नाट्यशास्त्र : नाट्य-विधान और संगीत-प्रयोग
डॉ गुंजन कुमार झा
नाटक और संगीत का शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो जिसकी चर्चा नाट्यशास्त्र में ना की गयी हो। इसलिए नाट्यशास्त्र का संदर्भ दिए बगैर इन विषयों में कोई भी बात पूरी नहीं होती। नाटकों में गीत और संगीत की स्थिति क्या है और कैसी होनी चाहिए, इसकी बहुत विशद् चर्चा भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में की है। संगीत विषय पर नाट्यशास्त्र का छः अध्याय केंद्रित है। इसके अलावा अन्य अध्यायों में भी संदर्भानुसार गीत एवं संगीत की चर्चा की गयी है। गीत-संगीत केंद्रित छः अध्यायों में 28वें अघ्याय में वाद्यों के चार भेद, स्वर, श्रुति, ग्राम-मूर्छनाएं, अठारह जातियां, उनके ग्रह, अंश, न्यास इत्यादि का विवरण है। 29वें अध्याय में विभिन्न जातियों का रस के अनुकुल प्रयोग तथा अनेक प्रकार की वीणाओं की चर्चा करते हुई उनके वादन की विधि भी दी गयी है। 30वें अध्याय में सुषिर वाद्यों की चर्चा की गयी है। 31वें अध्याय में कला, लय और विभिन्न तालों का विवरण है। 32वें अध्याय में ध्रुवा गीत की चर्चा करते हुए उनके पांच भेदों के बारे में बताया गया है। साथ ही छन्द विधि और गायक-वादकों के गुण भी दिए हुए हैं। 33वें अध्याय में अवनद्ध वाद्यों की उत्पत्ति, भेद, वादन-विधि, इनके वादन की 18 जातियां और वादकों के लक्षणों का वर्णन है।
नाटक और गीत-संगीत की परस्परता की दृष्टि से नाट्योत्पत्ति का भरत का सूत्र ही सबसे पहले प्रकाश डालता है। कहा गया है-
जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् समाभ्यो गीतमेव च।
यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि।।
आशय है कि नाटक के पाठ्य अर्थात् संवाद या गद्यात्मक भाग को ऋगवेद से, गीत को सामवेद से, अभिनय को यजुर्वेद से और रसों को अथर्ववेद से लिया गया है। यानी उक्त श्लोक के मुताबिक नाटक के चार अंग हुए। क्रमशः
1. संवाद
2. गीत
3. अभिनय
4. रस
स्पष्ट है कि भरत और तत्कालीन विकसित नाट्य-परंपरा में गीत और संगीत नाटकों में संवाद के बाद दूसरे सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व थे। इतना ही नहीं यह अभिनय से भी पहले गिना जाने वाला तत्व है।
वृत्ति और प्रवृत्ति की चर्चा करते हुए भरत कहते हैं कि वृत्ति शब्द का मूल धातु है- ‘वृतु’, जिसका अभिप्राय है – वर्तन, आवरण, व्यवहार, चेष्टाएं। वृत्ति से अभिप्राय है नटों की क्रिया या व्यापार जिसका रूपक में प्रदर्शन होता है। वृत्ति केवल वह नहीं है जिसका शरीर के विभिन्न अंगों से प्रदर्शन किया जाए अपितु मन तथा वागिंद्रिय का व्यापार भी ‘वृत्ति’ के अंतर्गत आता है। सभी प्रकार के काव्य के अस्तित्व का कारण वृत्तियां होने से माता और उसकी संतति में जो सम्बंध रहता है वही वृत्ति तथा काव्य का सम्बंध रहने से वृत्तियां ‘नाट्यमाता’ कहलाती हैं। भरत ने नाट्यशास्त्र में चार प्रकार की वृत्तियों की चर्चा की है –
भारती,
सात्वती,
कैशिकी
आरभटी।
जो पुरुष पात्रों द्वारा व्यवहार की जाती हो, स्त्रियों के द्वारा जिसका प्रयोग नहीं किया जाता हो, जो संस्कृत संवादों में ;पाठ्य में प्रमुखता लिए हो तथा जिसका भरतों द्वारा अपने नाम के अनुरूप नामकरण किया गया हो – उसे भारती वृत्ति मानना चाहिए।
