भारतेन्दु कृत ‘भारत दुर्दशा’ का संगीत पक्ष
डॉ गुंजन कुमार झा
‘भारत दुर्दशा’ हिन्दी जाति की राष्ट्रीय चेतना का प्रारंभिक दस्तावेज है। राष्ट्रीय चेतना अनिवार्यतः राजनीतिक चेतना से अनुस्यूत है. भारत दुर्दशा को हिन्दी का पहला ‘राजनीतिक नाटक’ भी माना गया है। भारतेंदु ने भी इसे देशवत्सलता का नाटक माना है. बताने की आवश्यकता नहीं है कि मोटे तौर पर आज की शब्दावली में जो राष्ट्रप्रेम है वही भारतेंदु की देशवत्सलता है। नाटक में शुरू से लेकर आखिर तक इसी राष्ट्रीय चेतना की आहट सुनाई पड़ती है। इस आहट को मुखर करने में और नाटक का पूरा ताना-बाना बुनने में संगीत की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
गीतों को तथ्यात्मक रूप में देखें तो उस रूप में भी ‘भारत-दुर्दशा’ गीत-संगीत प्रधान नाटक है. इसमें तकरीबन पन्द्रह छोटे-बड़े गीत है। छः छोटे-छोटे अंकों में विभक्त इस नाटक का केवल एक अंक (पाँचवा अंक) गीत-संगीत रहित है, बाकी सभी दृश्यों में इसकी भरमार है। यानी औसतन पाँच अंकों में प्रति अंक में पाँच-पाँच गीत।
इस नाटक का नाम भारतेन्दु ने भारत दुर्दशा ‘नाट्यरासक वा लास्यरूपक’ दिया है। यह वस्तुतः नृत्य व गीत-संगीत प्रधानता के ही वाचक हैं। ‘नाट्य रासक’ का परिचय देते हुए स्वयं भारतेंदु ने लिखा है- ‘इसमें एक अंक, नायक उदात्त, नायिका वासक सज्जा, पीठ मर्द उपनायक और अनेक प्रकार के गान और नृत्य होते हैं।’
‘साहित्य दर्पण’ के अनुसार धीरोदात्त नायक को आत्मश्लाघा की भावनाओं से रहित, क्षमाशील, अतिगम्भीर, दुख-सुख प्रकृतिस्थ, स्वभावतः स्थिर और स्वाभिमानी किन्तु विनीत कहा गया है। वहीं शृंगार करके नायक की प्रतीक्षा करने वाली नायिका वासकसज्जा कही जाती है और नायक का सखा जो नायक से गुण में कुछ कम होता है, पीठ मर्द होता है। किन्तु हम यह देखते हैं कि भारत-दुर्दशा का न तो नायक उदात्त है न पीठ मर्द उपनायक। और नायिका तो हैं ही नहीं। यों भारत भाग्य को पीठ मर्द माना जा सकता है किंतु शास्त्रीय पैमाने पर इसके लक्षण तो नहीं मिलते, हाँ नृत्य-संगीत की प्रधनता अवश्य मिलती है। शायद इसलिए भारतेन्दु ने इसके साथ ‘लास्य रूपक’ भी जोड़ दिया है। ‘लास्य’ के सम्बंध् में भारतेंदु लिखते हैं – ‘लास्य भी एक प्रकार के नाचने ही को कहते हैं।’ लास्य का सम्बंध् नृत्य से है और भारत दुर्दशा में नृत्य का प्रयोग विशेष रूप से किया गया है। नाटक के पात्र प्रायः नाचते हुए प्रविष्ट होते हैं – यथा भारत दुर्दैव, सत्यानाश फौजदार, अंध्कार। सम्भवतः इसी कारण भारतेन्दु ने इसे लास्य रूपक कहा है।
नाटक का आरंभ मंगलाचरण से होता है। मंगलाचरण में एक दोहा रख दिया गया है –
जय सतजुग-थापन करन, नासनम्लेच्छ अचार।
कठिन धर तरवार कर, कृष्ण कल्कि अवतार।।
यह मंगलाचरण देश की दुर्दशा यानी ‘भारत दुर्दशा’ की पृष्ठभूमि को व्यक्त करता है। इसमें कल्कि अवतार श्री कृष्ण की वंदना है जो परमवीर हैं और म्लेच्छों का नाश करने वाले एवं सतयुग की स्थापना करने वाले हैं। समूचे नाटक में जिस प्रकार भारत की दुर्दशा का चित्रण है – उसको करने से पूर्व एक बार उन तमाम विघ्नों के संभावित हर्ता को प्रणाम् कर लेना नाटककार ने आवश्यक समझा है। यह दोहा यों तो महज एक रुढ़ि के तहत देखा जाता है किंतु मंचन के दौरान इसे गाया जा सकता है। इसके तुरन्त बाद योगी का प्रवेश भी लावनी गाते हुए होता है
रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई।
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई………..
इसे स्वयं नाटककार ने ‘लावनी’ कहकर संबोधित किया है। लावनी उत्तर भारत की एक लोक प्रचलित गायन शैली है। इसे चंग (एक प्रकार का ताल वाद्य) बजा-बजाकर अकेले या कई आदमी मिलकर गाते हैं। इसमें शृंगार तथा भक्ति रस के गीत होते हैं और कहरवा ताल का प्रयोग होता है। इस गीत को अकेला योगी गाता है यद्यपि विद्वानों के मतानुसार यदि यह समूह में गाया जाए तो इसकी प्रभावात्मकता अधिक होगी। डा. गोपीनाथ तिवारी भारत दुर्दशा को पश्चिम नाट्यशिल्प से जोड़कर देखते हैं और उसके अनेक कारणों में से एक कारण कोरस गीत भी गिनाते हैं (भारतेन्दु के नाटकों का शास्त्रीय अनुशीलन). सिद्धनाथ कुमार खण्डन करते हुए लिखते हैं- ‘नाटक में कोरस की बात कही गयी है, तो भारत दुर्दशा में कोई कोरस नहीं है – एक गीत योगी का है, एक वैतालिक का है।’ किंतु साथ ही वे कोष्ठ में जोड़ना नहीं भूलते – ‘यों प्रदर्शन में ये गीत समवेत स्वरों में ही अधिक प्रभावशाली होंगे।’
वास्तव में यही गीत इस पूरे नाटक का सार जान पड़ता है। अंतिम अंतरा विशेष महत्त्व का है। पूरे गीत में अतीत की चर्चा करते हुए भारतेंदु अन्त में वर्त्तमान से उसका सम्बन्ध् जोड़ते हैं जब टैक्स और धन के विदेश चले जाने की बात करते हैं। लगाते हैं मानो इन्हीं पंक्तियों को कहने के लिए भारतेन्दु ने उपरोक्त पंक्तियों का सृजन किया। यह गीत नाटक की शुरफआत में ही पाठक/प्रेक्षक को सभी संदर्भों से परिचित कराने में सक्षम है। आगे आने वाली घटनाएं इसकी ही व्याख्या या कड़ी लगती हैं।
नाटक का दूसरा गीत ‘कोउ नहि पकरत मेरो हाथ…’ तद्युगीन भारत की असहाय स्थिति को प्रकट करता है. एक तरह से यह भारत की दुर्दशा को व्यक्त करता गीत है। इस गीत में बीस करोड़ पुत्रों के होते हुए अनाथ और निसहाय भारत स्वयं अपनी दुखगाथा गाता है। करुणापूर्ण यह गीत सूरदास के ‘अब हौ नाच्यौ बहुत गोपाल’ सरीखे करुण गीतों की याद दिलाता है। ब्रजभाषा और ‘पद’ दोनों की सरसता में भीगे रहने से यह गीत, संगीत के लिए उपयुक्त है।
नाटक का अगला गीत नौटंकी शैली का गीत है-
उपजा ईश्वर कोप से, और आया भारत बीच। ..
