फिल्म संगीत: बदलते दौर की आहटें
डॉ गुंजन कुमार झा
फिल्मों का इतिहास करीब सौ वर्ष पुराना ही है किंतु फिल्मों ने भारतीय जनमानस को इस कदर प्रभावित किया है कि वह आम जनता की धमनियों में रच बस गया है। संगीत को, संगीत के अनेक प्रकारों को लोकप्रियता के पैमाने पर अवतरित कर या विकसित कर जितना विस्तार फिल्मों ने दिया है उतना किसी और विधा ने नहीं। प्राचीन और मध्य युग में जो स्थान लोक संगीत का था। आज वही स्थान फिल्म संगीत का है। लोक संगीत क्षेत्र और भाषा के अनुसार बदलता रहता था किंतु फिल्म संगीत ने संगीत का एक अखिल भारतीय स्वरुप बना दिया है। वही फिल्मी गीत आपको भी झुमाता है और वही सुदूर कन्याकुमारी में बैठे शख्स को भी लुभा रहा है। वही फिल्मी गीत सात समंदर पार के श्रोताओं को भी लुभा रहा है। फिल्मों को विविधता की हत्या का आरोपी तो हमेशा ही माना जाएगा किंतु उसने लोकप्रियता के जो नए प्रतिमान भी स्थापित किए हैं वह अद्वितीय है ।
संगीत की जितनी बड़ी भूमिका हमारे यहाँ के फिल्मों में रहती है उतनी किसी और देश की फिल्मों में नहीं। ‘हॉलीवुड’व अन्य विदेशी फिल्मों में संगीत तो रहता है किंतु गीतों के रूप में उसकी उपस्थिति न के बराबार या बहुत सीमित है। हमारे यहाँ गीत-संगीत के बिना फिल्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। बल्कि यहाँ अच्छा संगीत फिल्म की सफलता की गारंटी माना जाता है।
मुंबई के मैजिस्टिक सिनेमा में प्रस्तुत ‘आलम आरा’ पहली बोलती फिल्म में शुरूआत में ही भिखारी बना पात्रा गाता है –
‘‘ दे दे खुदा के नाम पर’’ ।
डब्लू एम खान पहले गायक थे। दुर्भाग्यवश वह गीत रिकॉर्ड के रूप में सुरक्षित नहीं है। उसके बाद पारसी नाटकों के लटकों झटकों से आवेशित फिल्म बनी ‘इन्द्रसभा’। ‘इन्द्रसभा’ फिल्म में ७१ गीत थे। इसके गायक थे मास्टर निसार जिनकी आवाज का जादू उस जमाने में लोगों के सर चढ़कर बोलता था। ये सभी गीत सीधे परदे पर गाये गए ‘पाश्र्व गायन’ के रूप में नहीं। तब तक साउंड टेक्नोलोजी का इतना विकास नहीं हुआ था। पर्दे पर चलते चित्रों के आधार पर साजिंदे भी संगीत बजाया करते थे। प्रायः तबला, हारमोनियम और सारंगी का जोर रहता था। साजिंदे नज़र न आएं इसके लिए उन्हें पेड़ों की ओट में छुपा दिया जाता था। कई बार तो वादकों के शरीर को झाड़ियों और पत्तों से भी ढंकना पड़ता था। अभिनेता ही गायक हुआ करता था। माना जाता है कि ‘पाश्र्व गायन’ (प्लेबैक सिंगिंग) की कल्पना नितिन बोस ने की। उन्होंने अपनी फिल्म ‘धुप-छाँव’ ‘में पाश्र्व गायन का प्रयोग किया। यों गीत उतने असरदार नहीं रहे। रिकॉर्डिंग की तकनीक उस समय तक प्रारंभिक अवस्था में ही थी. उस वक्त के संगीत स्टूडियो टीन जी दीवारों और छतों वाले होते थे जहाँ बैठना और रिकॉर्डिंग करना सुखद नहीं होता था। धीरे-धीरे तकनीक का विकास होता गया। ग्रामोफोन के प्रचलन ने व्यापक स्तर पर अपना जादू चलाया।
