पत्रकारिता का इतिहास (पुस्तक) जे नटराजन
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मीडिया (लेख) डाॅ सौरभ मालवीय
साहित्य और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (लेख) प्रो. चमनलाल गुप्त
डॉ गुंजन कुमार झा
संक्षिप्त परिचयः
हिंदू कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) से बी.ए. हिन्दी ऑनर्स व एम.ए. हिन्दी. ; एम.फिल हिन्दी (हि.प्र.विवि)। दिल्ली विश्वविद्यालय से नाटक और संगीत विषय में पी-एच.डी. की उपाधि। हिन्दी विषय में यूजीसी द्वारा आयोजित ‘नेट’ एवं ‘जे.आर.एफ’ तथा अखिल भारतीय स्नातकोत्तर छात्रवृत्ति व फेलोशिप।
फैकल्टी ऑफ म्यूजिक (दिल्ली विश्वविद्यालय) से ‘संगीत शिरोमणी’, प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद से ‘संगीत प्रभाकर’, हि.प्र.विश्वविद्यालय से संगीत विषय में एम.ए.। संगीत विषय में यूजीसी द्वारा आयोजित ‘नेट, विभिन्न सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा कई उपाधियाँ।
हिन्दी साहित्य में बी.ए., एम.ए. एवं एम.फिल. तीनों में विश्वविद्यालय टॉपर व ‘स्वर्ण पदक’ विजेता। अकादमिक श्रेष्ठता हेतु दिल्ली विश्विद्यालय द्वारा ‘सरस्वती पुरस्कार, ‘मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार’, प्रो. सावित्री सिन्हा स्मृति स्वर्ण-पदक। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय द्वारा स्वर्ण पदक व राष्ट्रपति पुरस्कार।
अनेक विश्वविद्यालयों, संस्थाओं, और संगठनों द्वारा आयोजित विभिन्न साहित्यिक एवं सांगीतिक कार्यक्रमों, गोष्ठियों, प्रतियोगिताओं, कार्यशालाओं एवं परियोजना-कार्यों में सक्रिय भागीदारी एवं अनेक पुरस्कार व सम्मान अर्जित। आकाशवाणी के ग्रेडेड कलाकार व सौ से अधिक प्रस्तुतियाँ, अनेक कार्यक्रमों हेतु दूरदर्शन से संबद्ध। कई संगीत एलबम्स, नृत्य-नाटिकाओं, नाटकों एवं डॉक्यूमेंट्री फिल्म्स में गायन एवं गीत-संगीत रचना। तीन पुस्तकें एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सौ से अधिक रचनाएं व लेख प्रकाशित।
संप्रतिः गायन, लेखन एवं शिक्षण।
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