नाटक की उत्पत्ति
डॉ गुंजन कुमार झा
नाटक की उत्पत्ति
जिंदगी ने जब पृथ्वी पर अंगड़ाई ली होगी तो उसकी सबसे पहली लड़ाई हुई होगी भूख से। इस भूख को मिटाने के लिए किए गए संघर्ष के बाद जब मनुष्य सुस्ता कर बैठा होगा तो पहली बार उसका मन सर्जना की ओर गया होगा। भूख की तृप्ति पर संतुष्टि के फलस्वरूप, कभी शिकार में मिली अवांछित सफलता की खुशी और कभी तपती गर्मी के बाद बरसते ठंडे पानी की गुदगुदाहट ने उसे नाचने और झूमने के लिए प्रोत्साहित किया होगा। भाषा के विकास के बाद नाचने के साथ पहले गीत ने अपनी जगह पाई होगी और फिर अभिनय ने। इस तरह मनुष्य-सभ्यता के साथ ही नाटक ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई होगी। नाटक चूंकि भाषाई सरहदों में फलने वाली विधा है इसलिए इसकी उत्पत्ति के संदर्भ में हमें संस्कृत नाटकों की उत्पत्ति को जानना होगा.
संस्कृत नाटक की उत्पत्ति कैसे हुई इस पर विद्वानों में अनेक मत रहे हैं। इन मतों के झरोखों से कुछ राहें स्पष्ट नजर आ जाती हैं। यों सिद्धांतों और शास्त्रों की व्याख्याओं में व्यस्त संस्कृत विद्वानों के पास संस्कृत नाट्यों के वस्तुपरक, आलोचनात्मक और क्रमिक अघ्ययन का समय शायद कम है.
संस्कृत के प्राचीनतम् नात्य्शास्त्रीय ग्रन्थ में भरतमुनि ने जिस तरह से नाट्य सिद्धांतों की गहन चर्चा की है, उससे ये स्पष्ट हो जाता है कि उससे पूर्व तक ही नाट्य की एक गहन परम्परा भारत में विद्यमान थी। सिद्धांतों का निर्माण, रचना की अनुपस्थिति में नहीं हो सकता।
नाट्यशास्त्र में नाट्य की उत्पत्ति के संदर्भ में एक बहुचर्चित कथा कही गई है जिसके अनुसार ब्रह्मा ने ‘ऋग्वेद’ से पाठ्य, ‘सामवेद’ से गीत, ‘यजुर्वेद’ से अभिनय और ‘अथर्वेद’ से रस लेकर नाट्य की रचना की थी –
जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् सामभ्योगीतमेव च।
यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि।।;1.17
कथा बड़ी रोचक है। जब स्वयंभुव मुनि द्वारा संचालित कृत युग समाप्त हो गया और वैवश्वत मनु द्वारा संचालित त्रेता युग का आगमन हुआ तब ग्राम्य धर्म का बोलबाला हो गया। मनुष्य में लोभ, इर्ष्या-द्वेष की भावना बढ़ गयी अैर दानवों और राक्षसों का आतंक बढ़ गया। तब इन्द्रादि देवता ब्रह्मदेव के पास गये और उनसे ऐसी विद्या को जन्म देने की प्रार्थणा की जिससे नाशकारी मेघा को विचलित किया जा सके व जो दृश्य व श्रव्य दोनों हो ताकि शूद्र भी उसका प्रेक्षण कर सकें। ब्रह्मा ने तब नाट्यवेद की रचना की।
नाटक की प्रस्तुति में देवताओं ने अपनी कलात्मक अयोग्यता का हवाला देते हुए अपनी असमर्थता प्रकट की। इसके उपायस्वरूप ब्रह्मा ने भरत मुनि का चयन किया। भरतमुनि ने अपने सौ पुत्रों के साथ नाटक तैयार किया और इन्द्रघ्वज महोत्सव पर अपनी यह प्रस्तुति ‘देवासुर संग्राम’ नाटक के रूप में दी। इस नाटक में देवों व असुरों के युद्ध में देवताओं की जीत दिखाई गयी। देवतागण तो खुश हो गये किन्तु दैत्य नाराज हो गये और विघ्न डालने पहुंच गये। अतः नाट्य रक्षा हेतु ब्रह्मा ने विश्वकर्मा से नाट्यगृह का निर्माण कराया और विधिवत रंग-पूजा के साथ रंगमंच की रक्षा के लिए देवों को नियुक्त किया।