फिल्म संगीत का पहला दौर कुंदन लाल सहगल, पंकज मलिक और आर सी बोराल का था। संगीत और गायकी में शास्त्रीय संगीत के संस्कार, पारसी शैली का प्रभाव और दरबारी परंपरा की झलक साफ-साफ देखी जा सकती है। कुंदन लाल सहगल पहले ‘स्टार गायक’ बने। उनकी आवाज़ का जादू लोगों के सर चढ़ कर बोलता था।
सरस्वती देवी पहली महिला संगीत निर्देशिका बनी । नूरजहाँ, शमशाद बेगम, जोहराबाई अंबाले वाली की दिलकश आवाजें खुशबुओं की तरह फिजाओं में फैल गईं। के.सी. डे, पंकज मलिक और तिमिर बरन और गुलाम हैदर जैसे संगीतकारों ने एक से बढके एक धुनें तैयार कीं। सहगल का गीत ‘‘जब दिल ही टूट गया’ गावों और शहरों में प्रसिद्धि के नए रिकॉर्ड बना रहा था।
‘शोमैन’ कहे जाने वाले राज कपूर का आना फिल्म संगीत की दृष्टि से भी बड़ा महत्त्वपूर्ण था। उनकी टीम ने संगीत का एक नया व्याकरण रचा। ‘आवारा’ और ‘बरसात’ फिल्मों का संगीत भारतीय और पाश्चात्य वाद्यों के साथ नए तरह का आस्वाद पैदा कर रहे थे। शंकर जयकिशन मूल वाद्यों के वादकों के साथ सौ-सौ की तादात में बैठते थे। एक ही साज़ को पचासों वादकों के साथ बजाकर नए तरह की आवाज़ और फिर हार्मनी के ज़रिये नई तरह की धुनें इजात कर रहे थे। उनके गीत ‘‘बरसात में हम से मिले तुम सजन…’’ और ‘‘ हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’आम जनमानस में घर कर रहे थे। वहीँ फिल्म ‘आवारा’के गीतों ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। कहते हैं कि रूस और पौलेंड में भारतीयों को इस फिल्म के गीतों से पहचाना जाने लगा था।
आगे भारतीय फिल्मों का स्वर्णिम दौर शेष था। जब एक साथ इतने महारथी संगीत निर्देशक और ऐसे महान गायकों का पदार्पण हुआ जिनसे पीढ़ियों ने प्रेरणा पाई और जो आज भी अनुकरणीय हैं। संगीत निर्देशन में शंकर जयकिशन के बाद मदन मोहन, खैय्याम, नौशाद, कल्याणजी आनन्दजी, सलिलचौधरी , बसंत देसाई, रामलाल, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर.डी.बर्मन आदि ने फिल्म संगीत को नया आयाम दिया। गायकों में मोहम्मद रफी, मुकेश, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, मन्नाडे और गायिकाओं में लता मंगेशकर, गीता दत्त और आशा भौंसले ने गायकी के झण्डे गाड़े। गीतकारों में में मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, शैलेन्द्र, शकील, हसरत जयपुरी, भरत व्यास आदि गीतकारों ने सुंदर रचनाएं कीं। इस दौर में तरह तरह के गीत बने। शास्त्रीय संगीत पर आधरित गीतों का ख़ास महत्त्व था। कव्वाली, मुजरा, ग़ज़ल आदि की नए अंदाज में रचनाएं हुई। इस दौर में पं. हरि प्रसाद चैरसिया और पं,शिव कुमार शर्मा ने शिव-हरि नाम से कई फिल्मों में संगीत निर्देशन किया। फासले, चाँदनी, लम्हें, साहिबान आदि के संगीत को सराहा गया। पं. भीमसेन जोशी, उ. जाक़िर हुसैन, पं. राजन एवं साजन मिश्र आदि ने किसी न किसी रूप में फिल्म संगीत में भी अपनी कला का प्रदर्शन किया।
