नाटक की उत्पत्ति : विभिन्न मतों का अवलोकन
डॉ गुंजन कुमार झा
कला और साहित्य का अध्ययन इतिहास और विज्ञान के अध्ययन से इस मुआमले में अलग है कि यहाँ तथ्य या विधाएँ अविष्कृत नहीं होतीं विकसित होती हैं. कोई भी बात या कोई भी चीज़ यहाँ घटित होने के स्तर पर नहीं होती अपितु रचित होती है. रचना घटना नहीं , विकास है. इस दृष्टि से पारंपरिक तौर पर जब हम किसी भी कला या विधा की उत्पत्ति की बात करते हैं तब यह सामान्य रूप से मान लिया जाना चाहिए कि हम दरअसल केवल उकसे विकास की संभावनाओं को रचना-प्रक्रिया के माध्यम से समझने का प्रयास भर कर रहे हैं.
नाटक की उत्पत्ति या विकास के सन्दर्भ में विभिन्न मतों की हमने चर्चाएँ सुनी हैं. उन्हें एकबारगी देख लेना सही रहेगा:-
वेद
वेदों में नाट्योद्भव के अनेक सूत्र जुड़ते दिखाई पड़ते हैं जिसके कारण विद्वानों ने वेदों से ही नाटकों का उद्भव माना। यजुर्वेद के तीसरे अध्याय में बताया गया है कि यज्ञ में गायन के लिए शैलूष तथा नर्तन के लिए सूत को आमंत्रित किया जाना चाहिए। वैदिक यज्ञ के संपादन के समय मंत्रों के गायन के साथ हाथों की लयबद्ध संचालन का जो निर्देश दिया गया है, उसमें नाट्य प्रयोग हेतु आंगिक अभिनय के सूत्र सहज ही उपलब्ध् हो जाते हैं। यज्ञ विधियों में ही कुछ ऐसे अनुष्ठानों का समावेश भी मिलता है, जिनमें यजमान, पुरोहित या अन्य लोग पूर्व-निर्धरित वाक्यों में परस्पर संवाद करते हैं। संवाद की यह विधि भी नाटक का आभास देती है.
जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने ऋग्वेद एक सूक्त का अनुवाद करते हुए यह अनुमान व्यक्त किया कि इस सूक्त का यज्ञ के अनुष्ठान के अवसर पर दो दलों के द्वारा अभिनय किया जाता होगा। इनमें से एक दल इन्द्र का और दूसरा मरूद्ग्णों का प्रतिनिधि बनता था। आगे चलकर सिल्वा लेवी, वॉन श्रोडर, हार्नेल, मैकडोनल, विंडिश, ओल्डेन बर्ग आदि ने मैक्समूलर का समर्थन करते हुए ऐसे अनेक सूक्तों से नाट्योत्पत्ति मानी जो सूक्त एक से अधिक वक्ता द्वारा प्रयुक्त हुए. एक से अधिक लोगों के बीच संवाद के स्थल पाए जाने के कारण ‘संवाद सूक्त’ कहलाते हैं। प्रो. सिल्वालेवी ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि ऋतुओं और प्रकृति के अन्य उपादानों के द्वारा देवताओं के रूप ग्रहण कर यज्ञादि के समय नाट्याभिनय अवश्य प्रस्तुत किया जाता रहा होगा। डॉ हर्नल ने इन सूक्तों को गेय मानकर यह निरूपित किया कि इनको एक से अधिक व्यक्ति मिलकर गाते थे। इनमें नाट्याभिनय अवश्य प्रस्तुत किया जाता रहा होगा। वॉन श्रोडर ने इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहा है कि इन संवाद सूक्तों ने गायन के साथ अभिनय को भी प्रोत्साहित किया होगा, मानव विज्ञान में संगीत और नृत्य में अभिन्न सम्बन्ध रहा है। गेयता और अभिनय दोनों ही तत्वों का यहाँ सम्मिलन हो जाता है। गेयता और अभिनय के इसी सम्मिलन को श्रोडर ने ‘नाट्य बीज’ कहा है.
