
नैतिक मूल्यों के विकास में साहित्य का योगदान
डॉ गुंजन कुमार झा

मनुष्य ने जब इस पुथ्वी पर अपना जीवन शुरू किया होगा तो उसके सामने जो पहली समस्या रही होगी, वह रही होगी भूख की। भूख मिटाने के लिए उसने कंद-मूल खाए होंगे। पेड़ों पर लगे फ़लों को जतनों से तोड़ा होगा, छोटे जानवरों का शिकार किया होगा और इस तरह अपने जीवित रहने की मूल शर्त पूरी की होगी। सुविधालोभी मनुष्य ने अपना बसेरा नदी किनारे बनाया होगा ताकि एक ही स्थान पर उसके अधिक से अधिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। और जब उसकी जीते रहने की मूलभूत शर्त पूरी हो गयी होंगी तब उसका ध्यान मनोरंजन, सम्बन्ध, सोच-विचार(ज्ञान) पर गया होगा। प्रजनन के जरिए मनुष्य का अस्तित्व तो सुनिश्चित हो गया होगा किंतु मनुष्यता का निर्माण निश्चित रूप से प्रजनन से इतर संबंधों के जरिए ही हुआ होगा।
संतानोत्पत्ति एक जैविक प्रक्रिया है और इसके लिए प्रेम, नैतिकता या किसी भावुकता की नहीं, महज यौन-संबंध की जरफ़रत है। किंतु मनुष्य सभ्यता का विकास मूलतः यौन संबंधों से आगे बढकर भावुक और सामाजिक संबंधों का विकास है। इन संबंधों का निर्माण ही सामाजिकता का मूल आधार है। सामाजिकता का विकास झुण्ड-चेतना से कुछ अलग है। झुण्ड-चेतना जीवन को बचाए रखने का जरिया मात्र है। किंतु उसमें किसी तरह की जवाबदेही और भावुकता का समावेश आवश्यक नहीं । मनुष्य सभ्यता इस झुण्ड-चेतना से आगे बढकर संबंधों में भावुकता और जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए सामाजिक चेतना का वरण करती है। यही सामाजिक चेतना नैतिकता को मूल्य के रूप में स्वीकार करती है और उसे मनुष्य होने की पहली शर्त मानती है।

नैतिक शब्द नीति से बना है। नीति माने नियम। जब सामाजिकता होगी तब उसमें कुछ चीजें कर्त्तव्य के रूप में होंगी और कुछ का निषेध होगा। इसी कर्त्तव्य और निषेध से नैतिकता का निर्माण हुआ है। नैतिकता सामाजिक मूल्य होते हैं। बहुत प्रचलित धारणा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । तो जाहिर है सामाजिक मूल्यों का बहुत महुत्त्व है। ऐसे सामाजिक मूल्य हर देश-काल और समाज में होते हैं जिनके आधार पर एक समाज अपना जीवन जीता है। यद्यपि ये शाश्वत और समान नहीं होते। समय और समाज के आधार पर इनमें अंतर होता है। मसलन जो भारत का सामाजिक मूल्य और जो अमेरिका का सामाजिक मूल्य है उसमें अंतर है। इसका कारण दोनों देशों के समजों में फ़र्क होना है।
तो सवाल है कि जब नैतिकता न शाश्वत है और न देशकाल से ऊपर है तो फिर इसका महत्व कैसे है? दरअसल नैतिक मूल्य ही वे तत्त्व हैं जो मनुष्य को जानवर से विलगाते हैं। मसलन माता-पिता का आदर, परिवार और मानवीय संबंधों में आस्था, परोपकार, दान आदि मनुष्यों में ही पाए जाते हैं जानवरों में नहीं।
`नैतिक मूल्य जैसा कि कहा गया कि समय और समाज के अनुरूप अलग-अलग भी होते हैं। कुछ नैतिक मूल्य एक समय में सभी समाजों में एक समान होते हैं और कुछ बदले हुए। वर्त्तमान में उपरोक्त नैतिक-मूल्य सम्पूर्ण विश्व परिवेश में मान्य हैं किंतु भारत के संदर्भ में देखें तो इसमें कुछ ऐसे मूल्य भी जुड़ जाएंगे जो कुछ अन्य समाजों में मूल्य रूप में स्थापित नहीं भी हो सकते हैं। मसलन विवाहपूर्व यौन-संबंधों का हमारे यहाँ निषेध है और यह एक नैतिक मूल्य के रूप में स्वीकार्य है किंतु यही युरोपियन समाज में मूल्य के रूप में स्थापित नहीं है। वहाँ पर यौन संबंध सहज प्रक्रिया के रूप में मान्य है। संभव है कि हमारे यहाँ भी कालांतर में यौन-संबंधों के