रंगमंच और नाटक
रंगमंच और नाटक
मनुष्य एक जीवन जीता है और मर जाता है। जीवन के इस पूरे सफर में वह नाना प्रकार के भावों और संवेदनाओं से टकराता है। खुश होता है, दुखी होता है। रूठता है, मनाया जाता है। प्रेम करता है, नफरत भी करता है। भाव और संवेदना के स्तर पर वह सब कुछ देखता, सुनता और महसूसता है। किंतु उसका यह सब व्यापार केवल उसके अपने जीवन पर आधारित होता है। एक व्यक्ति एक जीवन में एक ही जीवन का आनन्द ले पाता है। मसलन एक पुरुष पिता होने के एहसास को तो जीता है । उसे अनुभूत कर उसमें रमता है। खुश होता है, जिम्मेदारी को धारण कर सार्थकता और सन्तुष्टी भी प्राप्त करता है किंतु वह माँ होने की खुशी नहीं महसूस कर सकता। माँ होने का सुख एक स्त्री ही महसूस कर सकती है। किंतु वहीं दूसरी ओर पिता होने को सुख भी एक स्त्री नहीं महसूस कर पाती । इसी तरह जीवन-जगत की तमाम भावनाओं, संवेदनाओं और एहसासातों को एक ही जीवन में प्राप्त नहीं किया जा सकता। किंतु सभी प्रकार के भावों और संवेदनाओं को महसूस करने की उत्कंठा मनुष्य की नैसर्गिक फितरत है। हम एक ही जिन्दगी में अनेक जिन्दगियों का आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं। हमारी यही चाहत हमें कलाओं की ओर उन्मुख करती है। जब साहित्य, रंगमंच, फिल्म, चित्रकला और संगीत आदि कलाओं में हम विभिन्न प्रकार के भावों और संवेदनाओं को साधारणीकृत रूप में अनुभव करते हैं तो उससे एक खास तरह के आनन्द की अनुभूति होती है जिसे विद्वजन रसास्वाद कहते हैं। सिनेमा का हीरो जब आतताई शक्तियों से लड़ता है तब अपने स्वयं के तटस्थ जीवन में बैठे हम, कहीं न कहीं उस जोश और जुनून को जी रहे होते हैं जो उस हीरो में परदे पर दिखलाई पड़ता है। वास्तविक जिंदगी में हमें किसी से प्यार न हो किंतु जब कोई प्रेम कहानी पढते हैं तब पात्रों के भीतर कहीं न हम खुद को एक प्रेमी के रूप में जी रहे होते हैं। इसी को कहते हैं एक जीवन के भीतर अनेक जीवन को जीना। जीवन सीमित है, और जीने की उत्कंठा अनंत। साहित्य और कलाएँ इसी उत्कंठा की पूरक हैं।
प्राचीन शास्त्रकारों ने साहित्य को दृश्य काव्य और श्रव्य काव्य के रूप में वर्गीकृत किया है । यदि इसे हम सम्पूर्ण कला की दृष्टि से देखें तो कला के दो रूप स्पष्ट होते हैं- मूर्त एवं अमूर्त। रंगमंच, सिनेमा मूर्त कला एवं साहित्य, संगीत आदि अमूर्त कला के रूप हैं। यद्यपि कलाओं में मूर्तन एवं अमूर्तन का भाव परस्पर बना रहता है।
नाटक सभी कलाओं में ऐसा माध्यम है जो अपनी प्रकृति में लोकतांत्रिक और व्यापक है। भरतकृत नाट्यशास्त्र में कहा गया है –
न तत्ज्ञानं, न तत्शिल्पं, न सा विद्या न सा कला।
न सा योगै, न त्त्कर्मं , नाट्येस्मिन्न यन्न दृश्यते।।