मुझे तुम सहज न जानो जी, मुझे इक राक्षस मानो जी।
नाटक में ‘भारत दुर्दैव’ ‘ विलन’ है । वह भारत दुर्दशा का जिम्मेदार पात्रा है और इस प्रतीकात्मक पात्र के मुख से नौटंकी शैली में उसे नचाते हुए उसके कुकृत्यों का वर्णन कर भारतेंदु उसकी कुटिलता को मंच पर प्रदर्शित करने में सफल हुए हैं। उक्त गीत के माध्यम से भारत दुर्दैव का भीषण रूप प्रेक्षकों तक संप्रेषित होता है। लोक शैली का गीत होने से यह प्रेक्षक को अपने साथ जोड़ने की क्षमता रखता है। नौटंकी शैली के अनुरूप ही इस गीत में पात्र को नाचते हुए गाना है जिसमें हर बार अंतिम शब्द प्रायः जोर डालकर खत्म किया जाना है।
यह गीत तार सप्तक के स्वरों में गाने पर अपना अध्कि प्रभाव छोड़ेगा। ऊँचे स्वरों की प्रधनता के कारण उत्तरांग प्रधन रागों का चुनाव उपयुक्त होगा।
नाटक का चौथा गीत सत्यानाश पफौजदार नाचते हुए गाता है –
‘‘हमारा नाम है सत्यानास।
आए हैं राजा के हम पास। धर के हम लाखों ही भेस।
किया चैपट यह सारा देस।…….’’
पूर्व गीत में भारत दुर्दैव अपनी कारगुजारियों का बखान कर अपने भीषण रूप का परिचय देता है एवं इस गीत में भारत दुर्दैव की लम्बी फौज का पफौजदार सत्यानाश अपनी कारस्तानियों का जिक्र करता है। यहाँ भी पात्र नाचता हुआ आता है इसलिए लोकनाट्यों की नौटंकी शैली का प्रभाव स्पष्ट है अतः पूर्वोक्त गीत की विशेषताएँ इस पर भी लागू होती हैं।
भारत दुर्दैव हो या सत्यानाश पफौजदार और चाहे स्वयं भारत, सबकी स्थिति को भारतेंदु ने गीतों और गजलों द्वारा प्रकट किया है। डा. बच्चन सिंह लिखते हैं – ‘इस पर नौटंकी का प्रभाव विशेष रूप से दिखाई पड़ता है। गीतों और गजलों द्वारा वे दर्शकों को नाट्य-व्यवस्था में सम्मिलित कर लेते थे। इनके कारण प्रतीक पात्रों की रूक्षता धुल जाती थी।
उक्त गीत को छंद की दृष्टि से देखें तो चैपाई छंद का ढर्रा जरूर है किंतु मात्राओं का निर्वाह यहां भी नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए पहली व दूसरी पंक्तियां सोलह मात्राओं की हैं किंतु तीसरी पंक्ति पन्द्रह मात्रा की है। पुनः चैथी सोलह मात्रा की। यों मात्रिक छंदों का लचीलापन गाने के दौरान सहुलियत प्रदान करता है। गाने में कोई परेशानी नहीं होती। कहा गया है कि पद और छन्द रस-भाव के अनुरूप हों और राग-ताल की योजना उचित न हो तो रसानुभूति नहीं हो सकती। उचित राग-ताल का चयन आवश्यक है। चैपाई छंद है तो पुनः कहरवा ताल ही व्यवहारिक है।
हम देख रहे हैं कि नाटक में प्रयुक्त गीतों में कहरवा ताल का प्रयोग प्रमुख रूप से होना है. वास्तव में कहरवा के इतने रूप प्रचलित रहे हैं कि इसमें कभी एकरसता नहीं आती। यही कारण है कि यह ताल सभी सुगम संगीत के रूपों में भरपूर प्रयुक्त होता है। कहरवा ताल भाव संगीत, लोक संगीत तथा फिल्म संगीत के साथ संगति करने की बहुत ही लोकप्रिय ताल है। इसका वादन तबला, ढोलक, नाल आदि पर किया जाता है। यह एक चंचल प्रकृति की ताल है। यह ताल इस प्रकार है –
मात्रा 8, विभाग – 2,
धा गे ना ती न क धी न
x 0
उक्त गीत और इस जैसे अन्य गीत जो भारत विरोधियों के हैं अपना मनोवैज्ञानिक महत्त्व भी रखते हैं। ध्यातव्य है कि ‘भारत दुर्दशा’ के सभी पात्र नाचते हुए नहीं गाते – ये भारत-विरोधी पात्र ही हैं। इससे कहीं न कहीं भारतेंदु को तद्युगीन जनता की चेतना को कुरेदने में मदद मिली होगी। प्रो. रमेश गौतम अपनी पुस्तक में इसका उल्लेख करते हुए लिखते हैं –
‘‘ लास्य उल्लासपूर्ण नृत्य है, इस उल्लासमयता को भारतेंदु ने भारत व उसके सहयोगी चरित्रों में लक्षित नहीं किया, अपितु भारत विरोधी शक्तियाँ नृत्य करते हुए आती हैं, वे जश्न मना रही हैं, उनके सामने भारत मूच्र्छित पड़ा गिड़गिड़ा रहा है।यहाँ यह दृश्यबंध् पूरी तरह से दर्शक की प्रतिक्रिया व प्रतिकार की भावना का विकास करने में सक्षम है क्योंकि व्यक्ति चाहे कितना ही संवेदनहीन क्यों न हो लेकिन किसी अपने की हार पर ठहाका मारने वाले के प्रति उसके हृदय में आक्रोश किसी न किसी स्तर पर पैदा जरूर होगा।’’
कहा जा सकता है कि सत्यानाश पफौजदार का यह गीत उसी आक्रोश को हवा देने का काम करता है जिसे भारतेंदु सुलगाना चाहते थे।
नाटक का अगला गीत धर्म और जाति की विद्रूपताओं से सम्बद्ध है –
‘‘रचि बहुत विधि वाक्य पुरानन माँहि घुसाए।
शैव शाक्त वैष्णव अनेक मत प्रगटि चलाए।।……..’’