ऋग्वेद में यम-यमी, पुरफरवा-उर्वशी, इन्द्र-सरमा, अगस्त्य-लोपामुद्रा, इन्द्र-मारूत आदि प्रसिद्द संवाद-सूक्त हैं। कतिपय विद्वानों की यह धारणा है कि इन सूक्तों को नृत्य-गीत संविलित करके यज्ञीय कर्मकाण्ड के अवसर पर श्रांत पूजकों एवं दर्शकों के मनोविनोदार्थ प्रस्तुत किया जाता था। उस समय इन सूक्तों का स्वरूप गद्य-पद्यात्मक रहता था। गद्यात्मक अंश वर्णात्मक होने के कारण कालांतर में स्मृति-पथ से लुप्त हो गया, पद्यात्मक भाग बचा रह गया।
नृत्य-संगीत
अपने आरंभिक रूप में नाटक और संगीत एक दुसरे से अनुस्यूत रहे. वैदिक काल में कवि-ऋषि संगीत और नृत्य के जानकार प्रतीत होते हैं। ऋषियों ने कई स्थानों पर ख़ुद के श्रेष्ठ नर्तक होने की कामना प्रकट की है। एक स्थान पर परिजन की मृत्यु पर शव-संस्कार करके वापस आते हुए वे कहते हैं – अब हम नृत्य और आनंद के लिए संसार में वापस लौटते हैं।
संसार में लौटना, नृत्य करना और आनंद प्राप्त करना सभी कुछ आपस में मिले हुए हैं. यह नृत्य के वैदिक कालीन मौजूदगी का सबूत भी है और प्रकारांतर से नाटक के विकसित होने का भी.
विद्वानों का एक बड़ा वर्ग संगीत और नृत्य से ही नाटकों की उत्पत्ति मानता है। भारतीय परिभाषा के अनुसार नृत्य भी संगीत का ही अंग है। यों पाश्चात्य परम्परा में नृत्य को संगीत का अनुषांगिक ही माना गया है तथापि संगीत के बिना नृत्य आधारहीन है इसे सभी स्वीकारते हैं. विद्वानों का मत है कि नृत्य में ही जब भावों और संवादों का प्रवेश हुआ तो नाटक का विकास हुआ। इसके प्रमुख प्रतिपादक विद्वान हैं- मैकडोनल। उनके अनुसार ‘नृत्त’ धतु से निष्पन्न ‘नृत्य’ शब्द संभवतः भारतीय नाटक की उत्पत्ति का प्रतिनिधित्व करता है। मैकडोनल का मानना है कि निश्चय ही इसमें सर्वप्रथम असंस्कृत मूकाभिनय रहा होगा जिनमें शरीर के नृत्यपरक चेष्टाओं के साथ-साथ हाथ और चेहरे के मौन अभिनयात्मक संकेत जुड़े रहते थे।
डॉ आर. मंकड़ मैकडोनल के उक्त सिद्धांत को ज्यादा व्यावहारिक तौर पर व्याख्यायित करने का प्रयास करते हैं. उनके अनुसार नाटक का विकास नृत्त, नृत्य और नाटक क्रम में हुआ है। लयाश्रित नृत्य भावाश्रित नृत्य में विकसित हुआ और फिर दोनों के मिश्रण से नाट्य की उत्पत्ति हुई।
पुत्तलिका नृत्य एवं छाया नृत्य
विश्व की तमाम प्राचीन संस्कृतियों (यूनान, मिश्र, भारत) में पुत्तलिका नृत्य की कोई ना कोई परम्परा मौजूद रही है। भारत में यह प्रमुखता से विद्यमान रही है. डॉ पिशेल भारत को ही पुत्तलिका नृत्य का जन्मदाता मानते हैं। शंकर पांडुरंग पंडित पुत्तलिका नृत्य से ही नाटक की उत्पत्ति प्रतिपादित करते हैं। पिशेल ने भी इसका सम्बन्ध नाटक से जोड़ते हुए, सूत्राधर शब्द का अर्थ पुत्तलिका नृत्य से जोड़ते हुए, सूत्र से नचाने वाला माना है।
प्रो. लूडर्स के अनुसार महाभारत का सोभनिका मूक अभिनय और छाया पुत्तलिकाओं के कथानक की व्याख्या करने वाला था। मथुरा के एक शिलालेख में भी उस स्त्री का ज़िक्र हुआ है जो छाया-नाटक का परिचालन करती है। सीताबेंगा की गुफाओं में भी छायानाटकों के मंच मिलते हैं। लूडर्स ने इन्हीं छाया-नाटकों से नाटकों का प्रारम्भ स्वीकार किया है।