यानी ऐसा कोई ज्ञान नहीं, कोई शिल्प नहीं, कोई विद्या नहीं, कोई कला नहीं, कोई योग नहीं , कोई कर्म नहीं जो नाटक में न हो। जाहिर है नाटक एक नहीं अपितु कई कलाओं का समुच्य है। वास्तव में नाटक केवल एक विधा नहीं अपितु एक प्रक्रिया है जिसमें नाटक लिखने से लेकर मंचित होने और प्रेक्षक तक प्रेषित होने का पूरा कार्य-व्यापार समाहित है। इस पूरे कार्य-व्यापार में अनेक प्रकार की कलाओं और विधियों का विधान होता है जिनके सामूहक सामर्थ्य से नाट्यार्थ की प्राप्ति होती है। व्यापकता उदात्तता की जननी है। इसलिए नाटक से अपेक्षाएँ भी बहुत हैं। इसकी उत्पत्ति के संबंध में जो कथा प्रचलित है उससे यह तो स्पष्ट है ही कि यह लोक के सभी तबकों के लिए जाति और धर्म के तमाम वर्गीकृत खाँचों से ऊपर उठा हुआ माध्यम है जिसे ‘पंचम वेद’ की संज्ञा दी गयी है साथ ही शारदातनय द्वारा नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति के संदर्भ में में जो कथा कही गयी है उससे यह भी परिलक्षित होता है कि नाटक का प्रमुख उद्देश्य ही है – मनुष्य को चिंताओं से मुक्ति दिलाना। भरत इसे और अधिक व्यापक रूप में पहले ही कह चुके थे –
धर्मो धर्म प्रवृत्तानां, कामः कामार्थ सेविनाम्।
निग्रदोहु विनातानां मतानां दमन क्रिया।।
भरत मानते हैं कि नाटक वह है जो कर्त्तव्य प्रेमी को कर्त्तव्य , कामार्थी को काम, दुर्विनीत को आत्मनिग्रह, मत्त व्यक्तियों को दमन शक्ति प्रदान करे, जो शक्तिशाली को विलास, दुख से आद्र को स्थिरता, अर्थ प्रेमी को धन संचय का मार्ग और उद्विघ्न प्राणी को धैर्य प्रदान करे। वस्तुतः नाटक के अभिनय से जीवन के हर क्षेत्र का उदात्तीकरण संभव है, वह भी मनोरंजन के साथ।
वास्तव में, मनुष्य की उलझने और असंतुष्टि वे आंतरिक भाव हैं जो बाहर आकर अपना रूप देखने को इच्छुक रहती हैं और तभी वह साकार रूप में नाटक की कल्पना करता है। दृश्यकाव्य या नाटक का रूप उस क्षुधा का परिणाम है जो दर्शक के मन में पैदा होती है। केनेथ बर्क का यह कहना भी इसी का द्योतक है – ‘‘लिटररी पफ़र्म इज दी सायकॉलॉजी ऑफ ऑडियन्स।’’
रंगमंच और नाटक के संबंध को मुद्रा और वाणी के माध्यम से समझा जा सकता है। मुद्रा एवं वाणी का संयोग अभूतपूर्व प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता रखता है। वाणी को बल और सौन्दर्य , दोनों ही मुद्रा के द्वारा मिलते हैें। मुद्रा ही अभिनय है। अभिनय और वाणी दोनों मिलकर रंगमंच में प्राण फूंकते हैं। साथ ही सोया हुआ मानवीय मस्तिष्क भी जाग्रत करते हैं। पाश्चात्य विद्वान ब्लैक मूर लिखते हैं:- ‘‘मुद्रा वाणी से पूर्व ही प्रस्फुटित होती है, इसलिए जब मुद्रा वाणी के साथ चलती है तब वह वाणी को अनुपम बनाती है। जो संभवतः वाणी की चरम सार्थकता है और मुद्रा जब वाणी के साथ रहती है उस समय नाटक लिखने वाले को सामने उपस्थित रहने की आवश्यकता नहीं होती । इसलिए