भारतीय समाज को धर्म ने परम्परा से बहुत गहरे स्तरों तक संचालित किया है। प्रेम और भाईचारे की भावना को उद्बुद्ध करने का आदर्श लिए सभी धर्म कहीं न कहीं फूट डालने के दोषी पाए गए हैं. धर्म की आड़ में किस तरह देश की जनता को बेवकूफ बनाया जाता रहा है इसकी व्यंगयोक्ति उक्त गीत में है। कदाचित् लंबे-लंबे संवादों और व्याख्यानों के जरिए भी व्यंग्य की ऐसी मारक धर मंच पर उपस्थित नहीं की जा सकती थी जैसी उक्त गीत के माध्यम से संभव हो सकी है। धर्म को भारत दुर्दैव (भारत का बुरा चाहने वाले) की सेना बताकर उसके कुकृत्यों का वर्णन सत्यानाश पफौजदार करता है। धर्म के संबंध् में भारतेन्दु के विचार बड़े प्रगतिशील थे। उनका वैष्णव धर्म उनके लिए जीवन का आधर था । श्रद्ध, करूणा, सत्य, प्रेम और अहिंसा, धर्म की यह व्यवस्था सचमुच अपने आप में प्रगतिशील थी और इस प्रगतिशील धर्म की स्थापना के लिए उन्हें आधरभूमि मिली महर्षि दयानंद और केशवचन्द्र से। किन्तु धर्म के नाम पर विभाजन के षड्यंत्र को शायद वह समझ रहे थे. कम से कम हिन्दूओं के भीतर मौजूद विसंगतियों को तो वह इस गीत के माध्यम से स्पष्ट करने में सफल हो ही सके हैं. धर्म के नाम पर शैव, शाक्त, सनातनी और वैष्णवों आदि मतों का प्रचलन, जाति प्रथा, खान-पान से लकर छुआछूत, जन्म पत्रि आदि का अंधविश्वास, बाल विवाह, विधवा-विवाह निषेध्, विलायतगमन पर रोक, अनेक देवी-देवतावाद आदि का इस गीत में वर्णन है। इस प्रकार इस गीत के माध्यम से मंच पर सामाजिक कुरीतियों को प्रस्तुत करने में भारतेन्दु पूर्णतः सफल रहे हैं।
नाटक का छठा गीत रोग पात्र द्वारा गाया जाता है –
‘‘जगत सब मानत मेरी आन।
मेरी ही टट्टी रचि खेलत नित सिकार भगवान।…..’’
चौथे अंक के इस गीत में भारत दुर्दैव का एक अन्यतम सिपाही रोग अपना परिचय देता है जिसमें वह बताता है कि पूरे विश्व में आज उसी का राज है। उसी की आड़ लेकर स्वयं ईश्वर शिकार खेलते हैं (लोगों के प्राण लेते हैं) – मृत्यु का कारण बनकर वही मृत्यु को कलंकित होने से बचाता है सारा दोष रोग को दिया जाता है। इतना ही नहीं वैद्यों और दवा-निर्माताओं की जीविका भी उसी की कृपा से चलती है। कुल मिलाकर ये कि रोग अपना कार्य बखूबी कर रहा है।
अव्यवस्था नागरिकों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ का कारण बनती है। रोग नामक प्रतीक पात्र के उक्त गीत द्वारा मंच पर तद्युगीन अव्यवस्था का चित्र खींचने में मदद मिलती है। राग व ताल निर्दिष्ट नहीं किंतु पुनः कहरवा ताल सहज बैठेगा और गीत की ध्ुन किसी भी राग पर आधरित हो सकती है। लोक गीत-संगीत में प्रचलित राग देश, भैरवी या इनके आस-पास का कोई राग प्रयुक्त हो सकता है।
अगला गीत नाटक के एक अन्य प्रतीक पात्र आलस्य द्वारा गया जाता है। यह ग़ज़ल शैली में है –
‘‘दुनियाँ में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा।
मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा।।’’
‘भारत दुर्दशा’ में भारत की दुर्दशा के जिम्मेवार सभी पात्रों के मुख से गीतों के जरिए उनकी कारस्तानियों का बखान किया गया । ये सभी पात्र भारत की बुराइयों के प्रतीक हैं। उक्त गीत ऐसी ही एक बुराई या कमजोरी – आलस्य – के द्वारा गाया गया है। आत्मकेंद्रत और अकर्मण्य जनता को जगाने के लिए व्यंग्य की तीखी टिप्पणी इस गीत के माध्यम से व्यक्त होती है।
अमीर खुसरो से शुरू हुई हिन्दुस्तानी ग़ज़ल-परम्परा भारतेंदु के रूप में नया पड़ाव पाती है। ‘आलस्य’ हाथ-पैर हिलाना मौत से भी बद्तर मानता है। यहाँ तक कि वो प्यार भी नहीं करना चाहता क्योंकि ऐसे में उसे उठकर प्रयेसी के घर जाना होगा (अब भला कौन उठे)। वह जहालत में मर जाना पसन्द करेगा पर काम नहीं करेगा। यहाँ तक कि चाहे समूचा देश खाक में मिल जाए उसे तनिक भी रंज नहीं होगा –
‘‘ मिल जाय हिंद खाक में हम काहिलों को क्या।
ऐ मीरे-फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा।।’’
ऐसा लगता है कि भारतेंदु की जागरण चेतना कबीर की भांति छटपटा कर बुरा-भला कहने तक चली आई है जिसके तहत वे ‘हम काहिलों को क्या’ कहते हैं। आलसी भारतीयों के लिए ‘मीरे-फर्श’ (जिसे जमीन पर पड़े रहने में ही आनन्द है) शब्द बहुत रोचक और सारगर्भित है।
भारतेंदु आलस के लिए ग़ज़ल छंद का चुनाव करते हैं। ग़ज़ल हिंदी-उर्दू की साझी परम्परा में पनपी एक विधा है। वास्तव में ग़ज़ल भावों की अभिव्यक्ति का एक बहुत सशक्त माध्यम है। थोड़े से शब्दों में कल्पनाओं, संवेदनाओं, सुख-दुख तथा कोमल भावनाओं को शब्दों में बाँधने की इसकी क्षमता अद्भुत है। मगर भारतेन्दु को यहाँ सुख-दुख रूपी कोमल भावों को नहीं पड़ोसना था, एक खास किस्म की तिलमिलाहट पैदा करनी थी। इसके लिए उन्होंने भाषा और उसके तेवर का पूरा ख्याल रखा। ग़ज़ल अपने चुटीलेपन और मारक प्रभाव के कारण ही अपना विशेष स्थान रखती है। यह चुटीलापन और मारक प्रभावशीलता अरबी-पफारसी और संस्कृत के भारी भरकम शब्दों के कारण आहत होती है इसीलिए भारतेंदु ने इस गजल में आम हिंदी-उर्दू मिश्रित भाषा का ही प्रयोग किया है।