जो वृत्ति ‘सात्वत’ गुण न्याय, तथा छंद से युक्त हो, जिसमें हर्ष अधिक तथा शोक का अत्यंत अभाव हो तो वह सात्वती वृत्ति होती है। इस वृत्ति में वीर, अद्भुत तथा रौद्र रस होते हैं। यह करूण, शृंगार रस तथा निर्वेद भाव से हीन होती है। इसमें उद्धृत प्रकृति के पुरुषों की बहुलता होती है जो एक दूसरों को शब्दों से तिरस्कृत करते हैं।
जो आकर्षक वेष के कारण विशेष सुरूचिपूर्ण हो, जिसमें स्त्री पात्र तथा अनेक प्रकार के नृत्यों, गीतों ;तथा वाद्यों का समावेश हो तथा जिसमें प्रणय व्यापार तथा विलास आमोद बहुल प्रसंगों का प्रदर्शन हो तो उसे कैशिकी वृत्ति समझना चाहिए।
वह वृत्ति जिसमें उद्धृत पुरुषों के गुणों का अधिक समावेश हो तथा जो उनके विविध सम्भाषणों, शब्दों, कपटवंचनाओं तथा दम्भ और असत्य व्यवहारों से युक्त हों तो उसे आरभटी वृत्ति कहेंगे। इसमें नीचे गिरने, कूदने-फांदने व माया-इन्द्रजाल के कार्य हों और अनेक प्रकार के युद्धों का अभिनय किया जाता है।
उक्त चार प्रकार की वृत्तियों में भरत ने कैशिकी वृत्ति को गीत और संगीत के सबसे करीब माना। इसलिए गीत, संगीत और नृत्य की प्रधानता कैशिकी वृत्ति का लक्षण माना गया। रसों के अंतर्गत भी भरत ने जहाँ वीर, रौद्र तथा अद्भुत रस में सात्वति, भयानक, वीभत्स तथा रौद्र में आरभटी तथा करुण और अद्भुत रस में भारती वृत्ति का प्रयोग उचित ठहराया गया है वहीं कैशिकी वृत्ति हेतु शृंगार रस एवं हास्य रस को अनुकूल पाया गया है। उदाहरण के लिए अपराधी नायक के प्रति नायिका के व्यवहार की जो विवेचना भरत ने 24वें अघ्याय में की है उसमें नायिका के मान जनित व्यवहार में नृत्य की भंगिमाओं का ही वर्णन है और जब नायक और नायिका के मिलन की घड़ी आती है तब भरत का साफ निर्देश है-
“तब नायिका अपने प्रिय का आलिंगन करे और रति के आनन्द हेतु उसके साथ शयन की ओर बढ़े तो ये सभी बातें गीत तथा सुकुमार नृत्य के साथ मंच पर प्रस्तुत की जाय।“
एक कथा के मुताबिक जब भरत को अपने सौ पुत्रों के साथ एक नाटक तैयार करने को कहा गया तो उन्होंने बड़े मनोवेग से भारती, सात्वती और आरभटी वृत्तियों पर आश्रित एक नाटक की तैयारी कर ली किंतु गीत, संगीत और नृत्य को प्रश्रय देने वाली कैशिकी वृत्ति का उपयोग नहीं किया था। तब ब्रह्मा जी ने उनसे कैशिकी वृत्ति प्रयोग में लाने की सलाह दी। तब भरत गीत, संगीत और नृत्य से संभवतः बहुत ज्यादा जागरूक न हों या उन्हें अपनी अपर्याप्तता लगी हो उन्होंने फौरन ब्रह्माजी से इस हेतु अपेक्षित सहायता मांग ली। ब्रह्माजी ने तुरंत उनकी इच्छा पूर्ण की। नृत्य एवं सज्जा हेतु अनेक चतुर सुन्दर अप्सराओं की रचना की गयी। साथ ही वाद्य-यंत्र वादन के लिए नारद मुनि और गंधर्व आदि को गायन हेतु नियुक्त किया गया। इनकी सहायता और सहयोग से भरत ने अपनी सौ पुत्रों की मण्डली के साथ ‘अमृतमंथन’ नामक समवकार तथा ‘त्रिपुरदाह’ नामक डिम खेला।
वृत्तियों के साथ भरत ने प्रवृत्तियों की भी चर्चा की है। भरत प्रादेशिक जनरूचि को महत्त्व देने वाले शास्त्राकार थे। वे कहते हैं-
“मैंने मनुष्यों के देश, वेष, भाषा तथा रूढ़िगत व्यवहार विभिन्न होने के कारण एवं विविध देशी प्रजा की रूचि के अनुसार भारती, सात्वती, कैशिकी तथा आरभटी नामक चार वृत्तियों के आधर पर नाट्यप्रयोग के लिए इन प्रवृत्तियों के भी चार प्रकार मान लिए हैं। क्योंकि विभिन्न प्रदेश वृत्तियों के प्रदर्शन संबद्ध होते है।“
