गर्विस्तान का हिन्दू
डॉ गुंजन कुमार झा
दूसरी कक्षा में रहा होऊंगा. एक गोल सा सिक्का मेरे चचेरे बड़े भाई ने लाकर दिया. राम एक धनुष उठाये लड़ने को आतुर खड़े थे. तीर प्रत्यंचा पर चढाने ही वाले थे. बलिष्ठ शरीर और चेहरे पर एक गौरव का भाव. मानो आज विजय प्राप्त करके ही लौटेंगे. उसी पर देवनागरी में लिखा था – ‘’गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’’.
मुहर्रम पर दाहा खेलने जब एक टोली आती थी तब उन्हें हमारे टोल का ब्राह्मण बहुल समाज पैसे दिया करता था. हमें बताया जाता था कि वे ‘मियां’ लोग हैं. पहचान यही कि हमसे ‘उलटे’ हैं . हम सीढ़ी लाठी पकड़ते हैं तो वे उलटी पकड़ते हैं. हम खाने से पहले नहाते हैं वे खाने के बाद नहाते हैं. हम यानी श्रेष्ठ लोग. हम यानी ब्राह्मण लोग. हम यानी सज्जन और विद्वान लोग , जो भी हम करते हैं वे लोग उसका उल्टा करते हैं . वे मियां लोग हैं.
पास एक छोटा शहर मधेपुर. हमारा थाना भी वही है , प्रखंड भी. जब कभी हम फटफटिया या किसी और गाडी से जाते तो बीच में एक गाँव पड़ता था- भीमपुर . ‘मियां’ लोगों का गाँव. ‘’अरे गाडी धीमा कर ने रे ‘’ जो भी पीछे बैठा होता वो आगे वाले से ये ज़रूर कहता. कारण दो – एक कि वहां बकरियां बेतहाशा सडक पर दौर लगा रही होतीं और दूसरा ये कि वह मियां लोगों का गाँव है . किसी के लग गयी तो दंगा हो जाएगा. जान भी जा सकती है. माने बड़े खतरनाक लोग हैं. क्यों भाई खतरनाक लोग हम भी तो हैं . हम भी तो लाठी रखते हैं. जवाब सीधा और सपाट – ‘ अरे कहावत है न – मूरखक लाठी बीचे कपार’’ ( मूर्ख की लाठी सीधे बीच सर पर पड़ती है ..अर्थात मूर्ख जब वार करता है तो यह नहीं सोचता कि लाठी कहाँ लगेगी, वह ब्राह्मणों (समझदारों) की तरह कमर या पीठ पर नहीं मारता ताकि जान भी न जाए और पिटाई भी हो जाए बल्कि वह तो सीधा सर पर ही दे मारता है. कहानी ही ख़त्म)
माने मियां लोग- मूर्ख लोग, खतरनाक लोग. हम हिन्दू हैं और हमारा उल्टा है मुसलमान . शुक्र है कि भाषा ज्ञान के दौरान विलोम शब्द में जब हम ‘सही’ का विलोम शब्द ‘ग़लत’ पढ़ रहे थे तब हमें हिन्दू का विलोम शब्द मुसलमान नहीं बाताया गया. ऐसा प्रश्न ही नहीं आया. अन्यथा शायद हम सब का जवाब वही होता. बावजूद इसके इतना स्पष्ट याद है कि ऐसी आतंरिक टूट और दूरी के बावजूद दैनिन्दिक जीवन में मियां लोग बराबर शामिल थे. घर की ईटें वही जोड़ते थे. कपडे वही सिलते थे. यहाँ तक कि घर में जच्चा-बच्चा होने पर पमारिया लोग नाचने-गाने आते थे , वे मियां लोग ही होते थे. उन्हें ब्राह्मण वधुओं से मज़ाक करने और उनसे जिद करके भी उपहार लेने को भी सामाजिक मान्यता मिली हुई थी.
