संगीत कला और वेश्याएँ
डॉ गुंजन कुमार झा
ज्ञान प्राप्त करने के लिए सिद्धार्थ (बुद्ध) जब तपस्यारत थे तब वीणा के स्वरों पर उन्हें गणिकाओं का एक गीत सुनाई पड़ा जिसका सांरांश था कि ‘‘वीणा के तारों को इतना भी न खींचो- नही तो वह टूट जाएंगे और वीणा के तारों को इतना आहिस्ता भी न छेड़ो कि अपेक्षित स्वर ही न निकले। ऐसा कहा जाता है कि इसे ही सुनकर बुद्ध को ‘मघ्यम’ मार्ग की प्रेरणा मिली और उन्होंने अपने मघ्यम मार्ग के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। वेश्याओं का इस प्रकार का गैर-इरादतन योगदान सिद्धार्थ को बुद्ध बनने की दिशा में महत्त्वपूर्ण हो जाता है। ज़रूरत इस बात की है कि समाज के एक कोने में रहकर समाज से अलग-थलग और बहिष्कृत इस वेश्या समाज का संगीत में क्या कोई योगदान है? यदि है तो कितना और किस तरह का?
आज का साहित्य अनेक तरह के विमर्शों का केंद्र है. विमर्शों की विविधता साहित्य को बेशक गहरा, व्यापक और सामाजिक उपादेयता के स्तर पर समृद्ध और सार्थक बनाती है . साहित्य समाजशास्त्र नहीं है बावजूद इसके, विमर्शों के स्तर पर – दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श आदि की सार्थकता भी है और आवश्यकता भी। उपेक्षित जाति, वर्ग या सामाज अपनी अस्मिता की खोज और पहचान इन्हीं विमर्शों के माध्यम से सुनिश्चित भी करता है और स्थापित भी. साहित्य के समानांतर संगीत और अन्य कलाओं में अस्मितामूलक विमर्शों की पड़ताल अभी काफी हद तक शेष है।
सभी तरह की कलाओं में भी हासिए पर जी रहे समाज की अस्मिता की पहचान होनी चाहिए। संगीत के क्षेत्र में ऊंच-नीचपन का भाव किस तरह विकसित हुआ और पल्लवित हुआ। समाज में उपेक्षित और सदा से समाज का हिस्सा रही वेश्याओं के बीच उसकी स्थिति क्या थी? और वेश्याओं के संगीत के प्रति समाज और तद्युगीन या बाद के मुख्यधाराओं के कलाकारों के मन में उसकी छवि क्या रही हम इस लेख में इसकी पड़ताल करने का प्रयास करेंगे।
वेश्या जिन महिलाओं के लिए प्रयुक्त शब्द है, वैसी महिलाएं पुरुष सत्तात्मक समाज में शुरुआत से ही माजूद हैं। वेश्या को पूर्व में ‘गणिका’ कहा जाता था। गणिका अर्थात् जन और गण की पत्नी। अमृतलाल नागर ने अपने लेख ‘ सुआ पढ़ावत गणिका तरि गई’ में पूरे विश्व मे गणिका व्यवस्था की चर्चा करते हुए बताया है कि गणिका केवल भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में ही पितृसत्तामक समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गयी थीं। बाइबल के केडेशोथ में वर्णित है कि गणिकाएं धर्म-स्थलों से संबद्ध थी। अर्मीनियाँ में लोग अपनी बेटियों को कई बार देवदासी बना देते थे। प्राचीन एथेंस और रोम में भी वेश्याओं का सम्मान था। हमारे यहाँ भारत में वैशाली की नगरवधु अंबपाली का वृत्तांत प्रसिद्ध है। नगर वधुओं की संकल्पना प्राचीन भारत में थी। जाति की सर्वश्रेष्ठ सुंदरियाँ जाति के सभी पुरुषों की वधुएं मान ली जाती थीं। अमृतलाल नागर ने नगर वधुओं के ही आगे चलकर वेश्या परंपरा में समाहित होने की प्रक्रिया को स्थापित किया है।
मोहन जोदड़ो में प्राप्त एक नर्तकी की मूर्ति, रामायण – महाभारत काल में नाचने-गाने वालियों की चर्चा और मौर्य काल में कौटिल्य द्वारा राजदरबार में गणिकाओं व नर्तकियों की नियुक्ति के संदर्भ में दिए गए निदेश इस बात को स्थापित करते हैं कि गणिकाओं का सम्बन्ध नृत्य और संगीत से हमेशा से रहा है.