प्रवृत्तियों क चार प्रकार माने गये हैं- 1. आवन्ती 2. दक्षिणात्या 3. पांचाली 4. मागधी। इनमें दक्षिणात्या प्रवृत्ति को संगीत के सबसे निकटवर्ती माना गया है। दक्षिण प्रदेश की प्रजा अनेक नृत्त (नृत्य गीत, वाद्य से युक्त) तथा कैशिकी वृत्ति संपन्न ललित अंगों से विविध प्रदर्शित अभिनय देखने की रूचि रखती है।
नाट्य-व्यवहार के दो रूप माने गये हैं पहला, आविद्ध व दूसरा सुकुमार। आविद्ध के अंतर्गत डिम, समवकार, व्यायोग तथा ईहामृग आते हैं एवं नाटक, प्रकरण, वीथी तथा अंक को सुकुमार नाट्य-प्रयोग के अंतर्गत रखा जाता है। कहा गया है कि आविद्ध नाट्य प्रयोगों का प्रयोग राक्षस तथा वैसी ही प्रकृत्ति के पुरुषों द्वारा किया जाता है तथा सुकुमार का मनुष्यों द्वारा। यह कर कि आविद्ध में सात्वती और आरभटी वृत्ति का ही अधिकतर प्रयोग रहता है और उसमें पुरुष पात्रों की ही अधिकता रहती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि उक्त रूपकों में गीत एवं संगीत प्रायः कम ही रहा होगा जबकि सुकुमार में संगीत के प्रयोग की अधिकता होती होगी।
भरत नाटकों में नृत्य की रचनात्मक भुमिका के पक्षधर थे। जब भरत ने अपने सौ पुत्रों के साथ ब्रह्मा जी की सलाह पर ‘अमृत मंथन’ एवं ‘त्रिपुरदाह’ नामक डिम खेला तब नाटक का प्रदर्शन आशातीत सफलता लिए रहा। किंतु शिवजी ने उसमें नृत्य-संगीत तत्त्व जोड़ने की सलाह दी –-
मयापीर्द स्मृतं नृत्यं सन्ध्या कालेषु नृत्यता।
नानाकरणसंयुक्तैरंगहारैर्विभूषितम्।।13।।
पूर्वरंगविवस्मिन् त्वया सम्यक्प्रयाग्यताम्।
अर्थात संध्या के समय जब मैंने नृत्य का निर्माण किया तब मैंने इसे अंगहारों से – जो करणों से मिलकर निर्मित होते हैं, युक्त करते हुए और भी सुन्दर बनाया है। तुम इन अंगहारों का ‘नाटक’ की पूर्वरंगविधि में प्रयोग करो। ब्रह्मदेव ने इस सन्दर्भ में और जानकारी मांगी। इस पर शिव ने तण्डु नामक विद्वान को नियुक्त किया। इसके बाद तण्डु ने नृत्य के अवयव ‘करण’ (जिसका अर्थ होता है नृत्य के समय शरीर का हलन-चलन) के कुल 108 प्रकारों को भरतमुनि को सिखाया। सम्पूर्ण चतुर्थ अध्याय नृत्य व उसके अवयवों के नाट्य में प्रयोग की गाथा कहता है। इसी संदर्भ में ताण्डव नृत्य के उद्भव की भी चर्चा है।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब अपने पहले प्रदर्शन में भरत ने केवल गायन, वाचन और पाठ्य का ही व्यवहार किया था और वो अच्छा भी बन पड़ा था तब नृत्य को शामिल करने की क्या आवश्यकता थी। एक बात और गौरतलब है कि संगीत की परिभाषा में मध्यकालीन भारतीय विद्वान गायन, वादन और नृत्य तीनों विधाओं को शामिल करते हैं किंतु भारतेंदु ने शायद भरत के पूर्व व्यवहृत गायन, वादन और पाठ्य में से पाठ्य को हटाए बगैर ही उसमें नृत्य का भी समावेश कर लिया है एवं नाट्य और संगीत की अनन्यता स्वीकार की है।
नाटकों में नृत्य की उपयोगिता के संदर्भ में मुनिगण भरत से प्रश्न करते हैं कि जब अर्थों के (गीत तथा संवाद के जो कि रूपक में अवस्थित रहते हैं) उपयोग के लिए विद्वानों ने ‘अभिनय’ की सृष्टि कर दी तो इस नृत्य की सर्जना किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए की गयी?
