विश्व भाषा के रूप में हिन्दी
मैं अपनी बात की शुरुआत अपनी एक लघु कविता से करूंगा . कविता का शीर्षक है भाषा.
भाषा
मनुष्यता की तमीज है
हमारे होने का
शाब्दिक चेहरा है भाषा
प्रामाणिक और सुन्दर
ग्रंथीग्रस्त पीढ़ी की
थोपी हुई शब्दावली
कुंठित अभिव्यक्ति से अधिक
कुछ भी नहीं
भाषा
हमारे होनेपन को महसूसने की
सबसे कोमल चीज़ है
इसे गुनिये
बरतिए
और
इसे प्यार कीजिए
-गुंजन
विश्व में करीब 3500 भाषाएँ मौजूद हैं. इनेमं करीब 500 भाषाएँ ही ऐसी हैं जिनका प्रयोग लिखित रूप में किया जाता है और जिनका अपना साहित्य भी है. इनमें भी करीब 5 करोड़ से अधिक आबादी द्वारा प्रयुक्त भाषाएँ कुल 16 हैं. जिनमें 5 भारतीय भाषाएँ हैं. ज़ाहिर है हिन्दी का स्थान बहुत ऊपर है; विश्व में तीसरा स्थान.
वैश्वीकरण के दौर में जब हम विश्व भाषा के रूप में हिन्दी की बात करते हैं तब हम वास्तव में हिन्दी की स्थिति को वैश्विक स्तर पर जानने और समझने की कोशिश कर रहे होते है. किन्तु हिन्दी को वैश्विक स्तर पर देखने से पूर्व एक सरसरी निगाह हमें इसकी राष्ट्रीय स्थिति पर भी डाल लेनी चाहिए.
बिहार, यूपी और ऐसे ही करीब नौ राज्यों में पैदा होने वाले हम अधिकांश बच्चे ये कहते सुनते बड़े हुए कि हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है. जैसे हमारा राष्ट्रगान है, राष्ट्रीय झंडा है, राष्ट्रीय फल है , राष्ट्रीय पशु और पक्षी भी है उसी प्रकार हमारी राष्ट्रीय भाषा भी है- और वह है हिन्दी.
किन्तु ज्यों ज्यो हम गाँव से शहर की ओर आये और ज्यों ज्यों हम उच्च शिक्षा की और जाते हुए व्यावहारिक स्तर पर चीज़ों को समझने लगे तब हमें यह पता चलता है कि हमारे साथ धोखाधड़ी हुई है. जिस खूबसूरत सी पंक्ति को कहते सुनते हुए हमारा मन गर्व से भर जाता था . जिस झूठे सच को रटते हुए हमारा बचपन बीता ,दरअसल वह एक छलावा था. एक खुशफहमी. हिन्दी प्रदेश का हरेक बालमन इस मानसिक धोखाधड़ी का शिकार होता रहा है, दशकों से. बाद में पता चलता है कि वास्तव में हिन्दी तो हमारी राष्ट्र भाषा है ही नहीं. बल्कि कोई भी एक भाषा हमारी राष्ट्र भाषा नहीं है.
समन्वयवाद के सुविधापरस्त रास्तों के शौकीन हमारे नीति नियंता पूर्वजों ने हमें विरासत में आठवीं अनुसूची दी है और कहा है कि सभी को अपनी राष्ट्र भाषा मानो. उसे भी, जिसका एक अक्षर भी हमें नहीं पता. साथ में छोड़ गए एक शब्द ‘ राजभाषा’. हिन्दी को राजभाषा मान कर खुश होते रहने का एक शगूफा. शगूफा इसलिए क्योंकि हिन्दी के साथ सत्ता और समृद्धि की भाषा मानी जाने वाली अंग्रेजी अनिवार्यतः विराजमान है. मैकाले पद्धति की पूरी पीढ़ी ने कोर्ट कचहरी से लेकर ज्ञान विज्ञानं तक , सत्ता और प्रशासन से लेकर वाणिज्य और व्यापार तक अंग्रेजी को अपनी जिह्वा सौंप दी. किन्तु बावजूद इसके, लोकतांत्रिक मजबूरी और हिन्दी प्रदेशों की बहुसंख्यक अल्पशिक्षित आबादी ने एक तरह से, हिन्दी को कम से कम मनोरंजन और प्रचार की भाषा तो बना ही दिया.
सवाल यह उठता है कि हिन्दी को राष्ट्र भाषा मानने की इस ग़लतफ़हमी का शिकार पूरी की पूरी पीढ़ी क्यों होती रही? दरअसल १४ सितम्बर १९४९ को यानि कि आज ही के दिन हिन्दी को भारतीय संविधान की धारा ३४३ (१) के तहत राजभाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ. किन्तु उसके साथ ही अंग्रेजी भी अनिवार्य रूप से राज-काज की भाषा के रूप में स्थापित रही. उस वक़्त के नीति-नियंताओं की ऐसी सोच और अपेक्षा रही होगी कि कुछ वर्षों में हिन्दी का विकास और संवर्धन कुछ इस तरह से हो जाएगा कि हिन्दी को निर्वैकल्पिक रूप में राजभाषा का दर्जा दे दिया जाएगा. इसके लिए सन १९६५ तक का , यानी करीब पंद्रह वर्ष का समय रखा गया. कायदे से इस अवधि में हिन्दी का मानकीकरण, तकनीकी शब्दावलियाँ और अनुवाद के साथ ज्ञान विज्ञान की भाषा के रूप में हिन्दी का विकास हो जाना चाहिए था. मगर यह हो न सका.