गणिकाओं का एक रूप देवदासी के रूप में विख्यात है। कौटिल्य के अर्थशाष्त्र में देवदासियों का जिक्र आता है। पद्य पुराण एवं भविष्य पुराण में भी मन्दिरों में पुण्यार्थ हेतु देवदासियों के खरीदने के प्रमाण मिलते हैं। देवदासियों की प्रथा मूलतः दक्षिण भारत में प्रचलित थी। ई थस्टर्न ने अपनी पुस्तक ‘‘ कास्ट्स एंड ट्राइब्ज आॅफ सदर्न इंडिया ’’ में देवदासियों के विषय में विस्तृत चर्चा की है। उनके अनुसार देवदासियों के सात प्रकार प्रचार में थे:-
1. दत्ता – जो मंदिरों में अपनी सेवा बिना मूल्य देती थीं।
2. विक्रीता- वह स्वयं को उक्त कार्य हेतु बेचती थीं।
3. भृत्या – जो अपने पारिवारिक भलाई के मंदिर की सेविका बनीं।
4. भक्त देवदासी- अपनी भक्ति भावना के कारण मंदिर में भर्ती होतीं थीं।
5. हृता- जिन्हें कहीं से भगाकर लाकर मंदिरों में अर्पित किया जाता था।
6. अलंकार- अलंकार वर्ग की देवदासियाँ वह होती थीं जो नृत्य संगीत आदि कलाओं में दक्ष होकर किसी राजा या रईस द्वारा मंदिर को भेंट की जाती थीं।
7. रुद्र गणिका- रुद्र गणिका या गोपिका वर्ग की देवदासियों को अपने नृत्य-संगीत की सेवा के लिए मंदिरों में वेतन दिया जाता था।
भारतीय शास्त्रीय संगीत को यदि हम प्राचीन , मध्य और आधुनिक इतिहास की दृष्टि से देखें तो यह तथ्य स्पष्ट तौर पर उभर कर आता है कि प्राचीन भारतीय संगीत में गणिकाएं केन्द्र में रहीं। उनकी प्रतिष्ठा थी। वे एक तरह से ‘प्रोफेशनल संगीत’ में महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं। यह ध्यातव्य है कि संगीत कलाकारों को मूलतः निम्न दृष्टि से ही देखा जाता था। वास्तव में संगीत की ‘निम्नता’ और ‘उच्चता’ दो दृष्टियों से निर्धारित होती थीं। एक ‘प्रोफेशलन’ संगीत व दूसरा ‘शौकिया’ संगीत। ‘शौकिया’ संगीत उच्च माना जाता था क्योंकि उसे उच्च श्रेणी के लोग (राजा, मंत्री, धनवान) आदि ही अपनाते थे। महलों की रानियाँ भी संगीत का शौक रखती थीं। एक तरह से संगीत उनके लिए सौन्दर्य अभिवृद्धि और आनन्दोत्सव का एक साधन मात्र था। किंतु संगीतजीवियों को निम्न दृष्टि से देखा जाता था। संगीत के माध्यम से अपनी जीविका चलाने वाले कलावंत, नट-नटी, गणिकाएं आम तौर से अवर ही मानी जाती थीं। गौरतलब है कि वह निम्नता का भाव, उपेक्षा या ‘स्टेटस’ के कमतर आंकने तक ही सीमित था। किंतु मध्य युग में खासकर इस्लाम के आगमन और शासन के शुरुआती दौर में वह निम्नता का भाव घृणा और नफरत के स्तर तक पहुंच चुका था। इस्लाम में संगीत को वर्जित बताकर कई सुल्तानों ने संगीत को एक तरह से बैन कर दिया। सांस्कृतिक संक्रमण के उस दौर में संगीत की स्थिति अच्छी नहीं थी। ऐसे में संगीत को बचाए और बनाए रखने में गणिकाओं की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ओम प्रकाश चैरसिया द्वारा संपादित पुस्तक ‘संगीत रस, परंपरा और विचार ’ में लिखा गया है –
‘‘हिन्दुस्तानी संगीत के संक्रमण काल में तवायफों ने संगीत कला के संरक्षण व प्रचार-प्रसार में जो प्रयत्न किया उसे भुलाया नहीं जा सकता। गणिकाओं या तयावफों ने ढाई हजार वर्षों से संगीत व नृत्य को जीवित रखा।‘’’