गजल की बुनावट शास्त्रीय और सलीकेदार होती है। इस विषय में कुछ साधरण नियम स्वयं ग़ज़ल की जुबानी –
‘‘मैं गजल हूँ, मेरे लिए आवश्यक है स्वस्थ कल्पना, परिपक्व सोच, भाव तथा भावाभिव्यक्ति के लिए जरूरी है ‘बहर’ (छन्दगत निश्चित मात्राएँ), फिर काफिया’ अर्थात् तुक के शब्द, फिर तुक के साथ चलते रहने वाले निर्धरित शब्द अर्थात् ‘रदीफ’। मेरे लिए चाहिए ‘मतला’ – जिसका अर्थ है गजलोदय। मतले की दोनों पंक्तियों में काफिया व रदीफ होते हैं। फिर शेर जिसकी दूसरी पंक्तियों मे काफिया व रदीफ़ होते हैं। अंत में होता है ‘मक्ता’ अर्थात् ‘गजल इति’. इसमें शायर का नाम या तखल्लुस होता है।’’
इस दृष्टि से देखें तो बहर, काफिया व रदीफ़ की दृष्टि से ग़ज़ल मजबूत है। ‘नहीं अच्छा’ के रूप में भारतेंदु ने पूरी गजल में काफिया व रदीफ का निर्वाह किया है। अंतिम शेर जिसे ‘मक्ता, कहते हैं में शायर के नाम या तखल्लुस (उपनाम) को देने की परम्परा रही है। भारतेंदु ने इस गजल में इस परंपरा को नहीं माना। साथ ही गजलों में प्रायः चार से पांच शेर होते हैं किंतु यह गजल नौ शेरों का है। अर्थात् अपेक्षाकृत यह लम्बी है। किंतु इससे इसकी प्रभावोत्पाकदकता में कमी नहीं आती क्योंकि यह ग़ज़ल एक किस्म की नाटकीय भंगिमा से पूर्ण है।
गजल गायन आमतौर पर उपशास्त्राीय गायन व भाव प्रधन गायकी होती है जिसमें मध्ुर रागों को व्यवहार में लाया जाता है किंतु इस गजल की मांग दूसरे तरह की है। यह गजल कव्वालीनुमा ध्ुन व गायकी की मांग रखती है। कव्वाली में ऊँचे स्वरों की प्रधानता व समूह गायन (कोरस) का साथ होता है। एकल गायन में प्रभाव में कुछ कमी सी रहनी की संभावना है। राग निर्दिष्ट नहीं, न उसकी आवश्यकता है। रागाधरित भी हो सकती है और नहीं भी। ‘बहर’ को देखते हुए ‘दादरा’ ताल की सँभावना बनती है जो कदाचित द्रुत लय में होगी। इसी प्रकार यह गीत हास्य-व्यंग्य शैली में ग़ज़ल होते हुए भी ‘पैरोडी’ का काम करती है। डा. सत्येन्द्र कुमार तनेजा लिखते हैं – ‘हास्य-व्यंग्य का पद्यमय रूप पैरोडी है। भारतेन्दु को ‘वैदिक हिंसा…’ और ‘भारत दुर्दशा’ मे अधिक सपफलता इसलिए मिली क्योंकि यहाँ ऐसी संभावनाएँ अध्कि थीं।’ इस प्रकार गजल को हास्यपूर्ण व्यंग्य के लिए इस्तेमाल करने की नवीन परिपाटी भारतेन्दु में दिखलाई पड़ती है।
नाटक का आठवाँ गीत नाटक की एकमात्रा स्त्री पात्र और भारत दुर्दैव के सबसे कारगर सिपाहियों में से एक, मदिरा द्वारा गाया गया है –
‘‘दूध् सूरा दूधहु सुरा, सुरा अन्न धन धाम।
वेद सुरा ईश्वर सुरा, सुरा स्वर्ग को नाम।। ………’’
इसमें वह अपनी तमाम खूबियों और प्रभावों का जिक्र करती है जिसके चलते उसने भारत के लिए मुसीबत खड़ी कर रखी है। वह कहती है कि वही सब कुछ है – दूध्, दही, अन्न-ध्न, वेद, स्वर्ग, जाति, विद्या। सम्पूर्ण जगत सुरामय है। ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, सैयद सभी हिन्दू-मुस्लिम उसका पान करते हैं। इसके लिए होटल जाने में उन्हें कोई लाज नहीं होती। सभी – संगीतकार, साहित्यकार, वकील, धर्माचार्य उसका सेवन करते हैं। उसके आदती लोगों को तो ईश्वर के नाम में भी वही नजर आती हैं। यथा ‘ब्रह्मा’ भी उन्हें ‘ब्रांडी’ नजर आती है। एक मात्र वही एक चीज है जो बिना तपस्या किए ही लोगों को एक लय (तन्मय) कर देने की शक्ति रखती है। इसलिए उसका कोई विरोधी नहीं। सरकार भी उसे मानती है। कुल मिलाकर उसकी कीर्ति सूर्य-चन्द्र समान व्यापक और दीर्घ है।
इस गीत में भारतेंदु ने शराब की महिमा शराब के मुख से गवाई है। यह महिमा गायन भारतेंदु के लिए बहुत मुश्किल नहीं था – सेज-सुराही और प्याला से तद्युगीन रईसों की तरह उनका भी नाता था। किंतु मद्यपान तद्युगीन जनता के लिए कितनी हानिकारक थी और किस तरह इसने अपने पैर पसारने शुरूकर दिये थे यह वो जानते थे। मानवीय जीवन में मद्यपान का यही अंधकारमयी पक्ष युग के महानायक गांधी को मद्यपान विरोधी बनाता है। भारतेंदु यह जानते थे कि आने वाले समय में शराब किस प्रकार युवा पीढ़ी को बर्बाद करने वाला है। भारतेंदु यह भी जानते थे कि सरकार भी मद्यपान को दूर नहीं करना चाहती क्योंकि यदि वो ऐसा चाहती तो शराब पर अधिक ‘कर’ लगा देती किंतु वह तो उल्टा उसे बढ़ावा दे रही है। सरकार की लापरवाही को इंगित करते हुए उन्होंने मदिरा के मुख से कहलवाया भी है-
‘सरकारहि मंजूर जो मेरा होत उपाय।
तो सब सों बढ़ि मद्य पै देती कर बैठाय।।’
