भक्तिकालीन कविता और संगीत
डॉ गुंजन कुमार झा
भक्ति काल का उद्भव भारतीय साहित्येतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है. इसके उद्भव को लेकर तमाम तरह की विचारधाराएँ प्रचलित हैं और साहित्य का सामान्य विद्यार्थी उन विचारधाराओं से बराबर दोचार होता ही रहता है . ग्रियर्सन के लिए वह एक बाह्य प्रभाव है , रामचंद्र शुक्ल के लिए वह बाहरी आक्रमण की प्रतिक्रिया है और हजारीप्रसाद द्विवेदी के लिए वह महज भारतीय परंपरा का अपना स्वतः स्फूर्त विकास है. रामस्वरुप चतुर्वेदी जी ने ठीक ही लिखा कि ये क्रमश विदेशी, देशी और लोक पक्ष को महत्त्व देने की अलग अलग परिणितयां हैं .
भक्ति काल राष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त एक ऐसा आन्दोलन था जिसने कविता को राजमहलों की चारदीवारों से निकाल कर गाँव के चारागाहों और आम जनता के बीच खुले मैदानों में ला खड़ा किया. कविता, जिसमें राजाओं की झूठी-सच्ची प्रशंसा और परंपरा से चली आ रही परिपाटियों को निर्वाह करने का काम ही शेष रह गया था. उस में लोक के भीतर का स्पंदन परलोक की चर्चा के माध्यम से लाना, यह भक्ति काल की सबसे बड़ी उपलब्धि है जिसे हासिल करने में संगीत की ज़बरदस्त भूमिका रही है . किन्तु अंतर्विषयक विमर्श होने के कारण इस पर बात बहुत कम हुई है .
भक्ति काव्य के यूं तो कइ रूप हमारे समक्ष मौजूद हैं . राम काव्य धारा , कृष्ण काव्य धारा, संत काव्य धारा , सूफी काव्य धारा . यदि साहित्यिक दृष्टि से देखें तो सब का मूल तत्व एक है – भक्ति . किन्तु भक्ति का रूप सब में अलग है . यदि इन चारों प्रकार के भक्ति काव्यों को कोई तत्व ऐसा हो जो एक करती है वह है संगीत. संगीत अपने अलग अलग रूपों में भक्ति के चारों रूपों में विद्यमान है .
जैसा कि कहा गया भक्ति कविता राजमहलों को छोड़ कर लोक की और प्रस्थान करती कविता है . लोक से उसे जोड़ने का काम संगीत ही करता है . आम जनता उन पदों का पाठ नहीं करती थी , गाती थी . यह परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है . चाहे राम चरित मानस हो चाहे सूर सागर , चाहे पद्मावत हो चाहे कबीर बानी , सभी अपने सांगीतिक रूपों में आम जनता के बीच ग्राह्य हुए. हाँ , यह बात और है कि जिस प्रकार भक्ति रूपों के साथ ही कविता की भाषा और शैली में फर्क आ जाता है , उसी प्रकार प्रयुक्त संगीत में भी फर्क आना स्वाभाविक ही है .
सगुण भक्त कवि जिस प्रकार कविता में संभ्रांत भाषा और शैली में अपनी कविता रचते थे, संगीत में भी वही स्थिति दिखलाई पड़ती है. रागों के नाम, शास्त्रीय संगीत की शैलियों का प्रयोग आदि इस बात के द्योतक हैं कि सगुण भक्ति काव्य संगीत की दृष्टि से क्लासिकेलिटी (शास्त्रीयता ) के अधिक नज़दीक है. इसमें आपको शास्त्रीय संगीत की विविध विधाओं का प्रयोग मिलता है. ख्याल, टप्पा, ठुमरी आदि गान शैलियों का प्रचुरता में प्रयोग हुआ है. वहीँ निर्गुण काव्य धारा भाषा और शैली के स्तर जो भदेस पन दिखाई पड़ता है वही उसके लिए प्रयुक्त संगीत में भी दिखाई पड़ता है. कीर्तन सूरदास के पदों का भी होता था, और कीर्तन कबीर के पदों का भी. किन्तु दोनों कीर्तनों में भाषा और शैली के साथ ही संगीत की प्रयुक्ति में भी फर्क था. कबीर और अन्य निर्गुण कवियों को गाने के लिए खांटी लोक धुनों और अपरिपक्व गायकी का प्रयोग किया जाता रहा. कबीर के विषय में तो यह प्रचलित है कि वे लिखे पढ़े नहीं थे. वे कहने और गाने के क्रम में ही अपने पदों को कहते थे. संगीत की स्वरलहरियों में शब्दों का जादू बिलकुल आर्थिक और सामाजिक स्तर पर निचले तबके की जनता को भी भीतर तक प्रभावित कर जाता था.