वीर पूर्वजों की स्तुति
यह बहुत स्वाभाविक है कि परिवार संस्था के विकास के बाद सबल परिवारों में अपने पूर्वजों की वीरता की कहानियां प्रचलित रही होंगी और मनोरंजन के लिए लोग आपस में ही उसका गायन भी करते होंगे। इस आधार पर कुछ विद्वान नाटक की उत्पत्ति में वीर-पूजा को भी एक अहम वजह के रूप में देखते हैं। डॉ रिजवे इसके प्रबल समर्थक और स्थापक विद्वान हैं। उनका कहना है कि दिवंगत और वीर पुरुषों की स्मृति में समय-समय पर जो सामूहिक सम्मान का प्रदर्शन किया जाता था उसी से नाटक का जन्म हुआ। इसके लिए उन्होंने ग्रीक और भारत की समान प्रवृत्ति की बात की।
प्रकृति
आदिम मनुष्य के सबसे करीब कोई चीज होगी तो वह प्रकृति ही रही होगी। चांदनी की सुरम्यता और बादलों के ओले, दोनों को उसने अपनी नंगी आंखों और उघड़े बदन से महसूसा और झेला होगा। प्रकृति के इस बदलते रूप में उसने कुछ विलक्षण कल्पनाएं भी की होंगी। परिवर्तन की इस प्रवृति नें उसे कुछ रचनात्मक ज्ञान कराया होगा और नाटक की उत्पत्ति हुई होगी।
ए.बी.कीथ का मानना है कि प्राकृतिक परिवर्तनों ने नाट्योत्पत्ति को प्रोत्साहित किया होगा। उनके अनुसार प्राकृतिक परिवर्तनों की जनसाधरण के समक्ष मूर्तरूप प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति ने ही नाटकों को जन्म दिया। महाभारत में निर्दिष्ट ‘कंसवध’ नाटक के संबंध में उनका मत है कि इस नाटक का मुख्य उद्देश्य वसन्त ऋतु पर हेमन्त ऋतु की विजय दिखाना था और कृष्ण का विजय-प्रसंग उन्दिज जगत के भीतर चेष्टा दिखलाने वाली जीवनशक्ति का प्रतीक मात्रा था।
आख्यानात्मक गीत एवं इतिहास-काव्य
कीथ तथा मनमोहन घोष इतिहास-काव्यों (भारत में रामायण तथा महाभारत) के कथा-गायन की परम्परा से (संस्कृत) नाटक का विकास मानते हैं। वे मानते हैं कि प्राचीन काल में लोक गायकों के द्वारा रामकथा का पाठ या गायन लोगों के मनोरंजन या शिक्षा के लिए समाज में किया जाता था। इन लोक गायकों को कुशीलव कहा जाता था। इस कथा-गायन में संवाद और अभिनय जुड़ गये तो उससे नाटक के प्रयोग की परम्परा विकसित हुई।
सांस्कृतिक उत्सव
पाश्चात्य विद्वानों ने पश्चिम के देशों में प्रचलित ‘मे-पोल’ नृत्य-उत्सव की चर्चा की है। प्रो. स्टेन कोनो अपनी पुस्तक ‘दास इंडिश ड्रामा’ में शिशिर ऋतु बीत जाने के बाद मई माह में वसंत आगमन के उल्लासपूर्ण पर्व ‘मे-पोल’ की तुलना भारत के ‘इन्द्रध्वज’ पर्व से की है। इस पर्व में किसी खुले मैदान में एक लंबा बाँस गाड़कर स्त्री-पुरुष उसके चारों ओर नाचते-गाते उल्लास मनाते हैं। हालांकि ‘मे-पोल’ उत्सव और भारत में मनाए जाने वाले ‘इन्द्रध्वज’ में बहुत सी असमानताएं हैं। तथापि उत्सवों ने भी नाट्यों के विकास में भूमिका निभाई होगी, इसमें संदेह नहीं।
ग्रीक संस्कृति
