नाटकों में संगीत की महत्ता
डॉ गुंजन कुमार झा
नाटकों के मंचन में संगीत केवल एक सहयोगी तत्त्व ही नहीं अपितु एक अनिवार्य अंग है। भरत से लेकर आज तक संगीत नाटकों को न सिर्फ लोकप्रिय बनाता रहा है अपितु उसकी गूढ व्यंजनाओं को भी सरलीकृत रूप में लोक-हृदय तक पहँचाने में अपनी सार्थक भूमिका निभाता आ रहा है।
धनंजय के अनुसार काव्य-निबद्ध पात्रों की अवस्थाओं के अनुकरण को नाटक कहते हैं। ‘नाट्यशास्त्र’ के अनुसार इसमें सातों द्वीपों के निवासियों, देवताओं, असुरों, राजाओं, ऋषियों, गृहस्थों आदि के कार्यों और चरित्रों का अनुकरण किया जाता है। यानी नाटक सबका है। नाटक एक समवेती कला है क्योंकि यह सभी कलाओं को अपने भीतर समाविष्ट करती है, संगीत को विशेष रूप से।
नाटक अपने कथ्य में और शिल्प में चाहे जितना उत्कृष्ट हो, अपने आलेख में वह अधूरा है। उसकी सार्थकता रंगमंच पर उसके प्रस्तुतीकरण से ही तय होती है। यानी नाटक लिखी जाने के साथ मंचित होने की कला है। ठीक ऐसे ही जैसे गीतों की सार्थकता संगीत से तय होती है।
बर्नार्ड शॉ ने एक बार नाटकों की उत्पत्ति के संदर्भ में अपना मत प्रकट करते हुए कहा था – ‘नाटक हमारी दो उद्दाम प्रवृत्तियों के सम्मेलन से पैदा हुआ है – नृत्य देखने की प्रवृत्ति और कहानी सुनने की प्रवृत्ति।‘ इस उक्ति को यदि अपने देश के वातावरण में रखकर देखें तो नृत्य और इतिवृत्त के साथ संगीत को और समाविष्ट कर देना होगा। नाटक में यह गीतों के रूप में आता है और मंचन में संगीत और रंगमंचीय उपादेयक के रूप में।
गीत मानस की अंतर्यात्रा है। शब्दों की छन्दोबद्ध योजना गीत का शरीर तैयार करती है जिसमें भाव-प्रवणता, वैयक्तिकता, संवेदनात्मकता और सबसे बढ़कर संगीतात्मकता उसकी आत्मा बनकर प्रस्तुत होती है। छंदबद्धता, लयात्मकता और संगीतात्मकता के बगैर गीत का अस्तित्व संदेहास्पद होगा। गीतों के प्रयोग को नाटकों की संरचना में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसके अभाव में नाट्यानुभूति, नाट्य-संप्रेषण और रंगमंच सभी अधूरे माने जाते हैं। ये गीत कैसे हों और इनकी क्या भूमिकाएँ हो सकती है, इस पर आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी ने संक्षिप्त विश्लेषण किया है। वे लिखते हैं –
‘‘जिन गीतों में मनोभावों और अंतर्द्वन्द्वों का जितना स्पष्ट उल्लेख रहता है, वे उतने सफल समझे जाते हैं।“
उन्होंने ऐसे कई प्रकार के गीतों की चर्चा की जिनसे नाटक अधिक संप्रेषणीय और प्रभावी हो सकते हैं –
1- कथानक को अग्रसर करने वाले गीत
2- भाषा को उत्तेजित करने वाले गीत
3- रस को चरम सीमा तक पहुँचाने वाले गीत
4- पात्र के अंतर्मन को स्पष्ट करने वाले गीत
5- नाटक में स्वाभाविकता लाने वाले गीत।
इतनी सारी आंतरिक शक्तियों से लैस गीत परम्परा से नाटक और रंगमंच के अभिन्न अंग रहे हैं।
वास्तव में