दुनियां का प्रत्येक कवि की चाहता होती है कि उसकी कविता चंद पाठकों तक सीमित न रहकर व्यापक जन जीवन में रच बस जाए. लेकिन ऐसा सौभाग्य कम ही कवियों को प्राप्त होता है. कबीर उन्हीं थोड़े से सौभाग्यशाली कवियों में हैं जिनकी कविताओं की असंख्य पंक्तियाँ लोलोक्तियाँ बन कर लोक जीवन में प्रचलित हैं . कबीर की इतनी गहरी लोकप्रियता की पीछे उनके तेवर और भाषा का प्रभाव तो है ही किन्तु संगीत की भी अपनी भूमिका है. कबीर के पदों को गाने की एक सुदीर्घ परंपरा हमारे समाज में , विशेषकर कबीर पंथियों में रही है. इस गान परंपरा को कबीर संगीत के नाम से जाना जाता है . कबीर संगीत के विषय में अभी बहुत कुछ अध्ययन करना बाकी है किन्तु इतना कहा जा सकता है कबीर के शिष्य और उनके पंथ को मानने वालों , उनके अनुयायियों ने उनके पदों को धुनें बनाकर गाया और बजाया. इसके माध्यम से उन्होंने परमात्मा से अपने को जोड़ने का प्रयास तो किया ही किन्तु इनमें गहरे सामाजिक अर्थों की अभिव्यक्ति भी हुई . कबीर की कविता का संगीत उस आम जनता से अपना एक मजबूत रिश्ता रखता है जिस तक पहुंचना कबीर का लक्ष्य रहा होगा.
तुलसी के पद, दोहे, चौपाइयां और सवैया, विशेष कर रामचरितमानस को गेय रूप में ही विशेष ख्याति मिली. ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि तुलसी स्वयं अच्छे गायक थे. तुलसी दास ने अपने इस महान ग्रन्थ में रामकथा को इस सुलभ, सुगम एवं प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत किया, जिससे कि नगरों से लेकर गाँवों तक समस्त भारत की जनता नें उसे व्यापक रूप में अपनाया. वाचस्पति गैरोला के अनुसार ‘’ अतीत के चार सौ वर्षों से भारत की जनता की इतनी अटूट एवं अगाध निष्ठां किसी दुसरे ग्रन्थ में नहीं दिखाई देती है’’ .संगीत के माध्यम से ही गाँव की अनपढ़ जनता ने भी पूरा का पूरा रामचरितमानस कंठस्थ किया . आज भी आप सुदूर देहात चले जाइए. ऐसे बहुत से वयोवृद्ध मिल जाएंगे जो शायद अपना नाम भी न लिख पाते हों किन्तु रामचरितमानस उन्हें पूरा का पूरा कंठस्थ है. क्योंकि वो उनकी चौपाइयां गाते हैं. ऐसे ही गाते हुए पीढ़ियों ने रामचरितमानस को आत्मसात किया और अपने में जीवित रखा है .