दुनियाँ की प्राचीनतम संस्कृतियों में यूनानी संस्कृति (ग्रीक) सबसे समृद्ध मानी जाती है। अधिकांशतः पाश्चात्य विद्वानों के मत में नाटकों की उत्पत्ति सर्वप्रथम यूनान में हुई और वहीँ से यह भारत भी आया. खेल और संस्कृति को लेकर यूनान का ऐतिहासिक महत्त्व है. ओलंपिक खेलों की स्थापना ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी में ही हो गयी थी। एथेंस और स्पार्टा दो महत्त्वपूर्ण नगर थे। एथेंस में गणतंत्र और स्पार्टा में राजतंत्र का विकास हुआ। दोनों ही स्थानों पर नाटकों का विकास हुआ.
डॉ बेवर, प्रो. विंडिश उक्त स्थापना के मुख्य समर्थक हैं। उन्होंने इसके लिए कुछ कारण बताए हैं। इसमें मुख्य रूप से उनका बल यवनी, यवनिका एवं शकार शब्द का प्रयोग पर रहा है. उनका मानना है भारतीय (संस्कृत) रंगमंच में यवनिका (पर्दा) शब्द का प्रयोग यहाँ के नाट्यों में यूनान के प्रभाव को स्पष्ट करता है. यों ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसा कोई साक्ष्य वे प्रस्तुत नहीं करते जिसके आधार पर यूनान को ही सम्पूर्ण विश्व के नाटकों की उत्पत्ति का नियामक माना जाए. . ऐतिहासिक तथ्य यह है कि सिकन्दर भारत की भूमि पर 19 महीने रहा। …इतनी लंबी अवधि में विश्व-विजेता सिकंदर भारत के केवल पश्चिमोत्तर क्षेत्रा को स्पर्श कर पाया। भारत का हृदय तो उससे बिल्कुल अछूता ही रहा। एक-एक गणराज्य ने उसके सैनिकों को नाकों चने चबवा दिए। …सिकंदर के आक्रमण का भारत पर कोई स्थायी प्रभाव न पड़ा। उसके फलस्वरूप भारत का केवल पश्चिमोत्तर प्रदेश, पश्चिमी पंजाब और सिन्ध् ही प्रभावित हुए। यूनानी सभ्यता यहां क्षत्रपीय व्यवस्था के रूप में स्थापित हुई लेकिन सिकंदर की मृत्यू के बाद वे फौरन ही नष्ट हो गये। भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर सिकन्दर के आक्रमण का प्रभाव बहुत कम पड़ा। इसका पहला कारण यह है कि सिकन्दर और उसके क्षत्रप यहाँ बहुत थोड़े दिन रहे और दूसरा यह कि भारतीय संस्कृति पहले ही यूनानी संस्कृति से अधिक विकसित और समुन्नत थी। उसे यूनानियों को देने को सब कुछ था, लेने के लिए कुछ नहीं।
जहाँ तक यवनिका शब्द का प्रयोग है तो यह ध्यातव्य है कि भास, कालीदास, भवभूति या शूद्रक ने यवनिका का प्रयोग कहीं नहीं किया। ‘यवनिका’ शब्द का सबसे पहला प्रयोग ‘कर्पूरमंजरी’ में हुआ है, जो दसवीं शताब्दी की रचना है और प्राकृत भाषा में लिखी गयी है। यवनिका शब्द वस्तुतः ‘जवनिका’ का विकृत रूप है। प्राचीन भारत के कोषकारों ने अनेक उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि यह शब्द पर्दे का पर्याय ना होकर परदे का नाम है। जवनिका शब्द ‘जु’ धतु से बना है, जिसका अर्थ है तेजी से हिलना। परदा भी तेजी से उठता-गिरता है। इसलिए इसे जवनिका कहते हैं। हरिवंश में भी इसका प्रयोग नाट्यगृह के परदे के लिए ही हुआ है। वास्तवाकिता यह है कि संस्कृत नाटक और ग्रीक नाटक में जो समानताएं हैं वो महज एक दूसरे का प्रभाव हो सकती हैं.