यह सही है कि भारतीय समाज में हज़ार वर्षों के कालखंड में हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर जिस सांझी संस्कृति का विकास किया उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं और उस जड़ को समझे बिना देश कभी भी अपने मूल स्वरुप को नहीं समझ पाएगा. किन्तु यह भी सच से कुछ अधिक है कि उस सांझी संस्कृति का जितना महिमामंडन सरकारों द्वारा किया गया उतना उसपर बुनियादी काम नहीं हुआ. तुष्टिकरण की नीति ने और काम चलाने की प्रवृत्ति ने दो समाजों की सांझी संस्कृति के बीच एक दूसरे में इतनी गुंजाइश को हमेशा बने रहने दिया कि एक का गर्व दुसरे को अपमानित या अपने से अवर समझकर ही प्रमाणित होता रहा. यह क्या और क्यों हुआ इसपर अलग से शोध की ज़रुरत है.
खैर, वह सिक्का लेकर भीतर कहीं कुछ जागा. बालमन आचानक गौरव महसूस करने लगा. हिन्दू हैं जी, गर्व करने के लिए कहा गया है. सो गर्व करने लगे. यह आडवाणी के रथ-यात्रा का समय था जिसकी धमक कोसी के कछारों के आसपास के गाँवों में पहुँच चुकी थी. लालू के लालटेन की रौशनी में भगवा रंग का वह सिक्का हिंदुत्व की राजनीती की पहली धमक थी. राजीव गांधी की हत्या पर हफ़्तों तक फफक-फफक कर रोने वाली मेरी दादी और कट्टर कांग्रेसी हमारा पूरा कुनबा; कब मंदिर से जुड़ते हुए भाजपा की ओर मुड़ गया, पता ही नहीं चला.
साल दो साल बाद पिताजी की नौकरी दिल्ली में लग गयी. हमारा अपना घर हुआ. इन पांच से आठ वर्षों में राम मंदिर का मुद्दा परिवार के लिए एक भावनात्मक मुद्दा बना रहा. राम का वह सिक्का वाला रूप कहीं भीतर अंकित हो चुका था. कालोनी में पास में एक दुकान थी मिठाई की. उनकी दूकान पर वही सिक्के वाले राम जो कह रहे थे धनुष लेकर – ‘’गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’’, दीवार में मंदिर की शक्ल में मौजूद थे. जब कभी मैं मिठाई या समोसे लेने जाता , वह ‘गर्व’ वाला दूसरी कक्षा वाला भाव जहन में जाग जाता. धीरे-धीरे बड़े होने के साथ गर्व का विवेक आया . पता चला कि कानूनी पहलुओं में मंदिर बनने के मायने क्या हैं. यह भी समझ आया कि गर्व करने लायक कोई ऐसी बात है नहीं. गर्व की भावना हमें दुसरे को नीचा देखने के लिए प्रेरित करती है. इसलिए गर्व का भाव सामान्य रूप से भी ख़राब है. क्यों हो गर्व , काहे का गर्व ? किन्तु सहानुभूति का एक कोना तद्युगीन भाजपा में जाकर मिल गया. भाजपा के सिक्के वाले राम अवचेतन में खड़े थे धनुष लेकर, मजबूती के साथ. उस अवचेतन ने अटल और आडवानी में अपना राजनीतिक आकर लिया. घर में पिताजी एक पत्रिका लाते थे ‘शक्तिपुत्र’. अटल जी के तो हम दीवाने थे.
कॉलेज आया. अटल जी प्रधानमंत्री हो चुके थे. परिवार को लगता था कि बस अब तो मंदिर बनना तय है किन्तु मुझे राजनीती समझ आने लगी थी. समझ रहा था कि यह अभी संभव नहीं है. इधर कॉलेज और विश्वविद्यालय में नक्सलियों के पक्ष में साहित्य को पढ़ा. नक्सलबाड़ी आन्दोलन को समझा. पाश की पंक्तियों के पोस्टर लगाए जगह-जगह. आइसा के अपने वरिष्ठों से भी प्रभावित हुए. इजराइली प्रधानमंत्री को गालियाँ देने के लिए हम अपने ‘सीनियर्स’ के कहने पर दूतावास तक पहुँच गए. डार्विन, फ्रायड, मार्क्स, लेनिन. माओ सबओर दिमाग घूमा. मगर राम धनुष लिए हुए अब भी खड़े थे.