वेश्याओं का संबंध नृत्य और संगीत दोनों से रहा है। यदि इसको निकट इतिहास व वर्तमान प्रचलन के संदर्भ में देखें तो यह स्पष्टतः कथक नृत्य और ठुमरी गायकी को इंगित करती है। औसत संगीत विद्वानों की मान्यता है कि अधिकतर वेश्याएं ही भावाभिनय सहित ठुमरी का गायन करती थी। कथक नृत्य का संबंध यूँ तो कृष्ण की रासलीला से है और इसकी पड़ताल करने पर यह भी ज्ञात होता है कि यह बहुत पहले से अस्तित्व में था तथापि इसका सहज संबंध पतनशील मुस्लिम दरबारों व तवायफों से जुड़ता जाता है। ‘भातखण्डे संगीत शास्त्र प्रथम भाग’ में लिखा गया है – ‘
‘’ ठुमरी स्त्रियोचित गीत भेद है । नृत्य के साथ इसका गान व भाव-प्रदर्शन पहले वेश्याओं द्वारा महफिलों में हुआ करता था।‘’
’ लखनऊ ठुमरी का केन्द्र समझा जाता था। श्री कृष्णधन बनर्जी ने सन् 1885 में प्रकाशित अपने ग्रन्थ ‘ गीत सूत्रसार’ में और श्री सौरीन्द्र मोहन ठाकुर ने भी सन् 1896 ई में छपे अपने ग्रन्थ ‘‘ यूनिवर्सल हिस्ट्री आॅफ म्यूजिक’’ में यह माना है कि ठुमरी का गान, नृत्य व्यवसायिनी स्त्रियों (तवायफों) से संबंधित है।
ठुमरी विधा की प्रसिद्धि के केन्द्र में वेश्याएं रही हैं। वेश्याओं को ठुमरी के गेय पक्ष की शिक्षा प्रायः गायकों द्वारा दी जाती थी। इनमें स्वरों की सजावट, बोलों का लहलाज या कहन (भावपूर्ण उच्चारण) तथा काकु प्रयोग की शिक्षा मुख्य थी। स्वर संगति के लिए सारंगी वाद्य को व ताल हेतु तबला का प्रयोग होता था।
ठुमरी के विकास और संवर्धन में वाजिद अली शाह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। कुशल संगीतज्ञ और कवि होने के नाते वाजिद अली शाह उत्तम गायक और वाग्गेयकार भी थे। हालाँकि महफिलों में नृत्य गान व्यवसायिनी वेश्याओं द्वारा नृत्य और भावाभिनय सहित ठुमरी गाने की परंपरा पूर्व से ही चली आ रही थी। तथापि वाजिद अली शाह ने इसे और अधिक प्रोत्साहित किया। उनके समय में लखनऊ में ठुमरी गाने वाली अनेक वेश्याएं प्रसिद्ध थीं, यथा – घूमन , हुसैनी, लज्जत बख्श आदि । आगे चलकर उन्नीसवी शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी के लगभग मध्य तक देश के विभिन्न भागों में अनेक वेश्याएं ठुमरी गायन व नृत्याभिनय में प्रसिद्ध हुई जिनमें पीर बाई, छटंकी, चुन्ना, जाहरा बाई, बन्नो, गुलाब, बावली , ततैया, नर्मदा, कृष्णा, जुल्फी, चंद्रावती, गौर जान, मंगू, विद्याधरी, मोती बाई, मल्लिका जान, इंदिरा, नूरजहाँ, लक्ष्मी, केसर बाई से लेकर सिद्धेश्वरी देवी तक एक पूरी परंपरा अनवरत चलती है।
कहा जाना चाहिए कि महफिलों में वेश्याओं का ठुमरी गान व प्रदर्शन गीत, नृत्य, भावाभिनय सहित प्रस्तुत होता था। उसमें तबला, मंजिरा, सारंगी व आगे चलकर हारमोनियम आदि का भी प्रयोग होता था। इस कारण वैशिक संगीत में ठुमरी विधा को सँवारने, सुधारने, सजाने और उसकी कलापूर्णता में गायक, वादक और नर्तक सभी का योगदान समाहित है।
