मिथक
डॉ गुंजन कुमार झा
मिथक शब्द अंग्रेजी शब्द ‘मिथ’ का हिन्दीकरण है। ‘मिथ’ यूनानी शब्द ‘माइथोस’ से निकला है। ‘माइथोस’ का अर्थ है – अतर्क्य आख्यान । माइथोस का विलोम है- ‘लागोस’ यानी तार्किक संलाप। मिथक में तर्क की कोई गुंजाइश नहीं हाती। इसमें व्यक्त भावनाओं , विचारों और घटनाओं का संबंधसूत्र अत्यधिक उलझे हुए, तर्केतर और गड्डमड्ड होते हैं।
अरस्तु ने मिथक को मनगढंत कथा अथवा आख्यानमूलक रचना माना है। इस दृष्टि से मिथक कथात्मकता से संबंधित है। ऐसी कथाएं जिनका कोई तार्किक पक्ष न हो। इस तरह विभिन्न देशों में प्रचलित दंतकथाएं या पुरा कथाएं या पौराणिक कथाएँ या आख्यानक मिथक माने जाते हैं। इस तरह मिथक को दंतकथा, पुराकथा, धर्मगाथा आदि के नाम से भी जाना जाता है।
मिथक आदिम मनुष्य की उत्कंठाओं , प्रश्नों और विचार-संरचनाओं की रचनात्मक उपज है। सूर्य का उगना , बादलों का घिरना, चन्द्रमा की शीतलता, बिजली की चमक आदि के साथ पृथ्वी की रंग-बिरंगी घटनाओं का आदिम मनुष्य के ऊपर जो रचनात्मक प्रभाव पड़ा होगा उसके फलस्वरूप अनेक दंतकथाओं और पुरावृत्तों का जन्म हुआ होगा। इस तरह इसे मनुष्य की आदिम भाषा के रूप में भी देखा जाना चाहिए। भारतीय पारंपरिक कथाओं को देखें तो विभिन्न अवतारों की कथाएं, दधीचि द्वारा अपनी अस्थियों का दान, सूर्य ग्रहण एवं चंद्रग्रहण की कथाएं सभी कुछ इसका उदाहरण हैं।
मिथक कथा या प्रसंग के रूप में सामने आते हैं। प्रसिद्ध विचारक विको के अनुसार मिथक आदिम मानव द्वरा देखे तथा अनुभव किए जाने वाले सत्य को प्रतीक के रूप में अभिव्यक्त करते हैं और ये एंतिहासिक , वैज्ञानिक सत्य की बहुत सी कमियों को पूरा कर देते हैं।
आदिम प्रतीकों और पुरावृत्तों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मिथकों की उत्पत्ति मूलतः मनुष्य के अज्ञान के उपज थी। यानी जिन घटनाओं तथा स्थितियों कों वह समझ नहीं पाया होगा उन्हें उसने मिथक का रूप दे दिया होगा। किंतु आज मिथक की रचना केवल आदिम रूप में नहीं हो रही अपितु यह आधुनिक संदर्भों से जुड़कर और कई बार नवीन मिथकों के रूप में बहुत से समकालीन जटिल प्रश्नों को आवाज देता है। आज का मनुष्य अपने समय और राजनीति के बेहद ज्वलंत और प्रासंगिक मुद्दों को लेकर भी मिथकों की रचना करता है। कई रचनाकारों ने मिथकों के प्रयोग से अपने समय और समाज के जटिल प्रश्नों को गहन वैचारिकता के साथ प्रस्तुत करने में सफलता पाई है। मनोहरश्याम जोशी, सलमान रुश्दी और मुक्तिबोध में हमें मिथकों के ऐसे प्रयोग दृष्टिगत होते हैं।
मिथक के संदर्भ में विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया है। नृतत्वशास्त्रियों द्वारा इसे मुख्यतः धर्म तथा कर्मकाण्ड से जोड़ा गया है। किन्तु समाजशास्त्रीय चिंतकों ने मिथक को प्रकृति या धर्म से नहीं अपितु सामाजिक शक्तियों या प्रतिक्रियाओं से इसे जोड़ा है। वहीँ मनोविज्ञान एवं मनोविश्लेषणशास्त्रियों ने मिथक के संदर्भ पर्याप्त चिंतन किया है। प्रसिद्ध मनोचिंतक फ्रायड और युंग ने अपने-अपने तरीके से इसे अर्थ देने का प्रयास किया । उनके अनुसार यह अवचेतन मन की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। फ्रायड और युंग के मत में मिथक के संदर्भ में अंतर है जिसमें आगे युग के मत को ही अधिक महत्व दिया गया है। फ्रायड अनुसार मिथक आदिम मनुष्य की दमित यौन भावनाओं का प्रतीक है जो मूलतः वैयक्तिक है। युंग मिथक को सामूहिकता से जोड़ते हैं। युंग मानस को तीन स्तरों पर बाँटते हैं- चेतन , वैयक्तिक अवचेतन और सामूहिक अवचेतन। वैयक्तिक अवचेतन हेतु वह कहते हैं कि यह सतह पर रहता है