“गान के साथ अभिनय व नृत्य की यह परंपरा हजार-पाँच सौ बरस से नहीं चली आ रही, भरत के नाट्यशास्त्र या महाभारत-रामायण के युग से भी नहीं चली आ रही। इसका मूल वैदिक युग से भी काफी पहले उस काल मे मिलता है, जब मनुष्य वैदिक जनों से काफी कम क्षमताओं वाले प्राणी के रुप में अलग-अलग समूहों में प्रकृति से संघर्ष कर रहा था। इस अविकसित अवस्था में निश्चय ही उसके गान-नृत्य-अभिनय का वह रुप आज के मानदंडों के अनुसार कला नहीं था लेकिन उसमें भविष्य की उस महान परंपरा का शक्तिशाली बीज था, जो शताब्दियों बाद अभिनय, नृत्य और संगीत की अंतर्ग्रथित कला के रुप में पल्ल्वित हुई। यह कला थी – नाटक।“
नाटक और संगीत के विषय में जैन ग्रंथ ‘नायाधम्मकहा’ में सूचनात्मक जानकारी उपलब्ध होती है। एक अन्य जैन ग्रंथ ‘रायापसेणीय’ में 32 नाट्यों का वर्णन मिलता है जिनमें पाठ्य, गान तथा नृत्याभिनय तीनों का समावेश हो जाता है। मनुस्मृति व ईसापूर्व के ही ‘महाभाष्य’ में भी नाट्य व संगीत का साथ ही वर्णन मिलता है। ईसा की दूसरी शताब्दी का ‘हरिवंशपुराण’ नृत्य-गीत व अभिनय परंपरा की समृद्धि का गवाह है। तदोपरांत भास, शूद्रक और कालिदास का समय आता है जब भारतीय साहित्य को ‘चारुदत्त’, ‘मृच्छकटिकम्’ व ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ जैसे विश्व प्रसिद्ध नाटक प्राप्त हुए। इन सभी नाटकों में गीत-संगीत की महती भूमिका है।
नाट्य-संगीत की चरम समृद्धि का ही परिणाम थी कि भरत के नाट्यशास्त्र में नाटकों में संगीत के प्रयोग का सूक्ष्म और व्यापक वर्णन मिलता है। भरत का मत था –
यथा वर्णादृते चित्रं शोभते न निवेशनम्।
एवमेव विना गानं नाट्यं रागं न गच्छति।।
तात्पर्य है कि -‘‘जिस तरह कोई भवन भली भांति निर्मित्त होने पर भी चित्रकारी (रंग-रौगन) के बिना शोभा नहीं देता उसी प्रकार नाटक भी बिना गीतों के प्रेक्षकों का मनोरंजन नहीं कर सकता’’
जाहिर है कि नाटक की रचना-धर्मिता को उत्सधर्मिता प्रदान करने का कार्य संगीत करती है इसलिए वह उतना ही उपयोगी है जितना चित्र में रंग।
भाषा की सीमा जहाँ समाप्त होती है वहाँ से संगीत की भूमिका शुरु होती है। सुख और दुख के चरम-तम क्षणों में शब्द गूंगे पड़ जाते हैं और भाषा पंगू हो जाती है। ऐसे में संगीत उसे अभिव्यक्ति देता है। भरतमुनि ने सुझाव दिया –
‘‘यानि वाक्यैस्तु न बूयात्तानि गीतैरुदाहरेत्त
गीतैरव हि वाकयार्थैं रसपाको बलाश्रयः।।
(जिन्हें बातों के द्वारा प्रकट न किया जा सके उन्हें गीत के द्वारा प्रस्तुत करना चाहिए। क्योंकि गाये गये गीतों के द्वारा उद्दिष्ट वाक्यार्थ में रक्ति एवं रस की परिपक्वता आ जाती है।)