इसके बाद फिल्मी गायकी में किशोर कुमार के वर्चस्व का दौर। यह वो दौर था जब परदे पर पहले राजेश खन्ना और फिर उसके बाद अमिताभ बच्चन का एकछत्र राज था। किशोर कुमार की ‘वर्सटाइल’ गायकी और उसके प्रति लोगों की दीवानगी इस बात का प्रतीक थी कि आने वाले समय के फिल्म संगीत में मूल-चूल बदलाव आने वाला है।
नब्बे के दशक तक आते-आते फिल्म संगीत करवट बदलने लगा। जींस और रंगबिरंगे बल्ब लगाकर ) ऋषि कपूर पर फिल्माया गीत ‘मेरी उमर के नौजवानों ’’ (फिल्म –क़र्ज़- १९८०) हर नौजवान के सर चढकर बोलने लगा। फिर आया खालिश ‘डिस्को’ का दौर । बप्पी लाहरी का दौर । ‘‘ आइ एम ए डिसको डांसर’ पर्दे पर थे मिथुन चकवर्ती। यह दौर माइकिल जैक्शन से भी प्रभावित था। पाश्चात्य आधार लिए यह संगीत ज्यादा दिनों तक श्रोताओं के बीच स्थायी नहीं रहा। इस शोर के बीच एक समय शांत ग़जलों का भी आया। इस दौर में पंकज उदहास और अनूप जलोटा खूब सुने जाने लगे। ग़ुलाम अली की गायी ‘ चुपके-चुपके रात दिन’ , और पंकज उद्हास की गायी ‘‘चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल ’’ को फिल्म के पर्दे पर फिल्माया गया। वहीँ कई गीतों-ग़ज़लों में उन्हें गवाया गया। तलत अज़ीज़ , भूपेंदर कई ग़ज़ल गायकों को विशेष रूप से फिल्मों में गवाया गया। जगजीत सिंह अपने ग़ज़लों के साथ फिल्मों को हिट कराने का माद्दा रखने वाले गायक और संगीत निर्देशक माने जाने लगे। मगर डिस्को के रूप में पाश्चात्य संगीत अपने पैर जमा चुका था। रूप बदलता गया लेकिन पाश्चात्य प्रभाव बरकरार रहा। गिटार, स्पेनिश गिटार, की-बोर्ड और अनेक इलेक्ट्रिक वाद्यों के सहारे सौ सौ साजिंदों की जरूरत खत्म सी हो गयी। किंतु वाद्यों की प्राकृतिक कर्णप्रियता पर भी नकलीपन आया। ‘मेलोडी’ के ऊपर हार्मनी का वर्चस्व बढ़ने लगा
आगे चलकर नदीम श्रवण का दौर आया । नदीम श्रवण की जोड़ी ने मेलोडियस संगीत (जिसमें भारतीय और पाश्चात्य वाद्यों और संगीत का मिश्रण रहता था) के सहारे संगीत को नया आसमान दिया। गायकों में कुमार शानू, उदित नारायण, अलका याज्ञनिक और कविता कृष्णमूर्ति ने गायकी की कई शैलियाँ एक साथ विकसित कीं। किन्तु वह समय कुमार शानू से आच्छादित रहा। उनके नाम फिल्म फेयर पुरस्कारों की लड़ी लग गयी। स्थिति यहाँ तक आई कि कहते हैं कि कुमार शानू भी थक से गए और गानों के लिए मन करने लगे। लेकिन कुमार शानू एक तरह से अंतिम “स्टार गायक’ थे। उसके बाद गायकों का “स्टारडम’ खत्म हो गया।
जब मैं कहता हूँ ‘स्टारडम’ तब मेरा सीधा अर्थ उसकी सत्ता और उसके सर्व-स्वीकार्यता का है। गायक एक सुपर स्टार बने ऐसी कल्पना हम आज नहीं कर पाते किन्तु कम से कम किशोर कुमार तक यह स्थिति थी। फिल्म फेयर पुरस्कार वितरण समारोह का कोई अस्सी के दशक का वीडियो निकालिए। उसमें देखिये जब किशोर कुमार स्टेज पर अपनी प्रस्तुति देने आते हैं तो क्या होता है। राजेश खन्ना से लेकर अमिताभ बच्चन तक और तमाम संगीत निर्देशकों से लेकर फिल्म निर्देशक तक उनके सम्मान में खड़े हो जाते हैं। क्या आज ऐसी कल्पना की जा सकती है? आज गायकों की स्थिति कैसी है इसको समझने के लिए सलमान खान और अर्जित वाले प्रकरण को देख लीजिये। सुपर स्टार कहे जाने वाले सलमान खान तय करते हैं कि एक गायक का जो इंडस्ट्री में उस समय सबसे ‘हिट’ गायक है उसका मुस्ताक्विल क्या होगा।