मुआमला सिर्फ हिन्दी के विकास और संवर्धन का ही नहीं था बल्कि उसकी स्वीकार्यता का भी था. हिन्दी को राष्ट्रभाषा या अकेली राजभाषा के रूप में स्थापित करने के प्रयासों को ‘हिन्दी विरोध’ के राजनैतिक अवरोधों का भी ज़बरदस्त सामना करना पडा. हिन्दी को प्रथम भाषा मानने वाले नौ राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्यों की इसमें आपत्ति थी. दक्षिण के कुछ राज्यों की राजनीतिक शक्तियों ने तो उसका पुरजोर विरोध भी किया और उसका उन्हें राजनैतिक फायदा भी मिला. ज़ाहिर है हिन्दी को अपने संवर्धन और विस्तार के साथ ही राष्ट्रीय स्वीकार्यता की भी आवश्यक थी.
इस पूरे विवरण/प्रकरण का सर्वाधिक दुखद पहलू यह है कि हिन्दी का मानकीकरण तो कुछ हद तक हुआ किन्तु विज्ञान और तकनीकी शब्दावली पर कोई व्यावहारिक तौर पर उल्लेखनीय काम नहीं हुआ. परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी को ज्ञान विज्ञान की एकमात्र भाषा मानने वाले एक बड़े बौद्धिक समाज और हिन्दी विरोधी एक बड़े धड़े की सोच के अनुरूप ही हिन्दी ज्ञान और विज्ञान की भाषा नहीं बन सकी.
बदलते वैश्विक परिदृश्य ने और कमज़ोर राजनीतिक इच्छा ने हिन्दी को कभी अंग्रेजी के विकल्प के रूप में मजबूत तरीके से स्थापित नहीं किया. यही कारण है कि आज भी, आज़ादी के पिचहत्तर साल बाद भी, यदि आप को डॉक्टर बनना है. यदि आपको इंजीनियर बनना है. या यदि आपको जीवन में कुछ भी बड़ा करना है तो वह आप केवल हिन्दी माध्यम से नहीं कर सकते. यह देख सुन और जानकार हम कुछ हद तक तो संतुष्ट हो सकते हैं कि हिन्दी की मान्यता हर जगह है. और हिन्दी माध्यम से पढ़कर भी लोग नौकरशाही व अन्य सरकारी पदों पर आसीन हो जाते हैं. किन्तु सच्चाई यही है कि अंग्रेजी माध्यम की तुलना में यह न के बराबर ही है.
हिन्दी को चाहने वाले और राष्ट्रभाषा को राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान से जोड़कर देखने वाले हर शख्स के लिए यह पहलू बेहद दुखद है. हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि रघुवीर सहाय की इस कविता में आपको एक ख़ास तरह की खींझ दिखाई पड़ेगी. यह खींझ हिन्दी की वास्तविक स्थिति से उपजी खींझ है –
हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीबी है
बहुत बोलने वाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली
गहने गढाते जाओ
सर पर चढाते जाओ
वह मुटाती जाये
पसीने से गन्धाती जाये घर का माल मैके पहुंचाती जाये
पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े
घर से तो खैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है
एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आंगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिये कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फ़र्श पर ढंनगते गिलास
खूंटियों पर कुचैली चादरें जो कुएं पर ले जाकर फींची जाएंगी
घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अंदर की कोठरी में पांच सेर सोना भी
और संतान भी जिसका जिगर बढ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिंदी भवन बनेगा
कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे ।
बहरहाल १९६५ के बाद हिन्दी के साथ अंग्रेजी भाषा को राजभाषा के रूप में अनिश्चित काल तक के लिए स्थापित कर दिया गया.
इधर आगे चलकर कम्प्यूटर और सूचना प्रोद्योगिकी के विकास के साथ ही अंग्रेजी ने खुद को विश्व में ज़बरदस्त तरीके स्थापित किया. ‘ग्लोब्लाइज़ेशन’ के दौर में हजारों की संख्या में क्षेत्रीय भाषाओं का अवसान शुरू हुआ. पिछले करीब पचास वर्षों में हज़ारों भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं. ऐसे में भारत जैसे विविध संस्कृतियों और भाषाओँ के देश में जहाँ पर कहावत है कि ‘कोस कोस पर बदले पानी और चार कोस पर वाणी’ , यहाँ पर भी इसके प्रभाव को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता था.