वास्तव में नाटक और अन्य गद्य विधाओं में जो बुनियादी अंतर है वही इसके संगीत प्रधान होने का मुख्य कारण भी है। उपन्यास में भी अनेक भावनाओं और घटनाओं की झांकियाँ होती है और नाटक में भी, किंतु उपन्यास में लेखक के पास स्वकथन देने की छूट है – स्थिति और भाव को स्पष्ट करने के लिए अपने अनुसार भाषा को इस्तेमाल करने और शब्दों को खर्च करने की छूट है। किंतु नाटक में नाटककार जो भी कहेगा केवल अपने पात्रें के विभिन्न घटनाओं और संवादों (वह भी यथा संभव संक्षिप्त) द्वारा। लेखकीय स्तर पर यही सीमितता उसे मंच पर व्यापकता प्राप्त करने के लिए प्रायः कला के सभी रुपों को इस्तेमाल करने के लिए बाध्य करती है क्योंकि भावों की सूक्ष्मता नाटक में प्रत्यक्षतः प्रेक्षकों को अनुभव करानी होती है। अतः संगीत एवं अन्य ललित कलाएँ इसे भाषेत्तर शक्ति द्वारा भावों की सूक्ष्मता के प्रकटीकरण में मदद करती है। इसलिए जब शेक्सपीयर को भावाभिव्यंजना में अपने शब्द कम पड़ते दिखे तो उन्हें कहना पड़ा –
‘‘कलम की कमी पर रंग-रुप देने वाली कूँची अधिक कह पाती है,
जिसे हजार शब्द कह नहीं पाते उसे एक चित्र कह देता है।
जिसे हजार चित्र बता नहीं पाते उसे एक सुर मुखर कर देता है।’’
यह बात बहुत विस्मयकारी है कि ‘नाट्यशास्त्र’ में प्रतिपादित नाटकों में गीत और संगीत की जबर्दस्त भूमिका और निर्देशों के बावजूद स्वयं संस्कृत नाटकों में गीत-संगीत उतनी समृद्ध और सार्थक अवस्था में नहीं दिखलाई पड़ता कि लगे कि व्यावहारिक धरातल पर नाटक गीत-संगीत के बगैर निरर्थक है। हम पाते हैं कि कालिदास के नाटकों – मालविकाग्निमित्र, शकुन्तला आदि में गीत हैं अवश्य किंतु सांगीतिक निर्देश न के बराबर हैं। ‘विक्रमोर्वशीयम’ में अवश्य गीत और संगीत दोनों की सार्थक उपस्थिति है। इसके बाद सीधे मुरारी और राजशेखर तक जाकर हमें भरतोक्त ध्रुवा-गीतों के कुछ उदाहरण भर मिल जाते हैं। संस्कृत नाटकों में संगीत की ऐसी अनुपस्थिति हैरान करती है। शायद इसके पीछे गीत-संगीत को सवर्ण समाज में उच्च दर्जा न प्राप्त होना एक कारण हो, क्योंकि भरत ने भी जिन नाट्य प्रकारों – नाटिका, हल्लीसक, भाणिक आदि में गीत-संगीत की महत्ता को प्रतिपादित किया है वे भी प्रायः दोयम दर्जे के नाटक ही हैं। ऐसे में यदि संस्कृत नाटकों में गीत और संगीत की संकीर्ण स्थिति को संस्कृत रंगमंच के पतन का कारण माना जाए तो गलत ना होगा।
संस्कृत नाटकों का पतन होने के बाद भी संगीत लोकनाटकों में रचा-बसा रहा। रामलीला, रासलीला, नौटंकी, भगत, स्वांग, नकल, भड़ैती, ख्याल, माच, नाच, विदेसिया आदि सभी लोक नाट्य रुप संगीत से ओत-प्रोत होते हैं। इसलिए ब- व- कारंत ने भारतीय रंगमंच की खोज में लोक रंगमंच से जुड़ना ही सही समझा –
‘‘भारतीय संगीत और रंगमंच की चर्चा करनी हो तो तमाशा, यक्षगान, भवई, वगैरह के अलावा भला हम किस भारतीय रंगमंच की बात कर सकते हैं।’’
हिन्दी नाटक की प्रथम सांगीतिक कड़ी माना जाने वाला नाटक ‘इन्द्रसभा’ कदाचित् इन्हीं लोकनाट्यों और ‘रहस’ के गीत-संगीत से प्रभावित था जिसने नाटक की एक नयी तहजीब ही विकसित की।