फिल्म संगीत में गायकों की क्या स्थिति थी इसको कॉपी राईट की लड़ाई का लता मंगेशकर की अगुवाई में चलाया गया पूरा वाकया देखना चाहिए। किस तरह गायकों का गीत पर कोई अधिकार न था और गीत गाने के बाद उन्हें कोई रोयल्टी नहीं दी जाती थी। यह मानसिकता आज भी विद्यमान है। लगान फिल्म के समय गायक सोनू निगम और कथित ‘सुपर स्टार’ आमिर खान की तकरार भी इस मायने में उल्लेखनीय है। आमिर खान ने बाकायदा फ़िल्मी गीतों की रोयल्टी में अभिनेताओं को भी शामिल करने की मांग की क्योंकि उन्हें लगता है कि गीत को हिट करने में अभिनेताओं का भी रोल होता है।
खैर, नदीम श्रवण के दौर में गीतकारों में समीर ने अपनी कलम से कई बेहतरीन नगमें दिये। जावेद अख्तर और गुलजार दशकों से समानांतर रूप से श्रेष्ठ गीत लिख रहे थे। आगे चलकर ए आर रहमान के रूप में संगीत जगत को एक सितारा मिला और गायक के रूप में मिले सोनू निगम। एक तरह से आखिरी ऐसे नाम थे जिन्हें हम वक्त के दोड़ में कुछ ठहराव के साथ देखते हैं।
सन् २००० के बाद से आज तक करीब दो दशकों का यह समय अनेक प्रयोगों का दौर रहा है। संगीत में प्रयोग के नाम पर बहुत कुछ हुआ। कई संगीतकारों पर धुनों की चोरी के आरोप भी लगे। फिल्मों के संगीत में कुछ भी निजी न रहा। पॉप, रैप, जैज और अन्य पाश्चात्य अंधी नकल ने कहीं न कहीं संगीत का अभारतीयकरण सा कर दिया। अभी भी संगीत में नए प्रयोगों का दौर जारी है और कई अच्छी धुने बनती रहती हैं। यह वह समय है जब ‘हनी सिंह’ और ‘मिक्का सिंह’ (रैपर) स्टार गायक हैं। इन गायकों के पास गायकी के नाम पर न तो कोई तालीम है और न गायक होने का गुमान ही। ये खुद को परफ़ॉर्मर मानते हैं जिन्होंने अपनी अदायगी और नए तेवर के संगीत से आम लोगों तक अपनी पहुँच बनाई। खासकर ‘कॉस्मोपॉलिटन’ संस्कृति में जहाँ संगीत का मतलब मुख्यतः ‘डांस करना’ है और जहाँ ‘चार बजने पर भी’ ‘पार्टी बाकी’ रहने का जश्न होता है , वहाँ पर इनके संगीत का बोल बाला है। यह सही है कि कुमार सानू , उदित नारायण, सोनू निगम, सुरेश वाडेकर, अल्का याज्ञनिक, साधना सरगम आदि अपनी पूरी उर्जा के दौर में ही फिल्मों में गायन के लिहाज़ से अप्रासंगिक हो गए हैं और इनके गाने लायक कोई गीत आज के फिल्म संगीतकारों के पास नहीं है फिर भी सुनिधि चैहान और श्रेया घोषाल की लचकदार गायकी, सोनू निगम और कैलाश खेर के साथ अर्जित सिंह और जावेद जैसे गायकों की ‘मेलोडियस’ गायकी उम्मीद टूटने नहीं देती। उम्मीद कि फिल्म संगीत में गायकी अभी बाकी है।
डॉ गुंजन कुमार झा
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