सरकार की इसी लापरवाही से मद्यपान को और बढ़ावा मिला। क्या अमीर, क्या गरीब आगे चलकर इसने ऐसी दुर्गति फैलाई कि गांघी जी को लिखना पड़ा –
‘मजदूरों के साथ अपनी आत्मीयता के फलस्वरूप मैं जानता हूं कि शराब की लत में फँसे हुए मजदूरों के घरों को शराब ने कैसा नाश किया है। मैं जानता हूं कि शराब आसानी से न मिल सकती तो वे शराब को छूते भी नहीं।’
भविष्य में इस ‘आसानी से मिलने’ वाले शराब के पीछे का कारण भारतेंदु पहले ही जान गए थे इसलिए उसका जिक्र भी इन्होंने इस गीत में कर दिया है। गीत का संगीत पक्ष प्रबल है। इसमें ‘दोहा’ छंद का इस्तेमाल हुआ है। दोहा छंद संगीत के लिए बहुत उपयोगी और उपयुक्त छंद है। गीत चूंकि लम्बाई में अधिक है अतः दो चीजों का ध्यान रखना अनिवार्य है – एक तो यह अनिबद्ध नहीं हो यानी बिना ताल के न हो – अन्यथा ऊब पैदा होगी। दूसरा कि यह गायकी प्रधान न हो – यानी राग की सुंदरता बघारने की कोशिश न की जाए। यों ये बात समूचे नाट्य संगीत पर ही लागू होती है किंतु छोटे गीतों में रागदारी व भाव प्रदर्शन के लिए ‘स्पेस’ पाया जा सकता है – कहीं-कहीं तो अपेक्षा भी रहती है किंतु यहाँ पर यह ‘स्पेश’ मौजूद नहीं। यह साधरण ध्ुन के आरोह-अवरोह में गाने लायक गीत है जो बहुप्रयुक्त कहरवा ताल के अनुकूल है। गीत में कोई ‘टेक’ न होना भी इसी बात का संकेत है कि इसे स्थायी व अंतरा के विशुद्ध खांचों में नहीं बांटा जाना चाहिए। यों विविधता के लिए अलग-अलग दोहों को अलग-अलग अंदाज में गाया जा सकता है। भाव के अनुकूल यदि ध्ुन होंगे तो वे प्रभाव को और बढ़ाएंगे। अलग-अलग ध्ुनों को अलग-अलग सन्दर्भों के अनुसार उपयोग किया जा सकता है। यथा- पहला और दूसरा दोहा एक ध्ुन में, पिफर तीसरे व चैथे दोहे में एक अन्य ध्ुन, पांचवें में पुनः ध्ुन परिवर्तन, यह परिवर्तन आगे 6-7, 8-9, 10, 11, 12, 13-14 के अनुपात में किए जा सकते हैं। मान लीजिए आरोह-अवरोह सम्मत दो ध्ुनें बना ली गईं तो बारी-बारी से उपरोक्त अनुपात में उन्हें गाया जा सकता है। इससे लम्बे गाने की एकरसता सम्बन्ध्ी डर को दूर हटाकर नाटककार के अभिहित अर्थ की उत्पत्ति की जा सकती है।
भारतेंदु का जहाँ-जहाँ मन रमा है वहाँ-वहाँ उनका काम एक गीत से नहीं चला है। इससे पूर्व धर्म के सम्बन्ध में हमने यह प्रवृत्ति देखी। अब ‘मदिरा’ के संदर्भ में भी यही दृष्टिगत होती है जब मदिरा पुनः अपना वक्तव्य गीत की शक्ल में देती है। इस बार वह बकायदा गायन करती है वह भी संगीत-मितव्ययी छंद पद में-
गाती है (राग – काफी, ध्नाश्री का मेल) ताल धमार –
‘‘मदवा पीले पागल जीवन बीत्यौ जात।
बिनु मद जगत सार कछु नाहीं मान हमारी बात।।……….’’
इस गीत में एक तरह से मदिरा के समाजिक को रिझाने का प्रयास है जा उसे कहती है कि शराब ही जगत का सार है। इसलिए वह हर सुबह शाम उसे छक के पिया करे इसमें कोई संकोच न करे। मदिरा में इतनी शक्ति है कि उसके पीने के बाद हाथी मच्छड़ व सूरज जुगनू समान नज़र आने लगते हैं- ऐसी सिद्धि को न प्राप्त कर इधर-उधर की ठोकर खाने से कोई पफायदा नहीं।
इसके गायन के विषय में भारतेंदु ने इसमें राग-मिश्रण व ताल का जिक्र कर दिया है। राग काफी, धनाश्री का मेल, ताल धमार। यानी यह गीत राग काफी (जिसमें धनाश्री राग का मिश्रण हो) में गाई जाये जो धमार ताल में निबद्ध हो। राग काफी के विषय में संगीत विशारद में लिखा गया है –
‘यह काफी थाट का आश्रय राग है। इसमें ग-नि कोमल, शेष स्वर शुद्ध लगते हैं। वादी पन्चम व संवादी षड्ज है। गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर है। इसका आरोह-अवरोह इस प्रकार है –
सा रे ग म प ध् नि सां।
सां नि ध् प म ग रे सा।
स्वरूप – सा रे ग, सा रे प, म प ध्, नि ध् प, सा नि ध् प, म प ध् प, ग रे, रे ग रे म ग रे सा, सा सा रे रे ग ग म म प।
राग काफी हिन्दुस्तानी संगीत के उन प्रचलित रागों में है जिसका प्रयोग उपशास्त्राीय सुगम संगीत (गजल, भजन गीतादि में) प्रचुरता से किया जाता है। इसमें सुंदरता बढ़ाने के लिए कोमल ग व कोमल नि के साथ शुद्ध ग, नि लेने का भी प्रचलन है। इसकी प्रकृति चंचल मानी जाती है और शृंगारिक गीत इस पर पर्याप्त फबते हैं। भारतेंदु ने इस गीत को मदिरा द्वारा गवाया है जिसका अभिनय स्त्री कर रही है, ऐसे में भारतेन्दु ने काफी राग का चुनाव ठीक ही किया है – क्योंकि यह राग उस भाव के अनुकूल है। किंतु साथ ही नाटककार ने धनाश्री का मेल भी इंगित कर दिया है। किन्हीं दो रागों के मिश्रण या एक राग में दूसरे राग की झलक दिखलाने में कलाकार विशेष की शैली ही विशेष महत्व रखती है। दो रागों का मिश्रण एक कलाकार दूसरे ढंग से करेगा, दूसरा कलाकार किसी दूसरे ढंग से। इसलिए भारतेंदु ने जब काफी में धनाश्री के मेल की बात की है तो इसकी शैली भी उनकी अपनी होगी – इस संबंध् में हम केवल उसके कुछ सूत्र ढुंढ कर संभावनाएं बयान कर सकते हैं।