उन्नसवीं शताब्दी के अंत में मुंबई से शुरु हुई पारसी नाट्य मंडलियों ने संगीत प्रधान नाटकों की एक अलग परंपरा विकसित की। यद्यपि आलोचकों यहाँ सब कुछ तड़क-भड़क से पूर्ण, चलताऊ किस्म का हुआ करता था। ‘यादगारे-हत्र’ में जमील कंघापुरी लिखते हैं –
‘‘उस वक्त स्टेज पर वही ड्रामा कामयाब हो सकता था जिसमें तसन्नो (दिखौआपन) और तकल्लुफ का ख्याल रखा जाता हो। अगर मर्द को अपनी उल्फत (प्रेम) का इजहार करना हो तो कोई ग़ज़ल छेड़ देता और हिरोइन उसका जवाब ‘ठुमरी’ मे देती।’’
पारसी रंगमंच का प्रभाव ही था कि उसका धुर-विरोधी होते हुए भी भारतेंदु एवं प्रसाद भी इससे अछूते न रह सके। भारतेंदुयुगीन नाटकों में ग़ज़ल, होरी आदि का प्रयोग ‘इन्दरसभा’ के अनुरूप ही हुआ है। नाटक में संगीत जब केवल चमत्कार प्रियता या केवल रुढ़ि के लिए उपयुक्त होने लगे, तब वह नाटक के लिए नुकसानदेह ही होती है। पारसी रंगमंच में इसकी झलक देखी जा सकती है। बावजूद इसके पारसी रंगमंच में संगीत को जिस प्रभावशीलता के साथ इस्तेमाल किया गया उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
संस्कृत के लुप्त प्राय नाटकों के अवशेषों, लोक नाट्यों की परंपरा और पारसी शैली के नाटकों के संक्रमणकारी दौर में भारतेन्दु के नाटक – हिन्दी नाट्य संगीत के लिये एक सुखद अनुभव माना जा सकता है। ब्रजभाषा नाटकों की पद्यात्मकता, पारसी नाटकों की असाहित्यिक गीत-संगीत योजना, अश्लीलता के साथ ही ‘इन्दरसभा’ की संगीत-शैली, गजलों आदि के जड़ीभूत प्रभाव से हिन्दी नाटकों को मुक्त करने की दिशा में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का प्रयास ऐतिहासिक है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नाटक की भाषा और रंग भाषा के स्तर पर संगीत की आत्मा को पहचाना।
भारतेंदु के नाटकों का संगीत एक ऐसा मोड़ है जहाँ से पुरानी परंपराएँ टूटती है, नई मर्यादाएं जन्म लेती है। उनके नाटकों की संरचना में गीत प्रधान होते गए हैं, वाद्य और नृत्य गौण। ‘अंधेर नगरी’, ‘भारत दुदर्शा’, ‘सत्य हरिश्चन्रद्र’, ‘नीलदेवी’ ने तो प्रतिमान स्थापित किए हैं रंगमंच पर। भारतेंदु का नाटृय संगीत, शब्द और छंद रंगमंच की उनकी समझ नई सृष्टि करते हैं।
“भारत दुर्दशा’ की लावनी, ‘नीलदेवी’ की लावनी और गीत अपने उद्देश्य, शब्द रचना में भूलाए नहीं जा सकते।गीत, संगीत, अभिनय, कथ्य और चरित्र का जो संगठन ‘भारत दुर्दशा’ में है वह स्वतः स्फूर्त है। छंद बोलते हैं और हर प्रतीक परम छंद, लय मूर्त हो जाती है। ‘अंधेर नगरी’ ने तो रंगकर्म की भाषा का इतिहास ही अपनी समग्रता में रच डाला। लोकधर्मी चेतना ने भारतेंदु को मनोंरंजन विरोधी भी नहीं बनाया। उनका संगीत कथानक, पात्र, वातावरण, समाज, जन कल्याण, रोचकता, कौतुक सबसे जुड़ा है।“
