प्रेमचंद : माँ
डॉ गुंजन कुमार झा
एक लेखक: एक कहानी {संक्षिप्तिका-3}
प्रेमचंद : माँ
प्रेमचन्द हिन्दी कहानी के पुरोधा रचनाकार हैं। इनका जन्म 31 जुलाई 1880 ई- को बनारस के समीप लमही नामक गाँव में हुआ। मूल नाम धनपतराय श्रीवास्तव। इन्हें इनके जानने वाले नवाबराय के नाम से भी पुकारते थे। इनके पिता का नाम श्री अजायब लाल था। वे पोस्टमास्टर थे।
प्रेमचन्द की प्रारम्भिक शिक्षा इनके गाँव में हुई। आगे ‘इन्टर’ की शिक्षा इन्होंने काशी के ‘कि्ंवस कॉलेज’ से प्राप्त की। ये बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उर्दू, फारसी एवं अंग्रजी के कथा साहित्य को इन्होने बड़े चाव से पढा । पिता के असमय देहांत के बाद कम उम्र में ही इनकी शादी कर दी गयी। पत्नी के रूप में समेल पत्नी नहीं होने के कारण कुछ समय तक इनका जीवन पारिवालिक क्लेशों में अशांत रहा। बाद में इन्होने दूसरी शादी की। उनसे इन्हें अपने रचनात्मक कार्यों में काफी सहारा मिला।
एक स्कूल में कुछ समय तक हेडमास्टरी करने के बाद प्रेमचन्द शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल के रूप में नियुक्त हुए। इस दरमियां इन्हेांन नवाबराय के नाम से उर्दू में अनेक रचनाएं की । इनकी रचना इनकी कहानी संग्रह ‘सोजेवतन’ नाम से छपी जिसे अंग्रेज सरकार ने जब्त की लिया। बाद में इन्होंने नौकरी छोड़ दी और पूर्णतः साहित्य को ही अपना जीवन समर्पित करते हुए प्रेमचन्द ‘उपनाम’ से हिन्दी में रचना करने लग गए। जीवन निर्वाह के लिए इन्होंने ‘प्रेस’ भी खोल लिया। साथ ही कई पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं संपादन भी किया।
प्रेमचन्द का रचना संसार कथा साहित्य की अमूल्य निधि है। इन्होंने लगभग 300 कहानियां एवं एक दर्जन उपन्यासों की रचना की है। प्रमुख कृतियाँ हैं- गोदान, गबन, प्रेमाश्रम, कर्मभूमि, रंगभूमि, निर्मला, सेवासदन, मानसरोवर-आठ भागों में(कहानी संकलन) । इनकी कहानियों में ‘पंचपरमेश्वर’, नमक का दरोगा, आत्माराम, दो बैलों की कथा, ईदगाह, नशा, कफन, शतरंज का शिलाड़ी, बूढी काकी, पूस की रात आदि विश्व प्रसिद्ध हैं।
प्रेमचन्द की कहानियों में मुख्यतः ग्रामीण जीवन और उस जीवन की सच्चाइयों- भूख, अन्धविश्वास, अज्ञान, फूट, कलह, शोषण, तथा कर्ज में पिसते हुए किसान एवं मजदूर की सफल अभिव्यक्ति हुई है। इसके साथ ही प्रेमचन्द नारी पीड़ा को भी समझने वाले रचनाकार थे। यही कारण है कि नारी संबंधी सामाजिक कुरीतियों को भी इनकी कहानियों में जगह मिली है।
‘माँ’ ऐसी कहानी है जो प्रेमचन्द साहित्य के अलग तरह के आस्वाद से परिचित कराती है। कहानी एक माँ के ममत्व के चिता में तब्दिल हो जाने का आख्यान है। एक ऐसा आख्यान जिसमें लेखन ने बड़े इत्मिनान के साथ माँ के जीवन-संर्घर्ष को, उसके मन के घात-प्रतिघात को, पुत्र में पति के गुणों को खोजती निगाहों को और उससे प्राप्त निराशा को यथार्थपरक ढंग से प्रस्तुत किया है।
आदित्य स्वाधीनता आंदोलन का एक ईमानदार सिपाही है। उसके जीवन का एक लक्ष्य है, एक दिशा है जिस पर वह पूरी ईमानदारी और निष्ठा से अमल करता है, वह है- सामाजिक परोपकार और इस क्रम में व्यवस्था-विरोध। ऐसी ही क्रांतिकारी गतिविधि के दौरान उसे तीन वर्ष की सजा होती है।
करुणा को पूरी उम्मीद थी कि एक नेता के रूप में इतने साथियों के संग नारों की जयजयकार के साथ जेल को जाने वाला आदित्य उसी शानो शौकत के साथ वापिस आएगा जिससे गया है। इसलिए तीन वर्षों के दौरान करफ़णा ने कभी पश्चाताप नहीं किया। सजा की अवधि समाप्त हुई। छूट कर आने के दिन करुणा स्वागत की पूरी तैयारियों सहित आदित्य का इंतजार करती है। किंतु आदित्य तपेदिक का शिकार हुआ वापस आता है और करुणा से अंतिम सासें गिनते हुए पूछता है- ‘‘तुम्हारे विचार में मेरा जीवन कैसा था? बधाई के योग्य?—–तुम्हारे विचार में मुझे अपने जीवन पर हँसना चाहिए या रोना चाहिए?’’
इन प्रश्नों के जवाब देते हुए करुणा के मन की सारी दुर्बलता मानो लुप्त हो गयी। प्रेमचन्द लिखते हैं-
‘’उनकी जगह उस आत्मबल का उदय हुआ जो मृत्यू पर हँसता है।‘’
आदित्य की मृत्यू हो जाती है। करुणा के ऊपर आदित्य के पुत्र की जिम्मेदारी आ जाती है। वह उसमें उसके पिता की छवि देखती है और उसे उस जैसा ही बनाना चाहती है। वह उसे सामाजिकता से पूर्ण, परोपकारी, सहृदयी और ईमानदार बनाना चाहती है। किंतु ज्ञान का उजाला पुत्र प्रकाश को आत्मकेंद्रित कर देता है। उसका पुत्र इंग्लैंड जाकर पढने का मन बना लेता है। करुणा के लाख चाहने पर भी वह मन से उसके आदर्शों के अनुरूप नहीं बन पाता। वह ठगा सा महसूस करती है। उसे लगता है मानो उसके ममत्व की चिता जल गयी। जिस आदित्य को शरीरी तौर पर मौजूद नहीं रहने के बावजूद वो आदर्शों के रूप में अब तक सीने से लगाए हुए थी वह अब एक तरह से मर चुका था।
करुणा जिन्दगी गुजार देती है इस उम्मीद में कि जिसे शरीरी तौर पर वह खो चुकी है – उसे अपने पुत्र के रूप में वह पा लेगी। इसलिए वह अपने पुत्र को उन्हीं सिद्धांतो और आदर्शों का पाठ पढाती है जो आदित्य की जीवनचर्या थी। किंतु उसका पुत्र- प्रकाश अंततः मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी की व्यवस्था- परायणता में ही अधिक रमता है। जब वह अपने व्यक्तित्व विकास के लिए देश के लिए देश छोड़ कर जाने का निश्चय करता है तब अंततः वह आदित्य से संबंधित सभी स्मृतियों को हटाने का निर्णय कर लेती है।
डॉ गुंजन कुमार झा
Leave a Comment