धनाश्री राग वर्तमान समय में कुछ अप्रचलित सा राग है – सांगीतिक कार्यक्रमों में इस राग का स्वतंत्र गायन प्रायः नहीं होता. (इसका मिश्रित रूप ‘पूरिया धनाश्री’ बहुत प्रचलित है). शास्त्रीय रूप में देखें तो ध्नाश्री के कई रूप प्रचलित हैं। मुख्यतः इसे दो अंगों में देखा जा सकता है – एक काफी व भीमपलासी अंग व दूसरा भैरवी अंग। इनमें काफी या भीमपलासी अंग की अगर बात करें तो उसमें यह काफी थाट से ही उत्पन्न है किंतु औडव-सम्पूर्ण जाति का राग है। निषाद व गंधार राग ‘काफी’ के समान ही कोमल है व वादी-संवादी भी ‘काफी’ के समान ही ‘पंचम’ व ‘षडज’ है किंतु ‘काफी’ जहाँ सम्पूर्ण राग है वहीं यह औडव-सम्पूर्ण राग है ;अर्थात आरोह में पांच व अवरोह में सात स्वर लगते हैं –
आरोह – सा ग म प नि सां।
अवरोह – सां नि ध् प म ग रे सा।
स्वरूप – नि सा, ग मप, ध नि धप म ग, मप ग, ग म रे सा, प नि सा, रे सा ग रे सा
वहीं भैरवी अंग के धनाश्री में ऋषभ, गंधार, धैवत व निषाद – चारों स्वर कोमल लिए जाते हैं, ऐसे में इसका स्वरूप इस प्रकार हो जाता है
नि सा ग, प, प ध् प, म प ग, ग म प,
ग, रे सा, रे नि सा, प प ध् प ग,
म प, नि, नि सां सां गं रंे सां, प नि सां,
प ध् म प, ग म प, ग, रे सा।
इन दोनों में कौन सा अंग भारतेन्दु के मन में था ये जानना मुश्किल है – किंतु काफी अंग के धनाश्री की काफी राग से समानता कहीं न कहीं मेल की औपचारिकता पर या औचित्य पर कोई ठोस तर्क नहीं उपलब्ध् होने देती। क्योंकि दोनों रागों की प्रकृति कमोबेश एक ही हो जाती है किंतु भैरवी अंग के धनाश्री में कोमल स्वरों का बाहुल्य इस अलग प्रकृति दे देता है। इसलिए माना जा सकता है कि भारतेंदु कहीं न कहीं भैरवी अंग के धनाश्री का काफी से मेल करने की बात कर रहे होंगे।
दोनों रागों को इंगित करने के पीछे के कारण को जानने के क्रम में यह स्पष्ट होता है कि राग काफी जहाँ शृंगारिक, चंचल ;हंसी-खुशी व उल्लास का राग है वहीं धनाश्री राग (भैरवी अंग) में कोमल स्वरों का बाहुल्य होने से उसमें एक खास किस्म की उदासी व उदात्ततता है। खुशी में दर्द का हल्का सा मिश्रण बड़ा ‘अपीलिंग’ हो सकता है – मदिरा भी तो कुछ ऐसा ही प्रभाव छोड़ना चाहती थी। मुख्यतः यह राग काफी का गीत है जो शृंगारिक व चंचल मदिरा के बिल्कुल अनुकूल है। धनाश्री का प्रयोग कहीं न कहीं उसमें एक उदासी या गाम्भीर्य भरने का एक प्रयास है.
नाटककार ने ‘धमार ताल’ का निर्देश दिया है। धमार ताल की बुनियादी बातें निम्न हैं-
‘ध्मार में 14 मात्राएं होती है। इसके चार विभाग होते हैं। पहले विभाग की पाँच मात्राएं, दूसरे विभाग में दो मात्राएं, तीसरे विभाग में तीन तथा चैथे विभाग की चार मात्राएं हैं। पहली मात्रा पर सम 6,11 मात्राओं पर ताली तथा 8 मात्रा पर खाली है।
धमार एक गायन शैली भी है जिसमें धमार ताल ही प्रमुखता से प्रयुक्त होता है। इसलिए इस ताल को धमार गायन शैली से जोड़ कर देखा जाता है।धमार गायन शैली के विषय में कहा गया है –
‘जब होरी के गीत को धमार ताल में गाते हैं, तो उसे ‘ध्मार’ कहते हैं। धमार गायन में प्रायः ब्रज की होली का वर्णन होता है। ‘धमाल’ शब्द से ही ‘धमार’ बना। ताल की गति ‘मध्य लय’ में रखना ही उपयुक्त होगा क्योंकि – ‘लया हास्य शृंगारयोर्मध्यमाः।’ धमार ताल को रस की दृष्टि से ‘भयानक’ रस के अंतर्गत रखा गया है। ऐसे में इसकी उपयुक्तता और बढ़ जाती है क्योंकि मदिरा आकर्षित करने वाली तो है लेकिन खतरनाक व भयानक भी है – अतः यह ताल उस सूक्ष्म भाव को प्रकट करने में सहायक है जो नाटककार को अभिहित था। लंबाई की दृष्टि से यह गीत छोटा है अतः इसका गायन भावोत्पत्ति के लिए करने के लिए पर्याप्त ‘स्पेस’ मौजूद है।
नाटक का दसवाँ गीत अंधकार द्वारा गाया गया है –
‘‘जै जै कलियुग राजकी, जै महामोह महराज की।……’’ गीत के साथ में नृत्य का संयोजन उसे लोक शैली के अनुरूप बना देता है। यह गीत अंधकार की भयावहता को मंच पर साकार करने में सहायक होता है। कलयुग की जय करता यह डरावना गीत भारत दुर्दैव के अन्यतम सिपाही अन्धकार द्वारा गाया जाता है।
नाटककार ने निर्देशित किया है – गाता हुआ स्खलित नृत्य करता है – यानी ऐसा नाच जो स्खलित हो – निम्नकोटि का हो, यथा बेताला या भयानक प्रतीत हो – ऐसा लिखकर कदाचित् भारतेन्दु अंधकार की भयावहता का प्रकट करना चाहते थे। राग के लिए पुनः राग काफी का वर्णन है। गीत के बोल और भाव यद्यपि राग की प्रकृति के अनुकूल नहीं है अतः नाटककार की अव्यवहारिकता झलकती है किंतु यदि संगीत निर्देशक चाहे तो राग काफी में भी इसे निबद्ध कर भी अन्य उपायों से अभीष्ट भावोत्पत्ति कर सकता है।
अगला गीत वैतालिक का गीत है –
‘‘ निहचै भारत को अब नास,
जब महराज विमुख उनसों तुम निज मति करी प्रकास।।…….’’