कहा जा सकता है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र नाट्य-संगीत के गंभीर और संवेदनशील सर्जक है। भारतेन्दु के समकालीन नाटककारों ने इस संगीत को और आगे बढ़ाया।
भारतेन्दु ने हिन्दी समाज में जिस नाट्य संगीत की शक्ति और प्रभाव को समझा और स्थापना की उसकी बुनियाद पर ‘नाट्य-संगीत की सुंदर कल्पना हमें प्रसाद में मिलती है’ । प्रसाद के गीत नाटकों में एक स्तर तक वातावरण-निर्माण, चरित्र-उद्घाटन, विरोधाभास, संघर्ष-शमन आदि के साथ मनोरंजन का कार्य करते हैं।
जयशंकर प्रसाद के नाट्य-संगीत की अपनी सीमाएँ भी हैं। कई बार नाटकों में उनके गीत अतिरंजित लगते हैं। एक नाटक में चौदह-चौदह गीतों का प्रयोग, वह भी ऐतिहासिक नाटकों में, उनके प्रभाव को खण्डित करता है। कवित्व मोह में गीतों की साहित्यिक व संस्कृतनिष्ठ भाषा के साथ गीतों के अधिकता से प्रायः अधिकतर गीत अनावश्यक लगते हैं। प्रताप सहगल के इस विचार से सहमत हुआ जा सकता है –
‘‘प्रसाद के नाट्य गीतों में सबसे बड़ा दोष यह है कि वे नाटक की कथा को आगे ले जाने के बजाए उसे वहीं खड़ा कर देते हैं, जिससे ऊब जैसी स्थिति आ जाती है। अच्छे संगीत प्रयोग से गीत आकर्षक लग सकते हैं, लेकिन वह कमाल संगीतकार का है, नाटककार का नहीं।’’
बावजूद इसके प्रसाद के गीत कई स्थानों पर नाटकीय कथा की तीव्रता को बढ़ाने का कार्य करते हैं। वस्तुतः संगीत का प्रयोग नाटक में कितना हो सकता है, यह नाटक की कथावस्तु पर निर्भर करता है। समस्यामूलक नाटकों में गीत-संगीत की गुंजाइश बहुत कम रहती है किंतु ऐतिहासिक नाटकों में इसकी मात्रा बढ़ाई भी जा सकती है। यह स्पष्ट है कि ‘ध्रुवस्वामिनी’ सरीखे समस्या नाटक के अतिरिक्त प्रायः सभी नाटक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक नाटक थे। अतः इनमें गीत और संगीत की उपस्थिति प्रायः उचित और आवश्यक भी प्रतीत होती है।
प्रसाद के बाद सामान्यतः लोग मानते हैं कि नाटक से संगीत का बहिष्कार सा हो गया। वास्तव में पारसी थियेटर व तदोपरांत सिनेमा के प्रभाव से उसके गीत-संगीत में जो सस्तापन आया उसने नाटक और संगीत के अंतर्सम्बन्धों और उनकी आपसी उपयोगिता पर पुनर्विश्लेषण की आवश्यकता कराई और दोनों कलाओं मे द्वैत आ गया। किन्तु 60 और 80 के दशक में संस्कृत और लोनाटकों की जीवंत परंपरा का प्रायोगिक रुप जिस तरह अपनया गया उससे पुनः नए रुप में ‘नाट्य संगीत’ की प्रतिष्ठापना के प्रयास हुए।
वास्तव में नाटक अनेक कलाओं का एक जनतंत्र है। इसमें ललित कला से लेकर स्थापत्य कला तक के अनेक रुप समाविष्ट होते हैं तब जाकर नाटक अपने सफलतम रुप में दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत होता है – और नाटक की किताबी भाषा को एक नई ‘रंगभाषा’ मिलती है। ध्यातव्य है कि नाटक में प्रयुक्त कलाएँ अपने स्वतंत्र या मूल रुप में नहीं बल्कि संशोधित और बदले हुए रुप में सम्मिलित होकर एक अर्थ, भाषा, अभिव्यक्ति, चेतना का सृजन करती है। इसलिए नाटक में प्रयुक्त संगीत भी स्वतंत्र संगीत से अलग होगा और कदाचित् व्यापक भी। ‘ज्याँ पाल सार्त्र’ का कहना है –