रामचरितमानस को मंच पर प्रस्तुत करने की भी परंपरा रही है. उसको कथा गायन के माध्यम से तो सैकड़ों सालों से गाया ही जा रहा है , रामलीला के मंचनों के माध्यम से वह आज भी भारत के विभिन्न प्रान्तों और अंचलों के साथ ही विश्व के अन्य देशों में भी जहाँ राम कथा का मंचन किसी भी रूप में होता है , वहां तुलसी के रामचरितमानस के चौपाइयों का गान होता आया है . तुलसी ने रामचरितमानस की रचना इस प्रकार की, उसमें ऐसे स्थलों की पहचान की, ऐसे भावों का गुम्फन किया, ऐसी भाषा और शैली का उपयोग किया और ऐसे छंदों का प्रयोग किया कि उसने संगीत के माध्यम से बिलकुल सुदूर देहात से लेकर शहर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई.
सूरदास ऐसे कवि हैं जिन्हें संगीत का भी विद्वान् माना जाता रहा है.जब संगीत के ज्ञान की बात हो रही है तब शास्त्रीय संगीत की ही बात हो रही है. सूरदास ने अपनी रचनाओं में पद से पूर्व रागों का उल्लेख किया है.इससे सामान्यतः यह मान लिया जाता है कि उन गीतों को सूरदास जी ने उल्लेखित राग में ‘कम्पोज’ भी किया होगा. यह भी मान लिया जाता है कि उन्हें उक्त रागों की गहरी जानकारी थी. शास्त्रीय संगीत की गहराई, व्यापकता और गूढता को देखते हुए यह तो कहना मुश्किल है कि वे संगीत के गंभीर ज्ञाता थे . किन्तु युगीन स्थिति और उनकी स्वयं की परंपरा से यह तो स्पष्ट है ही कि वे शास्त्रीय संगीत के जानकार अवश्य थे . इस सन्दर्भ में सूर संगीत पुस्तक में डॉ लक्ष्मीनारायण गर्ग लिखते है – ‘’ प्रचलित संगीत पर वैष्णव संप्रदाय का महान ऋण है .वैष्णव मंदिरों में भगवन के जो लीलागान गाए जागे हैं एवं जो आठों पहर और छहों ऋतुओं के समयानुकूल लीलागान की परिपाटी दीर्घकाल से चली आ रही है इस परिपाटी नें संगीत जगत को बड़ा ही अमूल्य योगदान दिया है . आज के प्रचलित ध्रुवपदों , होरियों , धमारों तथा ख्यालों के पदों के सूक्ष्म एवं अभ्यासपूर्ण निरीक्षण से यह कथन भली भाँती परिपुष्ट हो जाएगा.’’ इनमें सूरदास, कुम्भनदास, लक्ष्मणदास, परमानन्द दास आदि भक्त कवियों के मधुरतम ललित भावों से भरे गीतों का विपुल स्थान है. तानसेन के महान गुरु स्वामी हरिदास वैष्णव संप्रदाय की ही देन हैं. एक भक्त कवि ही इस देश को सर्वश्रेष्ठ गायक देता है.
कृष्ण भक्ति काव्य में गीत और नृत्य का अतिशय और अनिवार्य प्रयोग यह स्पष्ट करता है कि संगीत के बगैर उसे ठीक तरह से नहीं समझा जा सकता . उसकी अर्थवत्ता की व्यापकता इस बात पर निर्भर है कि आप उसमें प्रयुक्त संगीत को कितना समझ पा रहे हैं . डॉ फणीश सिंह लिखते हैं –
‘’यह कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण कृष्ण भक्ति काव्य सगीत की पृष्ठभूमि में विकसित हुआ है. सभी कवि संगीत विद्या में निपुण थे और उनमें अधिकांश कीरतन आदि किया करते थे. गोस्वामी विट्ठलनाथ ने जिन आठ कवियों को अष्टछाप की संज्ञा देकर श्रीनाथ मंदिर में अष्टयाम सेवा के लिए नियुक्त किया , वे आठों ही संगीत में निपुण थे और मधुर पद गाते थे.
रास लीला के रूप में , कृष्ण लीला के रूप में , भजनों के रूप में , नाटकों के रूप में , ध्रुवपदों,होरियों,धमारों, यहाँ तक कि ठुमरियों और ख्यालों की बंदिशों में भी सूरदास अथवा अन्य कृष्ण कवियों के पदों और अन्य छंदों का प्रयोग हमें मिल जाता है. यह संगीत के माध्यम से कृष्ण भक्ति काव्य का जनता के बीच प्रचार और प्रसार ही तो है.