बीसवीं शताब्दी में स्वतंत्रता आंदोलन व उसके बाद विकसित जातीय चेतना और मध्य वर्ग के विकास ने वेश्याओं के प्रति लोगों के व्यवहार और सोच में मूल-चूल परिवर्तन आया। 1890 के आसपास पारंपरिक देवदासियों, तवायफों और नर्तकियांे को लेकर नैतिकतावादी सवाल उठने लगे। 1909 में मैसूर के महाराजा ने देवदासी परंपरा को अवैध घोषित कर दिया। ‘पंजाब प्योरिटी एसोशिएसन’ और मुंबई की ‘सोशल सर्विस लीग’ जैसी संस्थाओं ने तवायफ व देवदासी परंपरा से अपनी आपत्ति दर्ज कराई। इनके जवाब में कलकत्ता की मशहूर तवायफ गौहर जान ने इसे भाँपा व ग्रामोफोन रिकोर्ड के माध्यम से अपने संगीत को व्यापक स्तर पर पहुँचाया। कुछ अन्य गणिकाओं ने काशी में सन् 1921 में‘ तवायफ संघ’ बनाकर असहयोग आंदोलन से अपनी जमात को जोड़ा। इस संदर्भ में मृणाल पांडे ने एक घटना का जिक्र किया है जिसके अनुसार –
सन् 1920 में जब गांधी कलकत्ता में स्वराज फंड के लिए चंदा जुटा रहे थे तब उन्होंने गौहर जान को बुलवाकर उनसे भी अपने हुनर के माध्यम से आंदोलन के लिए चंदा जुटाने की अपील की। गौहर जान चकित और खुश दोनों हुई। गौहर ने बापू से ये आश्वासन ले लिया वह एक खास मुजरा करेंगी जिसका सारा फंड को स्वराज को जाएगा और गांधी जी भी वहां आएंगे। बापू राजी भी हो गए। किंतु ऐन वक्त आ न सके। कहते हैं उस कार्यक्रम में 24000/. की आमद हुई थी। गौहर जान रूठी थीं । गांधी जी ने जब चंदा हेतु मौलाना शौकत अली को उनके घर भेजा तो गौहर ने सीधा कह दिया कि बापू वैसे तो बड़ी बातें करते हैं किंतु एक तवायफ को दिया वादा भी न निभा सके। चौबीस में से बारह हजार ही दिए और कहा उनका हक इतने पर ही बनता है। (26 जून 2018 को बी बी सी हिन्दी पर पोस्टेड मृणाल पांडे का लेख)
आजादी के संघर्ष के उस दौर में तबायफों की स्थिति कुछ अलग हो चली थी। एक तरफ तवायफों की लोकप्रियता और सामाजिक स्वीकार्यत में भयंकर कमी आ गयी थी वहीं तवायफों की भी खुद सांगीतिक ‘प्रोफेशन’ के प्रति गंभीरता की कमी आ गई थी। लोकप्रियता में कमी एक तवायफ के लिए कितने तरह के सवालात उपस्थित कर रहे थे और वे अपने स्तर पर उनका क्या उपाय ढंढने का प्रयास कर रही थीं इसे समझने के लिए हुसना भाई का यह भाषण उपयुक्त होगा जो उन्होंने किसी सभा में मुख्य अतिथि के रूप में दिया थाः
‘‘’हमारा खास रोजगार गाना बजाना और नाचना है। परंतु इसका बहुत कुछ लोप हो गया है। लड़कियों को गाने और नाचने में पूर्ण पंडित नहीं बनाया जाता। उन्हें संगीत विद्या उच्च शिक्षा नहीं दी जाती। इधर उधर से दस बीस गाने सीखकर पेट भरने की पड़ जाती है। इससे हमारी सर्वगुणमयी संगीत विद्या के ह्रास के साथ हमारा भी पतन हो चला। यह हम लोगों के लिए बड़ी ही लज्जा की बात है। इसके अतिरिक्त अश्लील गानों तथा कई एक कारणों से देश में तवायफों का नाच-मुजरा बंद कराने की कोशिश बहुत से लोग कर रहे हैं। और यह बिल्कुल सच है कई एक मुकामों पर जहाँ आज से चार साल पेशतर तवायफों का नाच होता था वहाँ अब नहीं होता। उसके बहुत से सबूत हैं।
इस वक्त देशवासियों का झुकाव राष्ट्रीय गीत की ओर है इसलिए हम लोगों को भी राष्ट्रीय गानों को याद कर मुजरों तथा महफिलों में गाना चाहिए। इससे हमारी प्रशंसा होगी। रोजगार बढेगा। हमलोगों को जो बहुत से लोग हिकारत की निगाह से देखने लगे हैं, वह भी कम हो जाएगा और लोग इज्जत की निगाह से देखेंगे।’’ (खुदा सही सलामत हैः रवीन्द्र कालिया {हुसना बाई का भाषण} )