‘‘नाटक का संगीत मेरी नजर में ‘विशिष्टता’ से मुक्त होता है – वहाँ किसी प्रकार का मुहाबरा या ‘स्नाबरी’ नहीं चलती, उसे ज्यादा अर्थपूर्ण और व्यापक संवेदना से जोड़ना ही प्रथम शर्त है। नाटक का संगीत लगातार बने-बनाए संगीत को बंद-दायरे से बाहर लाता है। नाटक का संगीत सुनाता नहीं, उसके साथ, उसके द्वारा अभिनय दिखाता है’’
इसी बात को रंग-आलोचक महेश आनन्द लिखते हैं –
‘‘नाटक में संगीत या अन्य कलाएँ नाटक से अलग नहीं अपितु उसी का एक हिस्सा है जो एक नई ‘रंगभाषा’ के सृजन में सहायक होते हैं।’’
नाट्य-संगीत महज एक हथियार भर है। इसका सही इस्तेमाल ही नाटक की प्रभावात्मकता को सही ढंग से प्रस्तुत कर सकता है अन्यथा अराजकता ही फैलाएगा।
उक्त सन्दर्भ में हिन्दी रंगमंच की अपनी सीमाएँ है। जिस लोक नाटक ने हमें नाटकों में संगीत की प्रभावशीलता कि प्रति जागरुक किया उसके कलाकारों की तरह हिन्दी रंगमंच का अभिनेता अच्छा गायक नहीं होता। दूसरी ओर नाटक में संगीत-रचना और गायन-वादन में जो ‘बदलाव’ चाहिए वह ‘संगीतज्ञ’ मानना नहीं चाहते। प्रायः हिन्दी रंगमच में संगीत के ‘प्रोफेशनल’ कलाकार नहीं जुड़ते। इससे एक ‘गैप’ बना हुआ है जो संगीत को उसकी पूर्ण शक्ति के साथ रंगमंच का हिस्सा बनने में व्यवधान उपस्थित करता है।
हिन्दी का समाज अपने कलाकारों के प्रति एक ख़ास तरह की उपेक्षा का भी आदि रहा है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के व्यक्तित्व में काव्य, संगीत, चित्रकला का विलक्षण समन्वय है, उनके संगीत को ‘रवीन्द्र संगीत’ नाम और प्रकार मिला। हिंदी में प्रसाद और निराला में कविता, संगीत, चित्र का अद्भुत समन्वय है। स्वयं प्रसाद का काव्य, नाटक और निराला के ‘गीतिका’, ‘अर्चना’, ‘बेला संग्रह’ उनके काव्य और संगीत के अद्भुत प्रमाण हैं। दोनों में ‘प्रसाद संगीत’, ‘निराला संगीत’ का समागम हो सकता था लेकिन हमारे यहाँ साहित्य और संगीत कला, नृत्यकला, रंगकला का शाश्वत और सहज संबंध कभी नहीं बन पाया।
हिन्दी समाज का तथाकथित साहित्यिक नाटक प्रायः गीत और संगीत की परम्परा या परिपाटी नहीं बना सका। उसके पीछे कारण यही माना जाना चाहिए कि इस हेतु आधार भूमि वैसी नहीं थी जैसी की मराठी या बांग्ला नाटकों में नजर आती है। मराठी नाटकों में तो नाट्य-संगीत एक बड़ा ‘कान्सेप्ट’ है जिस पर अलग से बहुत कुछ कार्य हुआ है। बड़े-बड़े शास्त्रीय संगीतज्ञ उससे जुड़े रहे। हिन्दी रंगमंच के साथ ऐसा न हो सका। किंतु गीत ओर संगीत किसी न किसी रूप में इसका अभिन्न हिस्सा अवश्य रहा और समय-समय पर पणिक्कर, कारंत, मोहन उप्रैती और संजय उपाध्याय जैसे संगीत के जानकार निर्देशकों ने इसे और मजबूती प्रदान की। किंतु ऐसे निर्देशकों भर से काम नहीं चल सकता_ पूरी की पूरी टीम चाहिए। ऐसा अब तक हिन्दी रंगमंच में संभव नहीं हो सका है।