कृष्ण भक्ति गायन में शास्त्रीयता का आधार लिए हवेली संगीत की एक सुदीर्घ और जीवित परंपरा हमारे बीच है. यह परंपरा ब्रज से होते हुए अपने बदलते कलेवर में राजस्थान तक पहुंचकर वहीँ विकसित संवर्धित हुई. ब्रज का कीर्तन राग और शास्त्र का आश्रय लेकर हवेली संगीत का रूप धारण कर लेता है. हवेली संगीत में हमें तद्युगीन इस्लाम शासन में कृष्ण भक्ति की लौ को संगीत के माध्यम से बचाए, बनाए और विकसित करने की जीवटता भी दिखाई देती है. ऐसा माना जाता है कि जब औरंगजेब काल में देव प्रतिमाओं को तोड़ने और मंदिरों को ढहाने के आदेश जारी होने लगे तब गोकुल और गोवर्धन वल्लभकुल के गोस्वामी गुप्त रूप से अपने सेवी ठाकुरों की प्रतिमाओं को जिन्हें ‘निधि’ कहा जाता था, लेकर ब्रज से राजस्थान के कई स्थानों की और पलायन कर गए. सुरक्षित स्थानों पर पहुँच कर आचार्यों ने अपने लिए भवनों का निर्माण कराया. राजस्थान और गुजरात में भवनों को हवेली कहने का रिवाज़ है. वहां पर गोस्वामियों ने ठाकुर की मूर्तियों को स्थापित किया. इन हवेलियों में भी प्रभु की सेवा, अर्चना, पुष्टिमार्ग की पद्धति से होती रही. उसी प्रकार से भोग, राग की व्यवस्था.,और आठ झांकियां. इन्हीं देव मंदिरों में होने वाले कीर्तन को , जिसे गुजरात में हवेली संगीत के नाम से जाना जाता था, धीरे धीरे हवेली संगीत के नाम से जाना जाने लगा. हवेली संगीत प्रबंध गायन का अप्रतिम उदाहरण है. इसे ध्रुपद, धमार, ख्याल , ठुमरी और टप्पा शैलियों के साथ, प्राचीन शास्त्रों में वर्णित पांच गीतियों के संक्रमण की कड़ी कहा जा सकता है. हवेली संगीत में राग समय का पालन तो किया ही जाता है, इसके अलावा ऋतुओं के अनुसार राग का चयन करने की परंपरा भी रही है. वाद्यों में तानपुरा, मृदंग, वीणा या सारंगी, झांझ आदि वाद्यों का प्रयोग प्रमुखता से होता आया है. आजकल हारमोनियम का प्रचलन भी है. उत्सव व अन्य पर्वों पर झांझ की संगत आवश्यक समझी जाती है,बसंत पंचमी से होली तक ढोल, डफ आदि का वादन होता है. बनारस के वाजपेयी जी जैसे वीणाकर , पागल दास जी, घनश्याम दास जी ,पुरुषोत्तम जी, मक्खन जी जैसे मृदंगाचार्य तथा श्री चन्दन जी चौबे जैसे गायक वल्लभ सम्प्रदाय की ही देन हैं. मियां तानसेन के अलावा धोंधी कलावंत, नायक रामदास , हरिदास डागुर आदि संगीतग्य भी इसी सम्प्रदाय में दीक्षित थे.
सूरदास के समकालीनों में उनके अतिरिक्त गोविन्द स्वामी अपने समय के सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ थे . परमानन्द दास भी संगीत की गहरी जानकारी रखते थे. राधा वल्लभ सम्प्रदाय के भक्त हित हरिवंश श्रेष्ठ गायक थे. स्वामी हरिदास के बारे में बताया जा ही चुका है. इस प्रकार इतने संगीत महारथियों द्वारा साहित्य रचना ने कविता को संगीत की सहचरी के रूप में विकसित किया . कविता संगीत को भाषाई ताकत देती थी और संगीत कविता को रंजकता और व्यापक सम्प्रेषणीयता का गुण .