यूनानी और भारतीय नाटकों में कुछ ऐसे बुनियादी फ़र्क हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि भारतीय रंगमंच का यूनानी रंगमंच से अलग अस्तित्व स्पष्ट करते हैं. दोनों में पर्याप्त विषमताएं हैं. ‘संस्कृत नाटक अपनी स्वच्छंदतावादी और रोमांसवादी प्रवृत्ति के कारण एलिजाबेथिन नाटकों के अधिक समीप है, यूनानी नाटकों के नहीं, जो शास्त्रीय पद्धति के समीप अधिक है। यूनानी ग्रीक नाटकों में अन्विति त्राय ;समय, स्थान तथा कार्य का खास महत्व है किंतु संस्कृत नाटक समय और स्थान की एकता की ओर ध्यान नहीं देते। संस्कृत नाटककार दैवीय और मानवीय पात्रों का चयन करने के लिए स्वतंत्र है। यूनानी नाटककारों पर इसके लिए पूर्ण प्रतिबंध् है क्योंकि उन्हें अपने नाटक में कार्य का अनुगमन करना पड़ता है। यूनानी नाटकों में सहगान (कोरस) को विशेष महत्त्व दिया जाता है जबकि संस्कृत नाटकों में गीतों का चयन किया जाता है, जो व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार के होते हैं और उसके साथ में नृत्य का संचालन भी प्रायः होता आया है। ग्रीक नाटकों में नृत्य का प्रायः अभाव ही है।
दोनों नाट्य-प्रणालियों में सबसे बड़ा अंतर उद्देश्य का है। भारतीय नाटक की चरमावस्था आनन्द है, जिसे वह धर्म और कर्म के माध्यम से मोक्ष की ओर ले जाकर प्राप्त करता है। संस्कृत नाटक यूनानी नाटकों के समान दुखांत नहीं होते। संस्कृत नाटकों का समापन शांति और सुख की और ले जाता है. समूचे नाटक में मौजूद सभी तरह के संघर्षों का नाटक के अंत तक आते-आते शमन हो जाता है. अंत मतलब सुख. अंत मतलब आनंद.
वास्तव में नाटकों की उत्पत्ति को लेकर तमाम स्थापनाएं केवल उस कड़ी को पकड़ने का प्रयास भर हैं जिनके सहारे नाटक का विकास कैसे हुआ इसपर एक धारणा बनाई जा सके. ध्यातव्य है कि नाटक का विकास प्रत्येक जगहों पर एक सा नहीं हुआ होगा. सभी प्राचीन संस्कृतियों में इसके विकास की अलग-अलग स्थिति बनी होगी. तथापि उनके आपसी प्रभावों से भी इंकार नहीं किया जा सकता.
नाटकों के मूल को समझने में प्राप्त नाट्य-सिद्धांतों से कुछ सूत्र लेकर वहाँ के सांकृतिक इतिहास का मंथन किया जा सकता है. वहीँ से उस स्थान विशेष में नाटक के आरम्भ के कुछ निशान ढूंढें जा सकते हैं.
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