वाणी का उच्चतम सार्थक रूप मुद्रा के साथ ही है। मुद्रा ही शब्दों का प्राण बनकर अर्थ को प्राणवान बनाती है और शब्दों को चेतना प्रदान कर रस पैदा करती है। ’’ स्टेनली वेल्स के अनुसार ‘‘टेक्स्ट इज ए बॉडी विदाउट शोल’’। मुद्रित नाटक बिना मंचन के केवल एक शरीर की तरह है, रंगमंच इसकी आत्मा है। ब्रैन्डर मैथ्यूज लिखते हैं – ‘‘ नाटक कथोपकथन शैली में लिखी गई ऐसी कहानी है जिसे क्रिया-व्यापार के रूप में दर्शक के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है।’’
जाहिर है ब्लैक मूर, स्टेनली वेल्स एवं ब्रैन्डर मैथ्यूज आदि विद्वान रंगमंच को नाटक की प्राणशक्ति के रूप में प्रतिष्ठापित करते हैं। नाटक मुद्रित रूप से बाहर निकलकर जब मंचित होता है तभी वह प्रेक्षकों तक अपनी पूर्ण प्रभावशीलता में प्रेषित होता है। प्रो- रामचन्द्र महेन्द्र यह मानते हैं कि रंगमंच ही वह माध्यम है जो नाटक को सार्थकता प्रदान करती है। नाटककार अपने नाटक के माध्यम से जो संदेश देना चाहता है वह रंगमंच के माध्यम से सहजता से संभंव है। वे लिखते हैं:-‘‘नाटक के रंगमंचीय माध्यम द्वारा नाटककार जनता से सम्पर्क स्थापित कर अपना सन्देश उन्हें दे सकता है। उनकी समस्याओं का निदान उपस्थित कर सकता है और मनोरंजन भी कर सकता है।’’ यानी नाटक की सामाजिक जवाबदेही पूरी करने में रंगमंच सहायक बनता है। डॉ रामकुमार वर्मा रंगमंच को एक सामाजिक कला संस्था मानते हुए लिखते हैं:- ‘‘रंगमंच का अर्थ केवल स्टेज या अभिनय का स्थान नहीं है, रंगमंच एक सामाजिक कलात्मक संस्था है जो नाटक और अभिनय के प्रत्येक क्षेत्र में सम्पूर्ण ज्ञान वितरित कर सके।’’ आगे वे कहते हैं ‘‘नाटकों का महत्त्व केवल उपन्यास के समान पढने तक ही सीमित नहीं है , वरन् सार्वजनिक रूप से अभिनय करने में है।’’ रामकुमार वर्मा के समान ही उदयशंकर भट्ट भी मानते हैं कि ‘‘समाज की रूढियों , दुराग्रहों और मूढताओं को दूर करने का एकमात्र साधन रंगमंच ही होगा।’’ ऐसे में यह एक जटिल विधा के रूप में स्वीकार्य है। बलवंत गार्गी लिखते हैं -‘‘नाटक भी सर्जनात्मक कला है। यहाँ नाटक से मेरा तात्पर्य केवल उसके छपे हुए शाब्दिक रूप से नहीं, बल्कि उसके अभिनीत रूप से है। अतः इस कला की प्रकृति और विशेषताओं को समझने के लिए इसके माध्यम के स्वरूप और उसकी सीमाओं को समझना आवश्यक है। उपन्यास और महाकाव्य की भाँति नाटक को भी साहित्य की एक विधा के रूप में स्वीकार कर उसी परंपरा में उसका विवेचन होने के कारण नाटक और रंगमंच के संबंध में बहुत सी भ्रांतियाँ उत्पन्न हो गई हैं।’’