पारसी नाटकों, लोकनाट्यों, मराठी व बांग्ला नाटकों में गीत और संगीत की उपस्थिति इसलिए अधिक थी कि उस वक्त अच्छा अभिनेता-गायक और नर्तक भी हुआ करता था तथा निर्देशक को संगीत की यथेष्ट जानकारी थी। किंतु आज ऐसा नहीं है। इसलिए हिन्दी नाटकों में गीत ओर संगीत का उपयोग हमेशा सवालों के घेरे में रहा।
आज के रंगमंचीय परिदृश्य पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि समकालीन नाटककारों ने लोक शैली पर नाटक लिखे हैं या फिर स्वतन्त्र रूप से। कुछ नाटककार ‘गीतों’ के प्रयोग के प्रति सचेत रहे हैं। ‘एक सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘कबिरा खड़ा बाजार में’ तथा ‘छोटे सैयद बड़े सैयद’ में गीतों की परिकल्पना इतनी सावधानी से की गयी है कि कहीं पर भी गीत की नाटक के प्रवाह को रोकता नहीं, बल्कि उसे आगे बढ़ाने में सहायक होता है। इतना ही नहीं, ये गीत एक ओर नाटक की वस्तु के सन्दर्भ में तत्कालीन स्थितियों पर, तो आज के सन्दर्भ में समकालीन परिस्थितियों पर व्यंग्य करते हैं। ‘छोटे सैयद बड़े सैयद’ के भांड़ों के गीतों के माध्यम से ही उस युग के राजनीतिक, धार्मिक एवं आर्थिक दबाव मुखर हो उठते हैं। इसी तरह से ‘एक सत्य हरिश्चन्द्र’ के गीत आज के ‘प्रजातन्त्र’ पर तेजी से चोट करते हैं। ऐसे ही गीतों की परिकल्पना शरद जोशी के ‘दो व्यंग नाटक’ में सूर्यभानु गुप्त द्वारा की गयी है और ऐसे ही लोकरंग में रंगे ‘बकरी’ के गीत भी हैं।
ऐसा नहीं कि बिना गीतों के नाटक सफल नहीं हो सकता। हो सकता है। हुए हैं। बंगला से अनूदित ‘जुलूस’ और मराठी से अनूदित ‘जात ही पूछो साधू की’ ज्वलन्त उदाहरण हैं। हिन्दी के ही ‘आठवाँ सर्ग’, ‘सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’, ‘कफ्रर्यू’, ‘आधे-अधूरे’, ‘हानूश’ आदि अनेक ऐसे नाटक हैं, जिन्होंने बिना गीतों के ही प्रेक्षकों को उद्वेलित किया है। फिर भी यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि जब गीत नाटक के संवाद को हम तक पहुँचाते हैं तो उनमें ताकत ज्यादा होती है। संगीत की भाषा सब को छूती है। इसलिए ‘टोटल थियेटर’ की अवधारणा में में गीत एवं संगीत को आवश्यक माना गया है।
हिन्दी रंगमंच पर होने वाले नाटकों में गीतों का प्रयोग लगातार बढ़ा है और बढ़ रहा है। तो क्या हम ‘टोटल थियेटर’ की ओर जा रहे हैं? हाँ या ना कहना कठिन है, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि संगीत ने नाटकों को लोकप्रिय बनाने में अपनी भूमिका का निर्वाह किया है और अभी यह प्रक्रिया रुकी नहीं है, बल्कि अमित सम्भावनाओं का आकाश खुला है।
डॉ गुंजन कुमार झा
One Comment