तुलसी और कबीर को पढ़ा. कबीर तुलसी से बेहतर लगने लगे. कई प्रोफेसरों और व्याखायाताओं ने तुलसी को संकीर्ण भी करार दिया. पूजाघर में रखी लाल कपड़ों में लिपटी वह पूजित पुस्तक, वह रामचरितमानस आचानक से केवल एक काव्य-ग्रन्थ लगने लगी, अवचेतन में संचारित चौपाइयों में उत्प्रेक्षा और उपमान ढूँढने लगे. तुलसी के राम और कबीर के राम की व्याख्याएँ करने लगे किन्तु ‘गर्व’ सिखाने वाले राम बने रहे. लगातार.
इधर शाइनिंग इण्डिया का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था. अटल का कोई विकल्प नहीं था. मेरे पिताजी आश्वस्त थे कि इस बार भाजपा को दो तिहाई बहुमत अकेले मिलेगी और राम मंदिर बनेगा. हमारे लालटेन वाले गाँव में अब बल्ब की तयारी हो रही थी. प्रधानमंत्री सडक योजना का काम दिख रहा था. राजमार्ग फर्राटामार गति से निर्मित हो रहा था. मगर कांग्रेस भी सकते में थी , वह जीत गयी.
एक बार राहुल गांघी सामने सेंट स्टीफेंस कॉलेज कॉलेज आए. हम हिन्दू वाले बड़े कुढ़े थे. बातों में बात चली कि आज की तारिख में देश का सबसे ताकतवर इंसान कौन है? जवाब आया – राहुल गाँधी. इसके एक इशारे पर दिशाएँ हिल सकती हैं. हम कौन सी चीज़ हैं. खैर, राहुल गांधी हम सब के राजकमार बना दिए गए थे. हमें लगता था कभी भी मनमोहन सिंह को हटाकर राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बना दिया जाएगा.
मंदिर की बात अब पृष्ठभूमि में जा चुकी थी. भाजपा के अजेंडे में पीछे की ओर शामिल यह मुद्दा मुख्यतौर पर केवल चुनावी माहौल में यथासमय फायदा उठाने का जरिया भर रह गया था. उन दस वर्षों में भाजपा कई स्तरों पर कांग्रेस सी हो चली थी. मोदी का भाजपा की केन्द्रीय राजनीति में आना भाजपा के कांग्रेसीकरण पर एक प्रहार था. हिंदुत्व की चाशनी में तैरते विकास के गुलगुले का गुजरात मॉडल अब पूरे भारत पर लागू होना था. यह अच्छा था या बुरा यह इतिहास तय करेगा कि राम मंदिर के निर्माण और धारा ३७० के खात्मे ने जनमानस के भीतर यह स्थापित कर दिया कि कि असंभव कहे जाने वाले मुद्दे संभव हो गए हैं. राजनीतिक विश्लेषक और आने वाला समय यह ज़रूर परखेगा कि क्या मोदीमय भारत श्रेष्ठ भारत की गारंटी है ? क्या किसी एक व्यक्ति का इतना महात्म्य लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिहाज़ से अच्छा है ? किन्तु इतिहास में यह ज़रूर दर्ज होगा की मोदी के नेतृत्व में राम मंदिर और धारा ३७० के दो ऐसे कार्य पूर्ण हुए जो तमाम दूसरी पार्टियों और राजनैतिक विचारधारा के विचारकों व नेताओं के द्वारा असंभव माने जाते थे. इसी लोकतंत्र में , उपलब्ध प्रावधानों और पैमानों में किस तरह ये दो काम पूरे हुए यह आने वाले कई वर्षों तक राजनीतिक शोध के विषय बने रहेंगे.
Leave a Comment