दरअसल उक्त भाषण में हुसनाबाई की बातें इस बात को स्पष्ट कर रही हैं कि वक्त के साथ वेश्याओं की स्थिति किस क़दर ख़राब होती जा रही थी। वेश्याओं का पूरा ‘फोकस’ अपनी जीविका और धनोपार्जन ही था, इसमें कोई शक नहीं। उन्हें धन कमाना था और उसके लिए उनके पास उनकी कला और संगीत एक औजा़र था। उन्होंने उसकी जमकर साधना की किंतु शास्त्रीयता के प्रति उनमें आग्रह कभी नहीं रहां। शास्त्रीयता के प्रति आग्रह वहीं तक रहा जहाँ तक उनके सुनने वाले राजे-रजवाड़ों में उसके प्रति आकर्षण रहा। जिस प्रकार हिन्दी के रीतिकवियों की कविता में एक ओर घोर श्र्रंगारिकता है वहीं अपनी धाक जमाने के लिए उन्होंने काव्यशास्त्र के उपादानों के उदाहरण स्वरूप लक्षण ग्रंथों की भी रचना की है उसी प्रकार वेश्याओं के संगीत में भी शास्त्रीयता का आग्रह केवल अपने संगीत की उच्चता को स्थापित करने या उसकी प्रामाणिकता को तथाकथित मुख्य धारा के संगीतज्ञों से मनवाने की सोच के कारण ही रही होगी, ऐसा माना जा सकता है।
आज़ादी की लड़ाई में वेश्याओं ने अपनी नृत्य-गान प्रतिभा से राजे-रजवाड़ों के साथ अंग्रेज अफसरों का भी मन बहलाया किन्तु उनकी वक़्त आने पर मिटटी का क़र्ज़ भी अता किया. Firstspot वेब पोर्टल पर लेखक लिखता है –
They were artists of high calibre, who were expected to be trained in classical music and dance (Kathak); notably, they contributed immensely to the musical genres of the bandish and thumri. Though they were strictly non-combatants, they played a significant role in the struggle against the British by hiding weapons and rebels.
बदलते दौर में वेश्याओं का संबंध देह-व्यापार से जुड़ी महिलाओं के लिए रूढ. हो गया है। कोठों का दौर खत्म हो गया है। यह समय की अपनी मांग भी थी और आवश्यकता भी। आजादी के बाद कोठों की प्रासंगिकता लगभग समाप्त हो चली थी। फिल्मों ने जिस प्रकार पारसी रंगमच को अपदस्थ कर दिया उसी प्रकार फिल्मी संगीत ने भी कोठों के संगीत को भी निगल लिया। मुजरों का दौर काफी समय तक वेश्याओं की संगीतमय परंपरा को अपने में समेटे, अस्तित्व में बना रहा। सत्तर-अस्सी के दशक तक भी लखनऊ व अन्य कछ स्थानों पर मुजरों का प्रचलन रहा। किंतु संगीत के स्तर पर रचनात्मकता की पूरी जमीन सूख चुकी थी। ठुमरी या उपशास्त्रीय विधाओं का पूर्णतया लोप होने के साथ फिल्मी गीतों व कुछ हल्के लोकगीतों पर नाचना ही केवल शेष रह गया था। आज वह भी लगभग समाप्त प्राय है।
बावजूद इसके संगीत के क्षेत्र में वेश्याओं की भूमिका ओर उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। ठुमरी, कजरी, दादरा आदि गायन शैली और कथक व अन्य लोक शैली के नृत्यों के प्रचलन में वेश्याओं ने अपनी तरह से योगदान दिया है। उस योगदान की प्रकृति और बुनावट पर अभी समीचीन शोध का कार्य शेष है।
डॉ गुंजन कुमार झा
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