नृत्य के माध्यम से भी भक्ति कालीन कृष्ण भक्ति काव्य ने लोकप्रियता अर्जित की. कृष्ण भक्त कवि अपने उपास्य की प्रेममयी लीलाओं का आनंद विभोर होकर अभिनय करते थे. रास लीला के माध्यम से नृत्यकला की विविध झांकियां प्रस्तुत करते थे. इनके अराध्य श्री कृष्ण स्वयं नटनागर थे. मीरा अपने प्रभु के समक्ष नृत्य करती थी. गोस्वामी तुलसी दास ने मानस के आधार पर रामलीला का प्रचार किया था. इस प्रकार राम लीला और रास लीला के माध्यम से जिस लोक धर्मी नाट्य परंपरा का विकास हुआ, उसने भारतीय सांस्कृतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया. कत्थक नृत्य और गुजरात के गरबा नृत्य में सगुण भक्ति काव्य का प्रभाव देखा जा सकता है.
सूफी मत में भावों की विशिष्ट अवस्था का विशेष महत्त्व है . अर्थात ऐसी अवस्था जिसमें आप किसी भाव में अवस्थित होते हैं , डूबे होते हैं . सूफियों ने यह महसूस किया कि यह अवस्था केवल ईश्वर के स्मरण, ध्यान या प्रार्थना से ही नहीं उत्पन्न होती , बल्कि संगीत और नृत्य से भी हो सकती है. सूफी भक्ति में ‘समां’ शब्द की चर्चा होती है. ‘समां ‘ का अर्थ सुनना है. संगीत , नृत्य आदि का सम्मिलित अर्थ ‘समां ‘ से प्रकट होता है. सूफी मत में सुनने का मतलब ये है कि सुनने वाला जिस चीज को सुन रहा है उसमें तन्मय हो जाए, जैसे संगीत सुनने वाला संगीत में तल्लीन हो जाता है . सूफियों के अनुसार इसका तात्पर्य ऐसे संगीत से है जिसमें एक या सबके सम्मिलित प्रभावों द्वारा भाव की विशिष्ट अवस्था की उत्पत्ति होती है. सूफी साधक इस बात में विश्वास करते हैं कि परमात्मा ने जगत के सभी प्राणियों को अपनी अपनी भाषा में गुणगान की शक्ति दी है. इस प्रकार श्रृष्टि की जितनी ध्वनियाँ हैं , वे सब स्तुति वादन का रूप लेती हैं. परमात्मा ने जिसे अध्यात्मिक दृष्टि प्रदान कर दी है , वे सर्वथा उसकी आवाज़ सुन सकता है. यही कारण है कि मस्जिद में अज़ान देने वाले के लय एवं सुर वाले संगीत को सुनकर अथवा हवा की आवाज़ या चिड़ियों के सुरीले संगीत आदि को सुनकर भी वह भाव विशिष्ट अवस्था को प्राप्त हो जाता है. अमीर खुसरो ने भी बहुत जगह कहा है कि इस सृष्टि में आने से पहले जब आत्मा, परमात्मा से अलग नहीं हुई थी, और उसी समय उसने जो स्वर्गीय संगीत सुना था, उसको इस संसार का संगीत जागृत कर देता है. संगीत सुनकर वह इस संसार से परे होकर उस स्वर्गीय संगीत को सुनने लगता है और उसे पूर्वावस्था ( जिसमें आत्मा , परमात्मा से अलग नहीं थी ) प्राप्त हो जाती है. इसी ‘सुनने’ (समां को ) को उन्होंने साधना का ही अंग बना लिया. ‘समां’ को लेकर इस्लाम में वर्ज्य का भाव है. किन्तु सूफियों ने इसे अपनाया. यद्यपि इस सन्दर्भ में हुज्वीरी ने ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अपनी प्रसिद्द पुस्तक ‘कश्फ़ – अल – महजुब’ में दोनों पक्षों की बात कही है . उनकी दृष्टि में ‘समां’ में कोई दोष नहीं है . असली चीज़ यह है कि उसका उपयोग हम किस प्रकार करते हैं . अगर ‘समा’ से भाव विशिष्टता की अवस्था की प्राप्ति हो जाए तो वह चीज़ अच्छी है. लेकिन वह अगर केवल दिल बहलाव के लिए है और हमें खुदा की इबादत से विमुख करती है तो उसे छोड़ देना चाहिए . तर्क चाहे जो भी हो , बहत से सूफियों और दरवेशों नें इसे अपना लिया और इसको एक विशिष्ट स्थान दिया.