इन भ्रांतियों का कारण संभवतः यह है कि कतिपय विद्वान और साहित्यकार नाटक और रंगमंच की अलग सत्ता स्वीकार करते हैं। ऐसे विचारक नाटकों के लिए रंगमंच की आवश्यकता नहीं मानते हैं। पाश्चात्य विद्वान अरस्तू का विचार था:- ‘‘त्रस और करुणा की उद्बुद्धि रंगमंच के प्रसाधनों से भी की जा सकती है, किन्तु वे कृति के आंतरिक संगठन से भी उत्पन्न हो सकते हैं- यह पद्धति अधिक सुन्दर है और कवि की उत्कृष्टता का द्योतक है। कथानक का संगठन ऐसा होना चाहिए कि प्रेक्षण के बिना भी श्रवण मात्र से ही सहृदय काँप जाये और करुणाद्र हो उठे।’’ चार्ल्स लेब ने शैक्सपियर के नाटकों पर समीक्षा प्रस्तुत कर निष्कर्ष दिया है कि अभिनय से कुछ भी हाथ नहीं आता है। बर्नाड शॉ ने तो यह भी कह दिया कि नाटक का सबसे उपयुक्त प्रस्तोता नाटककार स्वयं हो सकता है, और कोई नहीं। बेन जॉन्सन तो तत्कालीन थियेटर कम्पनी से ही लड़ बैठे । इसी खुंदक में अपने नाटकों के संकलन पर उन्होंने यह ‘मौटो’ टांग दिया:- ‘‘मैं मूँह पफ़ाड़कर देखने वाली भीड़ के लिए नहीं लिखता – मैं तो थोड़े से पाठकों के लिए लिखता हूँ।’’ जयशंकर प्रसाद के नाटकों की रंगमंचीयता पर भी जब सवाल दागे गये तब उन्होंने भी कुछ इसी तरह के भाव व्यक्त किए।
वास्तव में नाटक और रंगमंच के द्वैत को प्रकट करने वाली इन सभी विचारधाराओं पर विचार करना आवश्यक है। बेन जॉन्सन हों या जयशंकर प्रसाद हम यह देखते हैं कि कतिपय विद्वान मूलतः तत्कालीन रंगमंच से ही क्षुब्ध थे। रंगकर्मियों की सुविधा के लिए नाटक लिखने की अनिवार्यता को वे नहीं स्वीकार कर पाये। जाहिर है नाटककार या साहित्यकार किसी तरह के बंधन को कई बार पचा नहीं पाता। किंतु इसमें कोई शक नहीं कि किसी भी नाटककार ने अपने नाटकों के लिए रंगमंच को अवैध घोषित नहीं किया। यही कारण है तत्कालीन और बाद के कई सुधी एवं प्रयोगधर्मी रंगकर्मियों ने उनके नाटकों को चुनौती के रूप में स्वीकार किया और उनहें मंचित करके दिखलाया। न केवल वे मंचित हुए अपितु चर्चित भी हुए। जहाँ तक अरस्तू का मत है तो सहज रूप में अरस्तू एक बात को तो स्वीकार करते ही हैं कि रंगमंच का अभिनय दर्शकों के लिए आकर्षक होता है। दर्शक उस ओर आकर्षित होता है – किसलिए? इस किसलिए का उत्तर ही इस प्रश्न को आंशिक रूप से सुलझा देता है । जाहिर है रंगमंच लोगों को विशेष रूप से प्रभावित करता है। नाटक पढते समय केवल विद्वान को ही प्रभावित कर सकता है किन्तु अभिनयशाला में वही नाटक जब खेला जाता है तो वह सामान्य रूप से विद्वानों और निरक्षरों दोंनों को प्रभावित करता है। इस प्रकार रंगमंच की व्यापकता स्पष्ट है।
नाटक को रंगमंच से अलग स्वतंत्र सत्ता के रूप में स्वीकारने वाले विद्वानों का एक बड़ा वर्ग मूलतः दो कारणों से अस्तित्व में आया । एक, रंगमंच की अनुपलब्धता अथवा निषेध के फलस्वरूप ऐसे नाटक लिखे गये जिनके लिए मंचन की आवश्यकता ही न रहे । पश्चिम में ऐसे अरंगमंचीय नाटकों के लिए ‘क्लोजेट ड्रामा’ शब्द प्रयुक्त किया गया। दूसरा, कतिपय नाटककार अपनी विद्वता और गंभीरता को रंगमंच के अनुकूल नहीं पाते। बेन जॉन्सन और जयशंकर प्रसाद का उदाहरण अभी दिया गया।