उत्तर में भरत मुनि कहते हैं –
“यह जो कहा कि ‘नृत्त’; यह किसी अर्थ विशेष की अभिव्यक्ति की उपयोगिता से रहित है – यह ठीक है, किंतु इसे शोभा की सृष्टि के हेतु संयोजित किया जाता है। प्रायः सभी मनुष्य की स्वाभाविक तौर पर ‘नृत्त’ इष्ट है तथा यह मंगल-प्रद भी है इसीलिए इसका कथन किया गया है। यह नृत्त विवाह, पुत्रजन्म, जमाता की बारात में उपस्थिति कि अवसर पर और विजयप्राप्ति के उपलक्ष्य में किये जाने वाले आमोद-प्रमोद के लिए ही बनाया गया है। इस नृत्य को गीतों से सम्बद्ध करके ही प्रयोग किया जाए। प्रायः ताण्डव नृत्त देवताओं की वंदना हेतु ही किया जाता है परंतु यह शृंगार से युक्त तथा उससे उद्भूत सुकुमार भावों के प्रयोग से सम्बद्ध भी हो सकता है। इसके पश्चात ‘आसारित’ गीतों के तहत नृत्य के संयोजन की विधि बतलायी गयी है। आसारित भरत द्वारा प्रतिपादित पूर्वरंग का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।
स्पष्ट है कि भरत नृत्य की स्वतंत्र या एकल प्रस्तुतीकरण के पक्ष में नहीं थे। वे मानते थे कि गीतों के साथ और तमाम वाद्य-यंत्रों के साथ ही इसकी प्रस्तुति विशेष समय और संदर्भों के विवेक से हो। उनका मत है
“जब अभिनय को किसी गीत के अनुसार प्रदर्शित किया जा रहा हो तब उसके साथ वाद्य संगत नहीं की जानी चाहिए, किन्तु अंगहारों नृत्य के प्रयोग की दशा में भाण्डवाद्य (अवनद्ध वाद्य) की योजना अवश्य होनी चाहिए। नृत्यों की नाटकों में योजना कब होनी चाहिए इसपर भी भरत ने अपने मत प्रकट किये हैं। नाट्यशास्त्र में कुछ महत्त्वपूर्ण नृत्य के अवसर माने गये हैं –
1. नाट्यवेत्ताजन जब गीत की या वर्णों की विषय-वस्तु के अंगों में अत्यंत समीपतर स्थिति हो या किसी पात्रा के अभ्युदय का रूपकों की कथावस्तु में अवसर हो तो इन अवसरों पर ‘नृत्त’ की याजना की जाए।
2. जहां नायक-नायिका का प्रणयाश्रित सामीप्य हो तो उनके अतिशय आनंद को प्रस्तुत करने के लिए इसकी योजना हो।
3. जब नायक-नायिका समीप हों और मौसम भी सुहावना हो तब गीत के अर्थों को और संप्रेषणीय बनाने हेतु नृत्त की योजना की जानी चाहिए।
4. यदि रूपक का कोई विभाग देवतागण की प्रार्थणा से संबद्ध हो तो वहां पर नृत्त की योजना की जानी चाहिए।
तात्पर्य है कि खुशी और अतिशय हर्ष के मौकों पर नृत्य की योजना करने का विधान किया गया है। वहीं यदि नायिका वियोग की पीड़ा से ग्रसित है या किसी चिंता से युक्त है तो ऐसी स्थिति में नृत्य का निषेध है। नृत्य के साथ ही भरत ने अवनद्ध वाद्यों के वादन के अवसरों की भी चर्चा की है।
नाट्यशास्त्र के अष्टम् अध्याय में भरत ने अभिनय की विशद् चर्चा की है। भरतमुनि ने अभिनय के चार प्रभेद बताए हैं –
आंगिक, वाचिक, आहार्य तथा सात्विक।