इसमें वैतालिक भारत के नास की पूर्ण संभावना जता रहा है और उसका निराशावादी स्वर इस गीत में शुरू से अंत तक विद्यमान है। उसके अनुसार अब तो भारत का सर्वनाश निश्चित लगता है क्योंकि उससे तो स्वयं महरानी विक्टोरिया ने मुँह फेर लिया है। अब यहाँ न तो राम हैं न अर्जुन और ना ही शाक्य सिंह( इसलिए अब इनसे कोई उम्मीद नहीं )। न तो अब शिवाजी हैं न महराज रणजीत सिंह जो इनकी जातीय चेतना को जगाएं। वही उदयपुर, जयपुर, रीवां आदि जो एक समय वीरता के लिए प्रसिद्द थे अब परबस ;अंग्रेजों के अधीन होकर बेकाज हो गए हैं। अंग्रेजों का राज पाकर भी हिंदू जाति मूढ़ की मूढ़ ही बनी रही। दुनियाँ के बाकी देश जहाँ तरक्की कर रहे हैं भारत अंधकार में जा रहा है। कारण यह कि सब छोटे दिल के और चंचल व डरपोक मन के, अपने से काम रखने वाले लाग हैं। ‘बुद्धि-बल–हीन’ लोगों से कोई आशा व्यर्थ है। कितना भी इन पर टैक्स का बोझ लादैं – ये कोई आवाज नहीं उठाते माने सभी क्षमादानी है। अपना हित और अहित तो जानवर भी जानता है किन्तु ये उससे भी बदतर है जो अपना भला-बुरा नहीं समझते अतः इनसे कोई भी उम्मीद करना व्यर्थ है। इसलिए तो भारत दुर्दैव के सभी सिपाही डंके की चोट पर इन पर हमला कर रहे हैं।
यह गीत उम्मीदों के खत्म हो जाने के बाद के मोहभंग की सी स्थिति को बयां करता है – और किन्हीं अर्थों में अतीत और वर्तमान के माध्यम से जनमानस को कुरेदने की कोशिश करता है। संगीत पक्ष की दृष्टि से यह गीत गेय है और करुण रसोत्पत्ति की अपेक्षा रखता है। इसके लिए करुण रस प्रधन राग – मारवा, शिवरंजनी, अहीर-भैरव आदि का प्रयोग किया जा सकता है। गीत की लम्बाई को देखते हुए यद्यपि राग की बन्दिश सही नहीं और संभव भी नहीं। इसके लिए तो साधरण सी ध्ुन में आरोह-अवरोहनुमा गाने की पद्धति ही उपयुक्त लगती है.
नाटक का बारहवाँ गीत भारत भाग्य द्वारा गाया गया है –
‘‘ जागो-जागो रे भाई।
सोअत निसि बैस गँवाई। जागो जागो रे भाई।।………’’
यह गीत भारत भाग्य द्वारा गाया गया है जो वह अचेत भारत के समक्ष गाता है। भारत को वह भ्राता मानता है और उससे जागने की अपील करता है। उससे कहता है कि सोने के क्रम में ही उसने अपनी उम्र गँवा दी है और यही प्रवृति दिन-रात जारी है। स्थिति यहाँ तक आन पड़ी है कि उसे अपना हित-अहित भी सुझाई नहीं पड़ता क्योंकि वह बैरी (‘भारत दुर्दैव) के वश में है। अब भी वक्त है जो कुछ जितना श्रेष्ठ बचा है उसे बचा ले अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।
जागने की यह अपील जगाने का एक उपक्रम है जो ‘भारत भाग्य’ ‘भारत’ के लिए नहीं अपितु प्रकारान्तर से भारतेंदु भारतीय जनता के लिए करते हैं। यह गीत भारत-भाग्य का उद्बोध्न गीत है जिसके लिए नाटककार ने ‘राग चैती गौरी’ में निबद्धता निर्देशित की है। राग ‘चैती गौरी’ वत्र्तमान हिन्दुस्तानी शास्त्राीय संगीत की मुख्य धरा में अप्रचलित राग है जिसके विषय में प्रायः संगीतज्ञों से जानकारी माँगने पर मायुसी ही हाथ लगती है किंतु ब्रज की होली संगीत में चैती गौरी का विवरण मिल जाता है। यह एक मौसमी राग है जो चैत्रा मास में गाया जाता है। इसे चैता गौरी भी कहा जाता है। इसमें दोनों मध्यम एवं कोमल ऋषभ एवं धैवत लगाने का रिवाज है। यानी –
सा रे ग म मे ध् नि।
इसका आरोह-अवरोह इस प्रकार से माना गया है
आरोह – सा रे म प { मे ध् नि सां
अवरोह – सां नि ध् प ध् म { प, मे ध् मे ग रे ग रे सा
इस राग को दो अंगों में गाने की परंपरा रही है। एक ‘श्री’ अंग दूसरा ‘पूर्वी’ अंग। पूर्वी अंग की गायकी में तीव्र मध्यम प्रबल हो जाता है। मौसमी राग प्रायः द्रवित करने की बेजोड़ क्षमता वाले होते हैं – चाहे वे वसंत में गाए जाने वाला राग ‘वसंत’ हो या सावन में गाया जाने वाला राग मेघ, मल्हार देश अथवा बहार में गाये जाने वाला ‘बहार’ याकि चैत में गाए जाने वाला चैता गौरी – सबके साथ ये विशेषता विद्यमान है। प्रस्तुत गीत करुण रस से आप्लावित है जिसके लिए ऐसे ही किसी राग की दरकार थी जिसे नाटककार ने स्वयं पूरा किया। गीत बड़ा नहीं है अतः राग की खूबसूरती में बांध्कर इस गीत को गाने का पूरा अवकाश है। भारत भाग्य की करफणा को उसकी सम्पूर्णता में दिखाने का माद्दा भी इस गीत में है जिसे उचित संगीत द्वारा व्यक्त किया जा सकता है।
नाटक का तेरहवाँ और अंतिम गीत ‘भारत भाग्य’ की अंतिम कोशिश है ‘भारत’ को जगाने की। इसके बाद वह आत्महत्या कर लेता है। इस गीत को इतना लम्बा कर दिया गया है कि यह एक गीत नहीं रह जाता। इतना ही नहीं इसमें अलग-अलग छंदों का भी प्रयोग किया गया है। कुल तीन छंदों के प्रयोग से कम से कम इस गीत के तीन टुकड़े तो हो ही सकते हैं।
इस गीत में ‘भारत भाग्य’ ‘भारत’ को स्वर्णिम अतीत की ओर ले जाता है और कहता है कि एक समय भारत के ही प्रताप से सम्पूर्ण विश्व रक्षित व शिक्षित था। उसी की उज्ज्वल गाथा का गान समूचा विश्व करता था। वेद की जननी भारत से ही फिनिशिया, मिश्र, सीरिया आदि देशों ने शिक्षा पाई। साहस बल की भी कोई सानी नहीं थी किंतु विधि का कुछ ऐसा विधा बना कि अब दुनियाँ सुखी है व भारत दुखी। इससे अच्छा तो रोम है जिसपर आक्रमण हुआ व उसकी प्राचीन सभ्यता सब नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई। वहाँ प्राचीन संस्कृति का कोई अवशेष नहीं इसलिए दुख भी नहीं होता किंतु यहाँ तो अवशेष मौजूद हैं इसलिए दुख भी अध्कि होता है। तमाम आक्रमणों के बाद आज काशी, प्रयाग, अयोध्या सब दीन रूप में नजर आ रहे हैं। इनके घृणास्पद रूप को देख चांडाल तक मुँह फेर लेते हैं।