भारत में चिश्ती संप्रदाय में इसका संगीत का खूब प्रचलन है. धीरे धीरे बहुत से वाद्य यंत्रों को भी इसमें स्वीकार कर लिया गया. चिश्ती संप्रदाय के संगीतग्य अमीर खुसरो नें इसमें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत सितार , ढोलक और तबला जैसे वाद्य यंत्रों को शामिल कर लिया. अमीर खुसरो के बारे में माना जाता है कि ख्याल तथा तराना जैसे गायन शैलियों की भी रचना की.संगीत वाद्य आदि से भावोल्लास उत्पन्न होने पर सूफी साधक अकेले या सम्मिलित रूप से नृत्य करना शुरू कर देते हैं . भावोल्लास के समय जब ह्रदय आनंद से धडकता रहता है , उस समय औचित्य अनौचित्य का प्रश्न दूर हो जाता है . उस समय साधक नृत्य करता रहता है और अपने अहम् से मुक्ति की एक विशेष अवस्था में चला जाता है.
भक्ति कालीन कविता संगीत के साथ सहोदर का भाव लेका आगे बढती है. ध्यातव्य बात यह है कि भक्ति की अनेक प्रकार की रचनाएं किस प्रकार अलग अलग प्रकार के संगीत , वाद्य यंत्रों और नृत्यों के माध्यम से अपनी व्यापक पहुँच कायम करता है. यह भी स्पष्ट है कि सगुण कवियों के संगीत में जहां शास्त्रीय संगीत का आधार अधिक मिलता है वहीँ निर्गुण संगीत में लोक संगीत का आधार अधिक है. यद्यपि समय के साथ साथ दोनों में प्रयुक्त होने वाले वाले संगीत में फर्क की यह स्थिति बदलती जा रही है. कबीर को गाने वालों में एक तरफ भारती बंधू सरीखे लोक संगीत को आधार बनाकर गाने वाले गायक मौजूद हैं , वहीँ कुमार गन्धर्व और पंडित जसराज से लेकर मधुप मुद्गल तक कबीर को गाने की एक शास्त्रीय परंपरा भी रही है. वहीँ तुलसी और सूर को उनकी शास्त्रीयता में गाने वालों में अनूप जलोटा और लगभग सभी शास्त्रीय गायक मिल जाएंगे , किन्तु उन्हें लोक शैली में गाने वाले गायक भी बहुतेरे मिल जाएंगे. ऐसे में मूल बात यही स्पष्ट होती है कि भक्ति कालीन कविता संगीत के माध्यम से आम जनता से अपना गहरा सम्बन्ध स्थापित करती है और उसकी व्यापकता को सुनिश्चित करती है.
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
- हिंदी साहित्य : एक परिचय , डॉ फणीश सिंह
- भक्ति आन्दोलन : इतिहास और संस्कृति , सं – कुंवर पाल सिंह
- विश्वम्भरा , वर्ष १८, अंक : ३-४, १९८६
- हवेली संगीत : मनोहर लाला – rajfolkpedia.com
- कबीर की खोज , राज किशोर
- इस्लाम,सूफीमत और संगीत, प्रदीप शर्मा खुसरो- hindi.speakingtree.in
- हिंदी काव्य-संवेदना का विकास , रामस्वरूप चतुर्वेदी
- भारतीय संस्कृति और कला , वाचस्पति गैरोला
- सूर संगीत , डॉ लक्ष्मीनारायण गर्ग
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