इनमें नृत्य की दृष्टि से आंगिक अभिनय महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने मस्तक, हस्त, वक्ष स्थल, कटि प्रदेश, कोख तथा पैर व नेत्र, भौंह, नासिका, ओठ तथा ठुड्डी उपांगों के अभिनय की विशद् चर्चा है। नवम् अध्याय में आंगिक चेष्टाओं में हस्ताभिनय पर विस्तार से चर्चा की गयी है। भरत ने हस्ताभिनय का विस्तारपूर्वक विवरण देते हुए इनके स्वरूप को प्रस्तुत करते समय देश, काल, कर्म, स्थान तथा प्रचार के अतिरिक्त करणों तथा अर्थयुक्ति को ध्यान में रखने का स्पष्ट निर्देश भी दिया है।
भरत ने हस्ताभिनयों के प्रभेदों को तीन वर्गों में रखा है-
1. असंयुतहस्त
2. संयुतहस्त
3. नृत्तहस्त
इनमें संयुत्तहस्त तेरह, असंयुत्त हस्त चैबीस तथा नृत्तहस्त के तीस प्रभेद किये गये हैं। मुद्राओं को भी मूल या आधार मुद्रा तथा नृत्तहस्त में विभाजित किया जा सकता है। इनमें मूलमुद्रा के अंतर्गत संयुक्त तथा असंयुक्त हस्तों को रखा जाता है। मूल मुद्राएं नृत्य की भाषा के मूलाक्षर समझी जाती हैं। कालांतर में विभिन्न नृत्य-परंपराओं तथा पद्धतियों के उद्भव के साथ-साथ अपनी परम्परागत हस्तमुद्राओं का भी प्रचार देखने में आता है किन्तु इन सभी का मूल एवं आधार ग्रन्थ नाट्यशास्त्र ही है। हस्ताभिनय के आकर्षक विविध रूपों से शोभा लाने के लिये जिन हस्त-स्थितियों की रचना विभिन्न अवस्थाओं में की जाती है वे नृत्तहस्त हैं। आधुनिक प्रचलित नृत्यों में नृत्तप्रधान शैली में परिगणनीय भरतनाट्य में नृत्तहस्तों की विविधता देखने में आती है जबकि दक्षिण भारत के मालावार में लोकप्रिय एवं परम्परागत ‘कथकलि’ ;नृत्य में नृत्तहस्तों का अल्प प्रयोग रखा जाता है क्योंकि यह अभिनयप्रधान नृत्य होता है तथा इसी कारण इसमें अर्थदर्शक हस्तमुद्राओं का ही प्रयोग इष्ट होता है। यदि प्रयोग के उपयोग को देखते हुए विचार करें तो नृत्तहस्तो में भी पताक, त्रिपताक, मुद्रा तथा अधरचन्द्र जैसे नृत्तहस्तों का प्रचुर प्रयोग दृष्टिगत हो जाता है। कथकली की परम्परा में नृत्तहस्तों को ऐसे भिन्नतायुक्त नामकरण से नहीं जाना जाता है फिर भी वहाँ हस्तों की विविध भंगिमाओं वाले रूपों में योजना रखकर प्रयोग को सौष्ठव युक्त रखा जाता है।
नाट्यशास्त्र के दशम अध्याय में अभिनय-विधि के प्रसंग में हृदय, उदर, पाश्र्व, कटि, उरू, जंघा तथा पाद के द्वारा होने वाले अभिनय के विवेचन हैं। इनमें भी सर्वाध्कि महत्त्व पाद का माना गया है क्योंकि उसी के आधर या आश्रय पर उरू तथा जंघा के कार्य निर्भर करते हैं तथा इन्हीं तीनों के कार्यों के समीकरण या एकीभाव से ‘चारी’ का निर्माण होता है। इसी कारण पैरों का नृत्य तथा अभिनय दोनों में समान महत्त्व है। नाट्यशास्त्र का ग्यारहवां अध्याय इसी पर आधरित है।
चारी का अभिनय में बड़ा महत्त्व माना गया है क्योंकि चारी के द्वारा ही नृत्त तथा अंगहारों की रचना तथा शस्त्रों का चलाना भी संपन्न होता है। एक पाद के प्रचार या आगे बढ़ने के व्यापार से चारी का, दो बार पाद प्रचार के द्वारा ‘करण’ का तथा करणों के एकीभाव या समयोग से ‘खण्ड’ का तथा दो या तीन खण्डों के योग से ‘मण्डल’ का निर्माण होता है। चारी के अभिनयव्यापार को सर्वप्रथम दो भागों में विभक्त किया गया है। भारत की विभिन्न नृत्य या नाट्य प्रणालियों में अभी भी इन चारियों में से अधिकांश का प्रयोग चल रहा है। इसके बाद ‘स्थान’ और ‘मण्डल’ जैसे नृत्य व नाट्य दोनों में समान रूप से प्रचलित अवयवों की चर्चा की गयी है।