प्रति नैतिकता के भाव में तब्दीली आए। उसी तरह माता-पिता का आदर करना बेशक सभी समाजों में नैतिक मूल्य के रूप में मान्य हैं किंतु ‘आदर’ शब्द की परिभाषा भी समाज-सापेक्ष है। हमारे यहाँ आदर का जो मतलब है जरूरी नहीं कि अन्य समाजों में भी आदर का वही अर्थ हो। तो कहने का लब्बो-लुबाव यह है कि नैतिक मूल्य बेशक समाज सापेक्ष हैं किन्तु ये हैं और यही हमारी मनुष्यता को प्रामाणित करते हैं। यह धरती मनुष्यता के साथ मनुष्य के रहने लायक बनी रहे इसके लिए नैतिक मूल्यों का होना आवश्यक है।

प्रश्न उठता है कि नैतिक मूल्यों का उद्गम स्रात क्या है? यह हम कहाँ से सीखते हैं? उत्तर है कि यह हम सीखते नहीं अपितु यह हमारे भीतर विकसित होता है और इसके विकसित होने में माता-पिता, परिवार, समाज, संस्थान(स्कूल-कॉलेज) आदि का अपनी-अपनी तरह से योगदान होता है। आधारभूत नैतिक मूल्यों का विकास एक बच्चे में परिवार द्वारा ही कर दिया जाता है किंतु आगे कार्य शिक्षण संस्थानों एवं शिक्षा द्वारा कभी सयास और कभी स्वमेव होता चलता है। इसमें साहित्य की भूमिका भी ख़ास है।
व्यक्तित्व का विकास एक सतत प्रक्रिया है किंतु नैतिक मूल्यों के बीज बचपन में ही पड़ जाते हैं। इसलिए साहित्य की जब हम नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में बात करते हैं तो वह बौद्धिक साहित्य से अधिक साधारण और प्रचलित साहित्य से है।
बच्चों का जीवन अनगढ होता है । उन्हें बचपन से ही जैसी शिक्षा-दीक्षा मिलेगी उसीके अनुसार उनके व्यक्तित्व का निर्माण होगा। इतिहास बताता है कि अनेक महान पुरुष किसी न किसी कहानी, साहित्य की अन्यान्य विधाओं या प्रेरक प्रसंगों से प्रभावित हुए है। ‘हरिश्चन्द्र’ नाटक देखने के बाद गांधी को सत्य बोलने की ऐसी प्रेरणा मिली कि आगे चलकर वे सत्य और अहिंसा के महान संत और क्रांतिकारी बन गये। शिवाजी के बारे में भी यह प्रचलित है कि उन्हें अपने माता-पिता द्वारा सुनाई गयी वीर-कथाओं से वीरता और देशप्रेम की शिक्षा मिली थी। इसलिए बच्चों को सदैव ऐसे पौराणिक,ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक कहानियाँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए जिससे उनमें परोपकार, साहस, वीरता, बड़ों के प्रति सम्मान, देश प्रेम, न्याय और सत्य-वचन जैसी उदात्त भावनाओं का विकास हो। यदि हम किसी को सुख देंगे तो हम सुख मिलेगा और यदि दुख देंगे तो दुख ही मिलेगा ऐसी सीख जीवनपर्यंत बच्चों के परोपकारी व्यक्तित्व को बढावा देगी। कवि लिखता है-
चार वेद, छः शास्त्र में बात लिखी है दोय।
सुख दीन्हें सुख होत है, दुख दीन्हें दुख होय।।
रहीम की पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
यों रहीम सुख होत है, उपकारी के संग।
बांटनवारे को लगे, ज्यों मेंहदी के रंग।।
परोपकार की भावना को ये पंक्तियाँ बल देती हैं। तुलसी के राम भी कहते हैं-
परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

तेजी से बदलते दौर में कुछ लोग यह भी मानने लगे हैं कि बच्चों को कितनी भी शिक्षा दे दीजिए समाज और देश में इतनी बुराइयाँ व्याप्त हैं कि हमारी शिक्षा धरी-की धरी रह जाती है और बच्चे बड़े होकर तमाम नैतिकताओं को ताक पर रख देते हैं किंतु इस संदर्भ में भी हमें रहीम के ही देाहे के सहारे अपनी बात कहनी/समझनी होगी-
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का कर सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