यहाँ पर हम एक दिलचस्प मोड़ यह देखते हैं कि तमाम व्यावहारिक, परिस्थितिजन्य और राजनीतिक अवरोधों के बावजूद हिन्दी लगातार अपने कलेवर का विस्तार करती रही. हर दशक में इसने अपनी पहुँच और विस्तार ही नहीं. स्वीकार्यता के स्तर पर भी चकित किया है. सूचना प्रौद्योगिकी और कम्प्यूटर के विकास में जब लगने लगा था कि हिन्दी पिछड़ जाएगी तब इसने अपनी व्यापक पहुँच को न सिर्फ बढाया बल्कि एक हद तक बाज़ार की भाषा के रूप में भी खुद को स्थापित भी किया. कम्प्युटर में भी हिन्दी यूनिकोड ने तो आज हिन्दी को वर्चुअल दुनियां में , सोशल मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काफी हद तक अंग्रेजी के विकल्प के रूप में स्थापित किया है. अस्सी के दशक में जब लगने लगा था कि हिन्दी केवल संपर्क भाषा के रूप में बची रह सकेगी, हिन्दी ने अपने वितान में चकित किया है. अगले दो दशक में हिन्दी बाज़ार की लोकप्रिय भाषा के रूप में उभरी. जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने पहले खुद को अंग्रेजीदां वर्ग तक सीमित रखा था, अपने बाज़ार को फ़ैलाने में और व्यापक उपभोक्ता वर्ग तक पहुँचने के लिए उन्हें हिन्दी को अपनाना ही पडा. करीब सत्तर – पिचहत्तर करोड़ का एक बड़ा उपभोक्ता वर्ग केवल हिन्दी के प्रयोग से प्रभावित हो सकता है, इस बात को बाज़ार समझ चुका है.
हिन्दी के अखिल भारतीय स्वरुप और वैश्विक स्तर पर इसे स्थापित करने में हमारी संस्कृतक विरासत के साथ-साथ हिन्दी फिल्मो के योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता. हिन्दी में बनी फ़िल्में विश्व स्तर पर देखी और सराही जाती हैं. हिन्दी टीवी कार्यक्रमों का भी वैश्विक प्रेक्षक वर्ग है.
आज विश्व के करीब 175 देशों में हिन्दी भाषा की पढ़ाई होती है. भारत के बाहर विश्व में हिन्दी की करीब 30 पत्रिकाएँ नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं. यूएइ , के ‘हम ऍफ़ एम् ‘ के साथ ही बीबीसी जर्मनी के ‘डॉयचे वेले’ , जापान के एन एच के वर्ल्ड और चीन के ‘ चायना रेडियो इन्तेर्नेश्नल; की हिन्दी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय है . विश्व भर में फैले भारतीयों के आलावा नेपाल, म्यांमार, मॉरिशस, त्रिनिदाद, फिजी, गयाना, सूरीनाम, न्युज़िलेंड और संयुक्त अरब अमीरात में आदि देशों में हिन्दी भाषी लोगों की एक बड़ी संख्या मौजूद है. ‘वर्ल्ड लैंग्वेज डाटाबेस’ के 22 वें संस्करण ‘इथोनोलौज’ के अनुसार दुनियां भर में २० सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा के रूप में हिन्दी तीसरे स्थान पर है. करीब 113 करोड़ के साथ अंग्रेजी पहले स्थान पर है. 111 करोड़ के साथ चीनी दुसरे स्थान पर है . इसके बाद हिन्दी का स्थान आता है. यों संख्या इसमें 61.5 करोड़ दी गयी है किन्तु हम जानते हैं कि हिन्दी का कलेवर इससे बहुत बड़ा है. हिन्दी की पहुँच का दायरा बहुत बड़ा है. भारतीय उपमहाद्वीप की एक बड़ी आबादी हिन्दी को समझती है और किसी न किसी रूप में इसका व्यव्हार भी करती है.
एक अनुमान के अनुसार समझने की दृष्टि से हिन्दी विश्व की सबसे बड़ी भाषा है. हिन्दी और उर्दू को संयुक्त रूप से समझने वाली एक बड़ी आबादी के साथ यदि भारत की अधिसंख्य आबादी को इसमें जोड़ दिया जाये तो हिन्दीदां लोगों की संख्या बहुत आगे निकल जाती है. यह आंकड़ा अंग्रेजी और चीनी भाषी लोगों की सँख्या को पीछे छोड़ देती है. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हिन्दी समझने वालों की संख्या कितनी है और उसकी ताकत क्या है.
हिन्दी को एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने और विश्व हिन्दी सम्मेलनों के आयोजन को संस्थागत व्यवस्था प्रदान करने के उद्देश्य से 11 फरवारी 2008 को विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना की गयी थी. संयुक्त राष्ट्र रेडिओ ने भी अपना प्रसारण हिन्दी में भी करना आरम्भ कर दिया है. हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाये जाने को लेकर भारत सरकार की मुहिम कामयाब रही. अगस्त २०१८ से संयुक्त राष्ट्र ने साप्ताहिक हिन्दी समाचार बुलेटिन भी आरम्भ कर दिया है. अभी रास्ता लंबा है और सफ़र जारी है.
जय हिन्दी
- डॉ गुंजन कुमार झा
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