नाट्यशास्त्रा का तेरहवां अध्याय ‘गतिप्रचार’ अध्याय है। आंगिक अभिनय के क्रम में पात्रों द्वारा प्रयोज्य विभिन्न अवस्था, भाव, स्थान, आसन आदि के समय उनकी जो चाल या गति होती वह भी विभिन्नता लिए हुए रहती है जिससे इन पात्रों के स्थान, भाव, प्रचार आदि का विधान निश्चय किया जाता है। यही विधान ‘गति प्रचार’ कहलाता है। इस गति प्रचार में भी संगीत का महत्त्व असंदिग्ध है और भरत ने इसके लिए उचित निर्देश दिए हैं।
विभिन्न पात्रों के रंगमंच पर होने वाले गति प्रचार का (जो उनके प्रवेश से निष्क्रमण तक है) विवरण इतनी उत्तमता के साथ अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं है। इनमें अभिनेता या पात्र केवल एक मिश्रित प्रमाणयुक्त गति से पादनिक्षेप करते हुए मंच पर आते ही नहीं हैं किन्तु यहां उनकी गति को उपयुक्त संगीत का अनुगमन या संगत भी करनी पड़ता है। विशेषकर वाद्य संगीत तथा कंठ संगीत के साथ। वाद्यों में इनकी संगत बांसुरी तथा वीणा से होती थी तथा विभिन्न मृदंगवादन के विषय में नियमों का पालन होता था। ऐसे समय में ध्रुवा गाने का भी विधान था। इस सन्दर्भ में नाट्यशास्त्र के बत्तीसवें अध्याय में विस्तृत विवरण दिया गया है। ध्यातव्य है कि जब वाद्य-वादन का निर्देश होता है तब वह मंच पर प्रस्तुत होता है न कि आज की तारह पार्श्व संगीत के रूप में उसका इस्तेमाल होता है।
नाट्य एक ऐसी कला है यथार्थ का अनुकरण है। नाट्य में संगीत की अभिव्यंजना शक्ति एवं भावस्पर्शिता का इस्तेमाल अनुकरण के उद्देश्य की पूर्ति करते हुए रसानुभूति कराता है। भरत मुनि को एक ऐसे प्रयोक्ता पात्र की अपेक्षा रही जो दर्शकों के समक्ष आए तथा तब तक अपनी प्रस्तुति दे जब तक संभाषण या संवाद न आरम्भ हो। इसी कारण ऐसे समय मृदंग या बांसुरी का शीघ्र ही वादन आरम्भ किया जाता था और उसी के साथ पर्दे के हटते ही पात्र रंगमंच पर प्रवेश करता तथा यह क्रम तब तक चलता रहता था जब तक की वह संवाद या संभाषण की स्थिति में ना पहुंच जाए। इसी प्रकार का क्रम उसके रंगमंच से निष्क्रमण के समय भी रहता था। यही वह समय था जब ध्रुवा गान की योजना होती थी। कण्ठ तथा वाद्य संगीत का यह चलन वाला प्रयोग क्रम (नृत्यगत) अभिनता एवं अभिनेत्रियों के पादविक्षेप तथा अभिनय के साथ-साथ चलता था जो आज हमें किसी बैलेट नृत्य की सूचना सा देता है तथा नाटकीय संवाद के साथ चलने वाले संगीत के कारण यह पुनः ओपेरा के समीप आ जाता है।
नाट्य प्रयोग के नियम भारत द्वारा प्रस्तुत नाट्य-विधान में स्पष्टतः प्राप्त हैं जो आज विश्व कला संधान के महत्त्वपूर्ण स्रोत एवं आधार बनने में समर्थ हैं। इनकी व्यावहारिक समीक्षा और क्रियात्मक उपादेयता पर व्यापक विमर्श की आवश्यकता शेष है।
डॉ गुंजन कुमार झा
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