इस संदर्भ में प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि जनरुचि निम्न हाती अतः उसे फुहड़ता ही विशेष प्रिय है किन्तु यह कहना सर्वथा सत्य नहीं है। नाटककार अपनी अभिव्यक्ति क्षमता और सूझ-बूझ के द्वारा एक साथ नाटक की गंभीरता और आमफहमता दोनों के बीच तारतम्य स्थापित कर सकता है। इसीलिउ सेठ गोविन्द दास जैसे नाटककार जो रंगमंचीय दृष्टि से बहुत चर्चित नहीं रहे, दोनों की सत्ता को स्वीकार करते हुए दोनों ही कसौटियों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे नाटक में रंगमंचीयता और साहित्यिकता दोनों के पक्षपाती हैं – ‘‘जो नाटक पढ़ने योग्य होते हुए भी रंगमंच पर खेले जा सकें और साथ ही साहित्यिक दृष्टि से भी उच्चकोटि के हों वे अच्छे हैं।’’
कला की जो भी परिभाषा हो उसके दो तत्व सामान्य हैं । एक आत्माभिव्यक्ति , दूसरा अभिव्यक्ति का संप्रेषण। आत्माभिव्यक्ति सदा कला ही हो यह कहना मुश्किल है किन्तु इतना निश्चित है कि वह एक स्वतः प्रसूत व स्वतः प्रिवर्तित प्रक्रिया है, जबकि संप्रेषण विशेषतः आज के युग में एक सुनियोजित पद्धति की अपेक्षा रखता है। गोविन्द चातक मानते हैं कि वह युग बीत गया जब कला कला के लिए होती थी और वह कलाकार या छोटे दायरे तक ही सीमित रहती थाी। अब कला व्यक्ति से समूह तक पहुँचने के लिए संप्रेषण के उपादानों पर अधिक निर्भर दिखाई देती है। इसलिए आज नाटक लिख देना काफी नहीं है, उसे प्रेक्षक तक पहँचाना भी अनिवार्य है। यहीं संप्रेषण के उपादान के रूप में रंगमंच का महत्त्व सिद्ध होता है।
दुर्भाग्य से नाटक और रंगमंच के इस अन्योन्याश्रय सम्बन्ध को स्वीकारने के बावजूद नाटककार और रंगकर्मियों में ऐसा संतुलित सम्बन्ध विरल रहा जिससे सिद्धांत के स्तर पर ही नहीं अपितु व्यव्हार के स्तर पर भी यह अन्योंयाश्रयता नजर आती. नाटक और रंगमंच का यह फ़र्क वस्तुतः दो मिजाजों का फ़र्क है. एक लेखक और एक अभिनेता या निर्देशक में फ़र्क को समझकर आप इसे ज्यादा स्पष्ट समझ सकते हैं. लेखक को रंगकर्मी होने में कुछ अतिरिक्त होना होगा और रंगकर्मी को लेखक होने में कुछ अतिरिक्त होना होगा. यह अतिरिक्त होना ही नाटक और रंगमंच के सामानांतर विकास का गवाह बन सकता है.
हिंदी रंग जगत नाटककारों के लिए प्रायः अपरिचित सा क्षेत्र रहा है. इसके कारणों पर अन्य लेख में बात करेंगे किन्तु मोटे तौर पर यह तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी रंगकर्म केवल अनूदित नाटकों का रंगकर्म न रह जाए और हिन्दी नाटक केवल पुस्तकालयों के कैटालौग तक सीमित न रहे इसके लिए गंभीर प्रयासों की नितांत आवश्यकता है.
डॉ गुंजन कुमार झा
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