वहीं सामूहिक अवचेतन अत्यंत गंभीर और व्यापक होता है। इसे वे प्रजातीय अवचेतन भी कहते हैं। उनके अनुसार मिथक का जन्म व्यक्ति के नहीं बल्कि समूह के मानस में होता है। किसी मानव समाज के सामूहिक मानस में परंपरा से प्राप्त अनुभव संवेदना में ढलकर बिंबों का रूप ले लेते हें। इन्हें युंग ने ‘आर्कटाइप’ (आद्यबिंब) का नाम दिया है। देवी-देवता, स्वर्ग-नर्क की अवधारणा, सृष्टि के रहस्यों की संकल्पनाएं आदि से संबंधित आद्यबिंब किसी भी समाज के सामूहिक अवचेतन में मौजूद रहती हैं। मिथकों में इन्हीं बिंबों या कथाओं का संयोजन होता है।
मिथक और साहित्य दोनों मनुष्य के जीवन से संबंधित हैं। उसके मन की उमंगों,उत्कंठाओं,आकांक्षाओं और सपनों का रचनात्मक रूप हैं। इस कारण दोनों की सर्जन प्रक्रिया में भी साम्य होता है। फ्रायड ने मिथकों की उत्पत्ति में स्वप्न की प्रक्रिया को सहायक माना है और स्वप्न की प्रक्रिया तथा कविता की प्रक्रिया मं भी उन्होंने साम्य माना है। साहित्य और मिथक दोनों ही मानव की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। मिथक और साहित्य दोनों में बिंबों और प्रतीकों का बहुत महत्त्व है। इस तरह उत्पत्ति प्रक्रिया और प्रभाव दोनों ही स्तर पर मिथक और साहित्य में ऊपरी तौर पर साम्य है। किंतु मूल-चूल रूप में दोनों में अंतर स्पष्ट है। मसलन उत्पत्ति के संदर्भ में देखें तो- दोनों मनुष्य के मन की उपज हैं किंतु कारण अलग हैं। मिथकों की उत्पत्ति मानव की सहज नैसर्गिक भावनाओं – भय , विस्मय आदि से हुई है। इसके विपरीत साहित्य सुशिक्षित , परिनिष्ठित मानव समाज की रचना है। मिथकों की उत्पत्ति निरायास हुई किुत साहित्य की रचना सोच-समझकर की जाती है। साहित्य में मिथकों का उपयोग होता है किंत मिथक का उपयोग साहित्य की अपेक्षा विस्तृत और व्यापक स्तर पर होता है। इस तरह मिथक साहित्य के लिए कच्चे माल की तरह कार्य करता है।
जैसा कि युंग ने कहा कि मिथक सामूहिक अवचेतन की उपज है । इस दृष्टि से साहित्य और मिथक में अंतर स्पष्ट नजर आता है। मिथक जहाँ सामूहिक अवचेतन की उपज है वहीं साहित्य व्यक्ति विशेष की रचना होती , बेशक वो समष्टि को संबोधित हो।
भाषा की अपनी सीमा होती है। सीधी और सपाट भाषा सीधे और सपाट शब्दों को ही अभिव्यक्त कर सकती है। गहन भावों की अभिव्यंजना के लिए रचनाकार को अन्य विकल्पों की तलाश करनी होती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार भाषा की असमर्थता को दूर करने के लिए कवि मिथक तत्व का प्रयोग करता है- यही अंतर्जगत के भावों को बहिर्जगत की भाषा में व्यक्त करने का एकमात्र साधन है। मिथक क्योंकि एक समाज की सामूहिक चेतना को एक साथ संबोधित करता है इसलिए साहित्य में मिथकों के प्रयोग द्वारा गूढ और भयंकर प्रश्नों को भी बड़े सहज तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है।
यद्यपि लैंगर सरीखे अनेक विद्वान मिथक को कविता (कला) के लिए कच्चे माल के रूप में ही देखते हैं तथापि मिथक और कविता की पारस्परिकता केा देखते हुए समीक्षा की मिथकीय प्रणाली भी विकसित हुई। मिथकीय आलोचना पद्धति में मिथक तत्व को किसी कृति की आलोचना का आधार बनाया जाता है। मिथकों में किसी संस्कृति की आदिम मानसिकता तथा आदिम अवधारणाएं सुरक्षित रहती हैं। आलोचक रचना की समीक्षा करते हुए उसमें उन आदिम ऐतिहासिक प्रतीकों को ढूंढता है और वर्तमान संदर्भ में उनकी संगति की व्याख्या करता है। इस तरह मिथकीय दृष्टि से अध्ययन द्वारा कृति के मूल अर्थ और अभिप्राय को स्पष्ट करने का प्रयास किया जाता है।
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