पाश्चात्य विद्वान ‘पोलाक’ ने कहा है- ‘‘बच्चे स्वर्ग के देवताओं की अमूल्य भेंट हैं।’’ हमारे यहाँ तो यह कहावत ही है कि ‘‘बच्चे भगवान का रूप होते हैं।’’ भगवान के रूप की अच्छाईयाँ उसके अन्दर बड़े होने पर भी विद्यमान रहें इसके लिए आवश्यक है कि उन्हें महान नैतिक मूल्यों से अबगत कराया जाए और उसकी शिक्षा दी जाए। वास्तव में बच्चों की उन्नति में ही राष्ट्र का भविष्य उन्नत होता है। आज के बालक जो कल नागरिक बनेंगे, उन्हें सक्षम, योग्य बनाने के साथ हम जब महान मूल्यों से आवेशित करेंगे तभी वे राष्टृ के विकास और समृद्धि में अपना रचनात्मक योगदान दे सकेंगे।
साहित्य मूलतः जीवन का आख्यान है। जीवन की घटनाओं – जन्म, मृत्यू, दुख, सुख, भय, त्रास, जीत, हार, लोभ, त्याग आदि तमाम भावों और स्थितियों का समावेश साहित्य में होता है। इसलिए प्रकारान्तर से साहित्य एक जीवन के भीतर अनेक जीवन को जीने/समझने का अवसर प्रदान करता है जो जीवन केा समझने के साथ ही बहुत सहज स्तर पर नैतिक मूल्यों के विकास में अपनी महती भूमिका निभाता है। प्रारंभ से ही शिष्टाचारगत मूल्यों के विकास के लिए अनेक किस्से बचपन में दादी माँ सुनाया करती हैं। दादी माँ के किस्से , पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ और वर्त्तमान कॉमिक्स और कार्टून्स के जरिए कहानियों के जो डिजिटल माध्यम हैं उनके जरिए बच्चों में कई तरह के नैतिक मूल्यों का विकास सहज ही होता चलता है। ‘चाचा चौधरी’ से लेकर ‘छोटा भीम’ तक आप इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि इसमें ऐसे बहुत कुछ है जो बच्चों में नैतिक मूल्यों का विकास करते हैं। बुराई पर अच्छाई की जीत, सच की ताकत, कमजोर की सहायता, प्रेम-सद्भाव, देश और समाज-वत्सलता आदि मूल्यों का विकास इनके माध्यम से किसी न किसी स्तर पर अवश्य हो रहा है। यों क्योंकि डिजिटल माध्यमों में दादी माँ जैसा अभिभावकीय तत्व विद्यमान नहीं है और वह खुला माध्यम है इसलिए उसमें सावधानी की आवश्यकता है।
कहानी, कविता, जीवनी, संस्मरण आदि अनेक विधाओं के द्वारा छात्र जीवन में बहुत कुछ सीखने को मिलता है। महान व्यक्तियों की जीवनियाँ विशेषकर बहुत सकारात्मक प्रभाव डाल सकती हैं। प्राचीन चरित्र- बुद्ध, अशोक, चाणक्य, दाण्डकारण्य, भास्काराचार्य मध्यकालीन चरित्र- हर्षवर्धन, अकबर, शिवाजी आधुनिक गांधी, सुभाष आदि चरित्रें की जीवनियाँ अनेक तरह के मूल्यों के विकास में अपना योगदान दे सकती हैं। ये सभी चरित्र भारतीय थे , इसी प्रकर वैश्विक स्तर पर महान व्यक्तित्वों की जीवनियाँ और संस्मरण महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं। अनेक कृतियाँ, उपन्यास, कहानी, कविताएं आदि का व्यापक प्रभाव हमारे नैतिक मूल्यों के विकास में पड़ता है।
बदलते वक्त में समाज का पूरा ढाँचा बदला है । जीवन शैली बदली है। परिवार बदले हैं। टीवी, कम्प्यूटर, माबाइल के जरिए सेटलाइट चैनलों और इंटरनेट ने अतिरंजित रूप में हमारे जीवन को प्रभावित किया है। फिल्मों, कार्टू्न्स, धारावाहिकों आदि में ऐसा बहुत कुछ परोसा जा रहा है जिसका बच्चों और युवाओं के मन पर विपरीत असर पड़ रहा है। अनैतिकता के इस भीषण हाहाकारी दौर में साहित्य नैतिक मूल्यों के बचाए,बनाए और बढाए जाने का एकमात्र सार्थक औज़ार नज़र आता है। शिक्षाविदों, समाजसेवियों और मनोवैज्ञानिकों द्वारा अच्छे साहित्य के पठन-पाठन के महत्व को रेखांकित करते हुए इसे बढावा दिये जाने की पैरवी की जाती रही है। जरूरत इस बात की है कि साहित्य की इस क्षमता का उपयोग सार्थक तरीके से किया जाए।
डॉ- गुंजन कुमार झा
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