इतना ही नहीं सब रूपों से प्रेक्षागृह को सुरक्षित रखकर ब्रह्मा ने दैत्यों को भी समझाया। तदोपरांत ‘अमृतमंथन’ का प्रदर्शन किया गया, जो शांतिपूर्ण रहा। आगे ब्रह्मा के ही निर्देश पर भरत ने अपनी मंडली के साथ यह नाटक हिमालय के रमणीक शृंग पर पूर्वरंग विधान के साथ ‘अमृतमंथन’ तथा ‘त्रिपुरदाह’ का प्रदर्शन किया। प्रसन्न होकर शिव ने पूर्वरंग विधन में तांडव नृत्य जोड़ने की सिफारिश की। इस नृत्य के गुरू के रूप में तांडु नामक नृत्य-विशेषज्ञ से सहायता प्राप्त करने की सलाह दी। भरत ने तांडु से तांडव नृत्य की शिक्षा प्राप्त कर उसे पूर्वरंग में समाविष्ट कर लिया। शिव की पत्नी पार्वती ने लास्य नृत्य के द्वारा इसमें सुकुमारिता हेतु शृंगारिकता का संयोजन किया। विष्णु ने भी चार नाट्यवृत्तियों का आविष्कार कर नाट्य वेद को और भी आकर्षक बना दिया।
ऐसा कहा जाता है कि भरतादि अभिनेताओं ने एक नाट्य-प्रदर्शन के दौरान कुछ आपत्तिजनक प्रस्तुतियाँ की जिससे क्रुद्ध होकर ऋषियों ने उन्हें शूद्र बना दिया। इस प्रचलित कथा को रघुवर दयाल वाष्र्णेय ने आड़े हाथों लिया है। भरत को अनार्य (द्रविड़) व शिव को अनार्य(द्रविड़) देवता मानते हुए वे लिखते हैं-
‘सम्पूर्ण नाट्य-अवतरण की कथा आर्यों के अपने स्वार्थ की कहानी है। …इन अनार्यों को उन्होंने इसलिए गले लगाया था क्योंकि उस समय बौद्ध और अन्य शास्त्र विरोधी संप्रदायों ने अपने भीषण प्रहारों से वैदिक प्रथाओं और ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा और प्रभुत्व को हिला दिया था।’
वे यह मानते हैं कि ‘भरत’ यहाँ की मूल निवासियों की एक जनजाति थी। यह जाति कला में सर्वगुण सम्पन्न थी। जब आर्य यहां आये तो अपनी शासन स्थापना के लिए उन्होंने भरतों को ‘यूज’ किया और जब उनसे उनका मतलब निकल गया तो उन्हें शूद्र कह कर धिक्कार दिया. लिखते हैं –
‘’नाराज होकर या बहाना पाकर आर्यों ने इन भरतपुत्रों को उच्च पद से नीचे गिरा दिया और उन्हें अपने वास्तविक पदों से हटाकर उन्हें भूतल पर पटक दिया। यहाँ भूतल का अर्थ पृथ्वी नहीं है बल्कि पृथ्वी का तल, जिसे पाताल भी कह सकते हैं। पाताल की कल्पना उस स्थल से है, जहां नित्य प्रति की आवश्यक वस्तुएँ भी ना मिले और ऐसा स्थल उस समय दक्षिण भारत ही था। इसलिए नाट्य-नृत्य की सभी अनार्य अथवा भरत परम्पराएँ दक्षिणी भारत में आज भी सुरक्षित हैं। भरतनाट्य वहाँ का विश्व प्रसिद्ध नृत्य है। भक्ति का प्रादुर्भाव भी इसी दक्षिण-भूमि से हुआ। इस प्रकार दक्षिण में जाकर इन कला मर्मज्ञों ने अपनी परम्पराओं को आज भी लोकनाट्य के रूप में सुरक्षित रखा है।‘’
वार्ष्णेय जी की अनार्यों वाली ‘थ्योरी’ मूलतः इस खोज पर आधारित है कि आर्य बाहर से हिंदुस्तान आए. किन्तु अब नवीन स्थापनाओं के अनुसार यह बात सामने आ रही है कि आर्य के बाहर से हिंदुस्तान आने की पूरी थ्योरी ग़लत और मनगढ़ंत है. प्रख्यात मानवशास्त्री डॉ कैलाश कुमार मिश्र के अनुसार आर्यन माइग्रेशन थ्योरी को मानवशास्त्रीय विवेचना, पुरातत्विक साक्ष्यों के आधार पर लगभग समाप्त कर दिया गया है। नवपाषाण युग (Neolithic Age) से ही आनुवंशिकी का क्रम बृहत्तर भारत मे नही टूटा है। फिर आर्य और अनार्य (अथवा द्रविड़) का प्रश्न ही कहाँ आता है? इस संदर्भ में यह कहना जरूरी हो जाता है कि Estonian Biocentre और दिल्ली विश्वविद्यालय के संयुक्त परियोजना ने यह दावा किया है कि उनके द्वारा किए गए तीन प्राचीन आदिवासियों (आप चाहें तो समुदाय कह लें) के ‘हाई रेसोल्यूशन एनालिसिस’ जो बड़ी संख्या में ‘माइग्रेशन’ के चिन्ह को देखने का यत्न किया, से स्पष्ट हो जाता है कि इसप्रकार का कोई भी ‘जेनेटिक सिग्नल’ (जननिक प्रमाण) नही मिलते हैं। अतः यह सिद्धांत कपोल-कल्पना पर आधारित है। यह ठीक उस प्रकार की कल्पना है जिसके आधार पर ‘क्रेनियल’ और ‘सेफालिक-इंडेक्स’ से किसी प्रजाति को उन्नत तो किसी को अविकसित कहा जाने लगा था। आज विज्ञान ने प्रजातीय श्रेष्ठता को जड़ से उखाड़ फेंका है।
अब एक नज़र संगीत की उत्पत्ति को लेकर उपलब्ध कथा पर डालते हैं. संगीत की उत्पत्ति के सन्दर्भ में यह कहा जाता है कि एक बार की बात है. ब्रह्मा जी उदास बैठे थे. उन्हें उदास देखकर उनकी पत्नी सर्सस्वती (विद्या और संगीत की देवी माता सरस्वती) ने इसका कारण पूछा. ब्रह्मा जी ने कहा कि उन्होंने इतनी सुन्दर दुनियां बनी. फूल, पेड़-पौधे, नदी, पहाड़-झड़ने इतना सुरम्य वातावरण और रंग-बिरंगे जीव और जंतु. किन्तु उनका सबसे प्रिय जीव मनुष्य अब भी उदास है. उसके जीवन में कोई उत्साह और आनंद नहीं है. मनुष्यों की इस उदासी से वे भी उदास हैं. इस पर माता सरस्वती ने उन्हें पृथ्वी पर संगीत की उत्पत्ति-प्रसार का सुझाव दिया.
कह सकते हैं कि संगीत का पृथ्वी पर प्रसार उदासी के प्रतिकार में हुआ. उत्साह के संचरण और ख़ुशी के प्रसार के लिए हुआ. ब्रह्मा ने इस कार्य का जिम्मा सरस्वती माता को ही सौंपा. सरस्वती जी ने अपने पुत्र नारद को , जिन्हें स्वयं उन्होंने संगीत कला में दक्ष किया था और जो तीनों लोकों में विचरण करते रहते थे, उन्हें यह काम सौंपा. नारद ने पृथ्वी पर साधनारत और शिक्षण का कार्य कर रहे ऋषियों को यह संगीत सिखाया. ऋषियों ने अपने शिष्यों को और फिर उन शिष्यों ने अपने शिष्यों को सिखाया . इस तरह पूरी पृथ्वी पर संगीत का प्रसार हुआ.
संगीत की उत्पत्ति की इस कथा को नाटक की उत्पत्ति की कथा के साथ जोड़कर देखने और समझने की ज़रुरत है. दरअसल यह पूरा सिद्धांत हिन्दू या सनातन माइथोलॉजी के इर्द-गिर्द घूमता है. ब्रह्मा जिन्होंने सृष्टि की रचना की वही नाटक के भी उत्पादक हैं और संगीत के भी. उन्होंने इसके प्रसार की ज़िम्मेदारी विभिन्न देवी-देवताओं को दी और उन देवी-देवताओं ने अपने काम को सफलतापूर्वक अंजाम दिया.
ज़ाहिर है तर्क के आधार पर उक्त कथाओं का कोई विशेष महत्त्व नहीं है. यहाँ तक कि जब नाटक या संगीत के विद्यार्थियों को इस तरह की कहानियां बताई जाती हैं तब एक अजीब सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है. और फिर यह कहा जाता है कि ऐसी कथाएँ प्रचलित हैं या लोग ऐसा मानते रहे हैं.
यह ध्यातव्य है कि नाटकों या संगीत की उत्पत्ति को लेकर वैज्ञानिक या ऐतिहासिक तथ्य संभव भी नहीं हैं. तर्क और व्यावहारिकता के आधार पर इतना भर कहा जा सकता है कि मनुष्य की उत्पत्ति के साथ ही जीवन कि सभी सहधर्मी गतिविधियों की तरह नाटक का भी विकास हुआ होगा. नाटक कोई वस्तु नहीं एक कला है. एक शैली है, एक व्यवहार है. किसी चीज़ या वस्तु की तरह समय के एक निश्चित बिंदु पर यह उत्पन्न नहीं हुआ होगा न इसका अविष्कार हुआ होगा. इसका विकास हुआ होगा, समय के प्रवाह में. उस प्रवाह का सम्बन्ध इंसानी सभ्यता के विकास के साथ अनुस्यूत है.
डॉ गुंजन कुमार झा
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