आगे ‘भारत भाग्य’ के माध्यम से भारतेन्दु हर उस चीज को मिटा देने या मिट जाने की इच्छा जाहिर करते हैं जो उन्हें इतिहास की स्वर्णिम स्थितियाँ स्मरण कराती है। यथा – पंजाब, पानीपत, चित्तौड़, आगरा, वाराणसी, प्रयाग, कुश, कासी, मथुरा, अंग, बंगाल इसके अलावा गंगा, यमुना सरीखी अनेक नदियाँ व विंध्य हिमालय आदि। कदाचित् इसी से भारत का कलंक मिटे।
तदोपरांत छंद परिवर्तन में भारत भाग्य पुनः भारत की पूर्व वीरता का बखान करता है। इसमें उसकी राजनीतिक शक्ति की भी चर्चा की गई है किंतु आज वही भारत चेरी हो गया है। चेरी हो जाना अंग्रेजों का गुलाम हो जाने की ओर इशारा है – ‘सोई यह प्रिय मेरे ह्नै रहे आज चेरे।’
पुनः चैपाई छंद पर लौट कर भारत भाग्य कहता है ये कृष्ण वर्णी भारतीय ही एक समय वेदगान करते हैं। इनके मध्ुर नृत्य गीत से सारा समां बंध् जाता था। नारद, तानसेन जैसे प्रसि( संगीतज्ञ भी यही हुए। यहीं ऐसे वीर हुए जिन के क्रोध् पर ध्रती-आकाश-पहाड़ सहित चहुदिशाएं काँपती थीं। यु( भूमि में जिसे प्राणों का कोई मोह नहीं था वही भारत आज निष्क्रिय पड़ा है।
पुनः छंदपरिवर्तन द्वारा दोहा छंद में भारत की प्राकृतिक शक्ति का वर्णन हुआ है। मुख्य हिमालय व पवित्रा गंगा यहीं है। आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण यहीं लिखा। अनेकानेक प्रख्यात् )षियों ने यहीं जन्म लिया। गौतम बु( भी हुए, मनु भी हुए और भृगु जैसे राजा भी। उस समय भारत की ओर घृणा की दृष्टि से कोई नहीं देखता था।
अंततः कवि कहता है कि व्यास जैसे कवि जिनके काव्य के कारण संसार में आज भी भारत की शीष उफंचा है और जिसके राज्य, बल तथा ध्र्म की प्राप्ति के लिए संसार के सभी नरेश लालायित रहते थे उसी व्यास व राम के वंशज आज अचेत हैं। किंतु रक्त वही है, विश्वास, शक्ति, संकल्प, विचार, संस्कार, आदर्श भी वही है। केवल जागने की जरूरत है। आज भारत की अवस्था देखी नहीं जा रही और कहाँ जाएं, क्या करें, कुछ उपाय नहीं सूझ रहा है। गीत की लंबाई इसे गीत के रूप में भूमिकाहीन बना देती है। इस पूरे गीत में वही चीजें दूसरे रूप में कही गई है जो इससे पूर्व किसी न किसी रूप में कही जा चुकी हैं। अतीत की स्वर्णिम चर्चा पहले गीत में ही की जा चुकी है – यहाँ पर उसका विस्तार प्रायः अनावश्यक है। जहाँ तक भारत-भाग्य के दुख का प्रश्न था या जगाने के प्रयास की बात थी तो वह पूर्व के गीत से भी पूरी हो सकती थी – इसलिए यह गीत खटकता है। ‘डा. सत्येन्द्र कुमार तनेजा’ लिखते हैं- ‘छठे अंक में भारत-भाग्य का गद्य-पद्य मिश्रित एकालाप नाटक को और कमजोर बनाता है।’
अंतिम गीत की कमजोर उपस्थिति के बावजूद समूचे नाटक में गीत-संगीत योजना नाटक के रीढ़ का काम करती है और नाटक के मूल भाव को व्यक्त करने में मदद करती है। अतीत की तुलना में वर्तमान भारत की दुर्दशा को देखकर उठने वाले दंश को प्रकट करने का महती कार्य इस नाटक के गीतों द्वारा ही संभव हुआ है – और उस दंश को प्रेक्षकों के भीतर प्रविष्ट कर उन्हें रचनात्मक तनाव के जरिए हौले से तिलमिला देने का हुनर इसके संगीत में ही हो सकता है।
नाटक के पहले अंक से छठे अंक तक इसका गीत-संगीत ‘मंत्रों में ओम्’ की तरह छाया हुआ है। शुरफआती योगी का गीत, बीच में वैतालिक का गीत और अंत में भारत-भाग्य का गीत जहाँ करुण रस से आप्लावित कर पाठक-श्रोता-प्रेक्षक को द्रवित करता है वहीं भारत-दुर्दैव और सत्यानाश का गीत पाठकों/प्रक्षकों में क्रोध् भी उत्पन्न करता है। मदिरा का मनमोहक गीत जहाँ मीठे जहर का एहसास कराता है वहीं आलस्य की गजल तिलमिला देने की ताकत रखती है। डा. सिद्धनाथ कुमार लिखते हैं-
‘भारत दुर्दशा को देखें, तो यह एक संगीत प्रधान नाटक है। भारतेन्दु ने भारत दुर्दशा में अपने समय की लोकप्रिय संगीत शैलियों और राग-रागनियों का व्यवहार किया है। इन सबके फलस्वरूप नाटक के प्रदर्शन में लोकप्रियता की सम्भावनाएं निहित हैं।’
यह लोकप्रियता केवल मनोरंजन के स्तर तक नहीं अपितु साहित्य आह्लाद के जरिए मानसिक या वैचारिक तनाव को उत्तेजित कर देने के स्तर पर भी है।
संदर्भ ग्रंथ
हिन्दी नाटक, डा. बच्चन सिंह
भारत दुर्दशा: संवेदना और शिल्प, सिद्धनाथ कुमार
नाटक-निबंध्, भारतेन्दु हरिश्चंद्र
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के सम्पूर्ण नाटक, सं. गोविन्द चातक
भारतीय संगीत में ताल और रूप विधान, डॉ सुभद्रा चौधरी
संगीत बोध्, डॉ. यादवेन्द्र कुमार शर्मा
रंगानुभव के बहुरंग, प्रो. रमेश गौतम
साहित्यालोचन, डा. कृष्णदेव झारी
हिन्दी साहित्य का छंदोविवेचन, डॉ गौरीशंकर मिश्र ‘द्विजेन्द्र’
गजल दुष्यंत के बाद, सं. दीक्षित दनकौरी
मेरे सपनों का भारत ,महात्मा गांधी
हरिजन, 3-6-1939
संगीत विशारद, वसंत, सं. डॉ. लक्ष्मी नारायण गर्ग
हिन्दी साहित्य और संवेदना का इतिहास, रामस्वरूप चतुर्वेदी
मात्रिक छंदों का विकास, डा. शिवनंदन प्रसाद
नाटककार भारतेंदु की रंग परिकल्पना, डॉ. सत्येन्द्र तनेजा
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